ACoder's cocktail
गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
राष्ट्रीय सहारा -शनिवार २४ जुलाई २०१० -दंगों में दिखता पुलिस का असल चेहरा- विभूति नारायण राय
साम्प्रदायिक हिंसा के विरुद्ध बिल के बहाने सबसे पहले इसके द्वारा बढे अधिकारों का उपयोग करने वाली संस्थाओं की क्षमता , इच्छा शक्ति और पूर्व मे उनके द्वारा विधि से प्राप्त अधिकारों के उपयोग अथवा दुरुपयोग के इतिहास को खगाँलना आवश्यक है । मुझे पूर्व मे इसी बिल के ड्राफ्ट पर विचार करने के लिये आयोजित एक गोष्ठी की याद आ रही है जिसमे सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे.एस.वर्मा ने बहुत अच्छा सवाल उठाया कि क्या भारत के मौजूदा कानून साम्प्रदायिक हिंसा से निपटने के लिये पर्याप्त नही हैं ? वे सम्भवत: पूछ्ना चाहते थे कि अगर भारतीय राज्य मे मौजूदा कानूनों की तरह इस नये कानून को लागू करने के भी लिये जरूरी इच्छा शक्ति का अभाव रहा तो इसका भी हश्र उन्ही जैसा तो नही हो जायेगा?अब जब यह कानून की शक्ल लेने जा रहा तो मेरे मन मे एक और सवाल कौधँ रहा है । क्या भारतीय राज्य की जिस संस्था को मुख्यरूप से इन प्राविधानों का उपयोग करना है वह इसके योग्य है भी या नही ? अदालतों तक पहुचने के पहले पुलिस इस नये कानून का उपयोग या दुरुपयोग करेगी । पिछ्ला अनुभव बताता है कि विधि मे उपलब्ध प्राविधानों का उपयोग पुलिस ने इस तरह किया है कि दंगों मे पीडितों , खास तौर से अल्पसंख्यकों , के मन मे हमेशा यह कसक रही है कि भारतीय राज्य नें वह सब नही किया जो उसे ऐसी स्थिति मे करना चाहिए था या उसने वह सब किया जो उसे नही करना चाहिये था । 1960 के बाद के हर साम्प्रदायिक दंगे मे पुलिस के ऊपर पक्षपात के आरोप लगे हैं। आरोप लगाने वालों में सिर्फ मुसलमान ही नही बल्कि मानवाधिकार संगठनों से जुडे लोग, स्वतंत्र मीडिया और विभिन्न जांच आयोगों की रपटें शामिल है । यदि हम सरकारी आकँडों का ही यकीन करें तब भी हम यही पायेंगे कि हर दंगे में मरने वालों में ज्यादातर मुसलमान थे । न सिर्फ ज्यादा बल्कि अधिकांश मामलों मे तो तीन चौथाई से भी ज्यादा। उस पर तुर्रा यह कि इनमे पुलिस कार्यवाही भी अधिकतर मुसलमानों के खिलाफ ही हुई। अर्थात जिन दगों मे मरने वले अधिकतर मुसलमान थे उनमे भी पुलिस की गाज उनपर ही गिरी ।मतलब ज्यादा मुसलमान गिरफ्तार हुए, अधिकतर तलाशियाँ भी उन्ही के घरों की हुयी और उन दंगों मे भी जहां मरने वाले तीन चौथायी से अधिक मुसलमान थे वहां भी अगर पुलिस नें गोली चलायी तो उनके शिकार भी मुख्य रूप से मुसलमान ही हुए ।मुसलमानों में पुलिस के प्रति अविश्वास इतना अधिक है कि अपने एक शोध के दौरान जब मैने दंगा पीडितों से एक बहुत साधारण सा प्रश्न पूंछा कि क्या उस समय जब उनकी जान और माल खतरे मे हो तो क्या वे मदद के लिये पुलिस के पास जाना चाहेंगे ? दुनिया के किसी भी दूसरे मुल्क में इस तरह का सवाल केवल पागल ही पूंछ सकता है क्योकि कही भी खतरे में पड्नें पर नागरिक राज्य की तरफ ही स्वाभाविक रूप से देखेंगे। राज्य का मुख्य कर्तव्य ही नागरिकों की जान माल की हिफाजत करना है और राज्य का सबसे दृश्यमान अंग पुलिस इस भूमिका को निभाता है।पर आप इस पर क्या कहेंगे कि मेरे प्रश्न के उत्तर मे अल्पसंख्यक दंगा पीडितों की बहुसंख्या ने कहा कि वे उस समय भी जब उनकी जान माल खतरे मे हो पुलिस के पास नही जाना चाहेंगे। उनका यह संकोच किसी शून्य नही उपजा है।इसके पीछे ठोस ऐतिहासिक कारण हैं । उन्होने विभिन्न साम्प्रदायिक दंगों में पुलिस के पक्षपात पूर्ण व्यवहार का दंश झेला है ।मैनें खुद अपने शोध के दौरान और 35 वर्षो की भारतीय पुलिस सेवा की अवधि मे ऐसे बहुत से मामले देखे हैं जब साम्प्रदायिक हिंसा की आग मे लुटा पिटा कोई मुसलमान पुलिस के पास पहुचा तो बजाय कन्धों पर आश्वस्तिकारक थपथपाहट के उसने अपने गालों पर एक झन्नाटेदार झापड पाया । 1984 मे सिक्खों के अनुभव भी कुछ कुछ ऐसे ही थे जब दिल्ली जैसे शहर मे भी पुलिस नें अधिकांश मामलों मे मुसीबतजदा सिक्खों की मदद करने की जगह बलवाइयों का साथ दिया और कई मामलों तो अगर पुलिस न पहुची होती तो सिक्ख अपनी जान बचाने मे कामयाब हो गये होते ।
मैने ऊपर जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है उनमे किसी मे भी वर्तमान कानूनों की अपर्याप्तता अथवा अक्षमता जिम्मेदार नही है। सभी के पीछे एक ही कारण है और वह है हमारे मनों के अन्दर गहरे पैठीं गहरी दुर्भावना जो हमें खाकी पहनने के बाद भी हिन्दू या मुसलमान बनाये रखता है । भारतीय राज्य के विभिन्न अवयव आज भी हम और वे की मनोग्रंथि से पीडित हैं । मुसलमान उनके लिये अभी भी वे हैं ।पुलिस के अधिकांश लोग मानते है कि दंगा मुसलमान शुरू करते हैं और दंगे को रोकने के लिये उनके पास सबसे आसान नुस्खा है मुसलमानो के साथ सख्ती । इसी लिये उन दंगो मे भी, जिनमे शुरुआत से हिन्दू हमलावर दिखते हैं, पुलिस की कार्यवाही मुसलमानो के विरुद्ध ही होती दिखती है । एक औसत पुलिसकर्मी के मन मे यह बात इतने गहरे बैठी है कि आम तौर से मुसलमान हिंसक और क्रूर होता है कि उसके लिये यह मान पाना कि कोई दंगा हिन्दुओं ने शुरू किया है या किसी दंगे मे हिन्दू हमलावर हो सकते हैं लगभग असम्भव है।उसके लिये औसत हिन्दू आमतौर से उदार या अहिंसक होता है ।मुझे याद है कि 1990 में जब रामजन्मभूमि आन्दोलन अपने चरम पर था और मै इलाहाबाद मे नियुक्त था , मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि पुलिस थानों मे साम्प्रदायिकता के मोर्चे पर सिर्फ मुसलमानों के विरुद्ध इंटेलिजेंस उपलब्ध था ।विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन , जो खुले आम हिंसा भड्का रहे थे, के बारे मे न के बराबर सूचनायें थीं ।पुलिसकर्मियों को यह समझाने मे मुझे बहुत मेहनत करनी पडी कि उन परिस्थितियों मे हमारे रडार पर हिन्दू संगठन होने चाहिये न कि मुस्लिम । ऐसा नहीं कि भारतीय राज्य के अवयओं मे सिर्फ पुलिस ही इस ग्रंथि से पीडित है ।न्यायपालिका ने बहुत से मौकों पर निराश किया है । राजनैतिक नेतृत्व् ने तो हमेशा उस इच्छाशक्ति का अभाव दिखाया है जो साम्प्रदायिक हिसां से निपटंने के लिये जरूरी है।भारतीय समाज की सच्चाई जानने वाले सहमत होंगे कि दंगे भडक तो सकते हैं पर लम्बे तभी खिचते हैं जब राज्य चाहता है। मेरा तो दृढ विश्वास है कि यदि कोई द्ंगा 24 घंटे से अधिक चल रहा है तो इस बात की जाचं होनी चाहिये कि क्या राज्य का कोई अंग उसमे शरीक तो नही है । उपरोक्त के सन्दर्भ मे हमें साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ बनने वाले किसी भी कानून को परखना चाहिये ।
जब इस बिल का पहला ड्राफ्ट विचार विमर्श के लिये वितरित हुआ था तब से आज तक कई बार इस पर विस्तार से चर्चा हुई है । इस पर हुये विमर्शो मे राजनीतिक दलो , नागरिक अधिकार संघटनो तथा साम्प्रदायिकता से जुडे मुद्दो पर काम क़रने वाली संस्थाओ से जुडे लोगों ने भाग लिया है । मुझे भी कई बार इनमे भाग लेने का मौका मिला है । हर जगह एक आम राय बनी कि इस नये कानून मे पहले से ही बहुत अधिकार प्राप्त पुलिस को और अधिक अधिकार दिये जा रहे है।क्या पुलिस इन अधिकारो का प्रयोग अल्पसख्यकों की हिफाजत के लिये करेगी य इनका प्रयोग भी उनके खिलाफ ही होगा? ये बढे हुए अधिकार भारतीय राज्य को फासिस्ट तो नही बनायेंगे? इन सारे सवालो पर हमें विस्तार से विचार करना होगा । इस नये कानून मे एक बहुत अच्छी बात यह हुई है कि पह्ली बार किसी कानून मे हिंसा के शिकार व्यक्तियों के लिये क्षतिपूर्ति की वैधानिक व्यवस्था की गयी है। साथ ही अपने कर्तव्यों मे असफल सरकारी कर्मचारियो को उनका उत्तरदायित्व निर्धारित करते हुए दंडित करने के प्रविधान भी इसमे है। मेरे विचार से यह एक बहुत महत्वपूर्ण कदम है। अंत मे फिर वही एक प्रश्न—क्या महज कानून को अधिक सख्त बनाने से साम्प्रदायिकता की समस्या से निजात पायी जा सकती है? या इसके लिये भारतीय राज्य की संस्थाओ को अधिक सम्वेदनशील और वैज्ञानिक चेतना से लैस करना होगा? मुझे लगता है कि कानूनो से अधिक हमें अपने दिमागी जालों को साफ करना होगा ।
विभूति नारायण राय
मैने ऊपर जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है उनमे किसी मे भी वर्तमान कानूनों की अपर्याप्तता अथवा अक्षमता जिम्मेदार नही है। सभी के पीछे एक ही कारण है और वह है हमारे मनों के अन्दर गहरे पैठीं गहरी दुर्भावना जो हमें खाकी पहनने के बाद भी हिन्दू या मुसलमान बनाये रखता है । भारतीय राज्य के विभिन्न अवयव आज भी हम और वे की मनोग्रंथि से पीडित हैं । मुसलमान उनके लिये अभी भी वे हैं ।पुलिस के अधिकांश लोग मानते है कि दंगा मुसलमान शुरू करते हैं और दंगे को रोकने के लिये उनके पास सबसे आसान नुस्खा है मुसलमानो के साथ सख्ती । इसी लिये उन दंगो मे भी, जिनमे शुरुआत से हिन्दू हमलावर दिखते हैं, पुलिस की कार्यवाही मुसलमानो के विरुद्ध ही होती दिखती है । एक औसत पुलिसकर्मी के मन मे यह बात इतने गहरे बैठी है कि आम तौर से मुसलमान हिंसक और क्रूर होता है कि उसके लिये यह मान पाना कि कोई दंगा हिन्दुओं ने शुरू किया है या किसी दंगे मे हिन्दू हमलावर हो सकते हैं लगभग असम्भव है।उसके लिये औसत हिन्दू आमतौर से उदार या अहिंसक होता है ।मुझे याद है कि 1990 में जब रामजन्मभूमि आन्दोलन अपने चरम पर था और मै इलाहाबाद मे नियुक्त था , मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि पुलिस थानों मे साम्प्रदायिकता के मोर्चे पर सिर्फ मुसलमानों के विरुद्ध इंटेलिजेंस उपलब्ध था ।विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठन , जो खुले आम हिंसा भड्का रहे थे, के बारे मे न के बराबर सूचनायें थीं ।पुलिसकर्मियों को यह समझाने मे मुझे बहुत मेहनत करनी पडी कि उन परिस्थितियों मे हमारे रडार पर हिन्दू संगठन होने चाहिये न कि मुस्लिम । ऐसा नहीं कि भारतीय राज्य के अवयओं मे सिर्फ पुलिस ही इस ग्रंथि से पीडित है ।न्यायपालिका ने बहुत से मौकों पर निराश किया है । राजनैतिक नेतृत्व् ने तो हमेशा उस इच्छाशक्ति का अभाव दिखाया है जो साम्प्रदायिक हिसां से निपटंने के लिये जरूरी है।भारतीय समाज की सच्चाई जानने वाले सहमत होंगे कि दंगे भडक तो सकते हैं पर लम्बे तभी खिचते हैं जब राज्य चाहता है। मेरा तो दृढ विश्वास है कि यदि कोई द्ंगा 24 घंटे से अधिक चल रहा है तो इस बात की जाचं होनी चाहिये कि क्या राज्य का कोई अंग उसमे शरीक तो नही है । उपरोक्त के सन्दर्भ मे हमें साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ बनने वाले किसी भी कानून को परखना चाहिये ।
जब इस बिल का पहला ड्राफ्ट विचार विमर्श के लिये वितरित हुआ था तब से आज तक कई बार इस पर विस्तार से चर्चा हुई है । इस पर हुये विमर्शो मे राजनीतिक दलो , नागरिक अधिकार संघटनो तथा साम्प्रदायिकता से जुडे मुद्दो पर काम क़रने वाली संस्थाओ से जुडे लोगों ने भाग लिया है । मुझे भी कई बार इनमे भाग लेने का मौका मिला है । हर जगह एक आम राय बनी कि इस नये कानून मे पहले से ही बहुत अधिकार प्राप्त पुलिस को और अधिक अधिकार दिये जा रहे है।क्या पुलिस इन अधिकारो का प्रयोग अल्पसख्यकों की हिफाजत के लिये करेगी य इनका प्रयोग भी उनके खिलाफ ही होगा? ये बढे हुए अधिकार भारतीय राज्य को फासिस्ट तो नही बनायेंगे? इन सारे सवालो पर हमें विस्तार से विचार करना होगा । इस नये कानून मे एक बहुत अच्छी बात यह हुई है कि पह्ली बार किसी कानून मे हिंसा के शिकार व्यक्तियों के लिये क्षतिपूर्ति की वैधानिक व्यवस्था की गयी है। साथ ही अपने कर्तव्यों मे असफल सरकारी कर्मचारियो को उनका उत्तरदायित्व निर्धारित करते हुए दंडित करने के प्रविधान भी इसमे है। मेरे विचार से यह एक बहुत महत्वपूर्ण कदम है। अंत मे फिर वही एक प्रश्न—क्या महज कानून को अधिक सख्त बनाने से साम्प्रदायिकता की समस्या से निजात पायी जा सकती है? या इसके लिये भारतीय राज्य की संस्थाओ को अधिक सम्वेदनशील और वैज्ञानिक चेतना से लैस करना होगा? मुझे लगता है कि कानूनो से अधिक हमें अपने दिमागी जालों को साफ करना होगा ।
विभूति नारायण राय
शनिवार, 17 जुलाई 2010
रविवार, 7 मार्च 2010
'ब' ,'क' और विनयना - पद्मा राय
हमेशा की तरह नाक की सीध में चलती चली जा रही थी कि रिसेप्शन पर वीरा दी दिखायी दीं ।पंकज से किसी टॉपिक पर बात कर रहीं थीं । उन्हें वहां देखते ही स्कूल की पत्रिका की याद आ गयी ।एक दिन पहले ही मिली थी ।उसमें वीरा दी का एक आर्टिकल पढने को मिला । कमाल का सेन्स ऑफ ह्यूमर है वीरा दी का ।आज यहां उन्हें देखकर उन की कृति की याद ने हंसने के लिए मजबूर कर दिया।वास्तव में अनूठी रचना थी ।मजा आ गया उसे पढक़र ।उन्हें बधाई देने का जी चाहा ।लेकिन इस समय नहीं, वरना अगर बातों में उलझ गये तब क्लास रूम तक पहुंचने मे ब्रेकफास्ट ओवर हो चुकेगा ।
यह केवल इस एक दिन की बात नहीं है ।इधर कई दिनों से विनयना का व्यवहार ऐसा ही है ।उसके सामने मैंने उसकी कॉपी खोलकर रख दी ।उसकी कलाई में रिस्टबैण्ड बांधकर उसे मोटी वाली पेन्सिल पकडा दी ।अब उसे लिखना चाहिए ।लेकिन वह अनमनी सी बैठी रही ।पेन्सिल उससे संभल नहीं रही थी या वह संभालना ही नहीं चाहती थी । न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा, कि वह जान बूझकर ऐसा कर रही है । उसे उन अक्षरों को उनके सामने बने चित्रों के साथ मैच करवाना था जो उन्हीं अक्षरों से आरम्भ होते थे ।पेन्सिल तो उसने संभाल ली थी लेकिन मैच करने के बजाय वह उन पन्नों पर आडी-तिरछी ,टेढी-मेढी रेखाओं वाली अजीबोगरीब आकृतियों का निर्माण करने लगी ।उसको मनाने का हर संभव प्रयास बेकार गया ।वह किसी भी तरीके से पहले की तरह अपना क्लास वर्क करने के लिए तैयार नहीं हुयी ।
कुछ देर बाद तो उसने पेंसिल पकडने से भी इंकार कर दिया ।हद तो यह हुयी कि उसने अपने दोनो हाथ मेज पर रखे और सिर पीछे कुर्सी पर टिका दिया ।उसके बाद कुर्सी को अपने पीठ और सिर से पूरी ताकत लगाकर पीछे की तरफ ढकेलने लगी ।कई बार कुर्सी उलटते-उलटते बची ।इतने पर भी संतोष नहीं हुआ तो अपने कांपते हाथों से सामने रखे मेज पर रखी हुयी तमाम वस्तुओं को जल्दी-जल्दी हटाने लगी ।देखते ही देखते कुछ ही देर में उस पर रखी सभी वस्तुएं एक-एक करके जमीन पर पहुंच गयीं ।
उन्हें उठाकर मैंने मेज पर रख दिया ।मैं कुछ नहीं कर पा रही थी ।मेरे पास असहाय होकर चुपचाप बैठकर उसे देखते रहने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।अंजना ने कहा -
''इसकी तरफ ध्यान मत दीजिए , थोडी देर में अपने आप नार्मल हो जायेगी।''
लाख कोशिशों के बावजूद ध्यान उसकी तरफ बार-बार जाता था।उसका क्रोध बढ रहा था और उसी रफ्तार से कुर्सी को पीठ से टकराने की रफ्तार भी ।अपनी पीठ से कुर्सी को बार-बार धक्का दे रही थी ।पेन्सिल,रबर,शार्पनर और चित्रों वाली कॉपी ,सभी कुछ जमीन पर पहुंच चुका था ।ऐसा एक बार नहीं हुआ ,कई-कई बार हो चुका था।दो बार तो पृथ्वी ही उन्हें उठा कर ऊपर रख चुका था ।इस समय भी सभी वस्तुएं जमीन पर बिखरीं हैं।मेज बिल्कुल साफ-सुथरी और खाली है।इस बार अंजना ने सारी वस्तुएं उठायीं और उन्हें विनयना के बैग में रख दिया।
कोई बात है तो जरूर ! पहले तो वह ऐसी नहीं थी ।सबसे कम उम्र की विनयना मल्टिपल प्राब्लमस की शिकार थीं । ठीक से बोल नहीं सकती थी, चलने के लिए उसे व्हील चेयर का सहारा लेना पडता था और उसके हाथ ,उसका आदेश मानने से इंकार करते थे ।इन सबके बावजूद पूरी तरह से अपने काम के प्रति समर्पित और एकाग्रचित्त होकर जी जान से आगे रहने की उसकी कोशिशें हमें उसकी तरफ आकर्षित करतीं रहतीं ।सारी क्लास में एक अकेले वही थी जिसका मन पढाई में सबसे ज्यादा लगता था।पढते समय उसका ध्यान कहीं और नहीं होता था।शुरू शुरू में सब एक ही तरह से ध्यान मग्न होकर समझदार बच्चों की तरह पढते हुए दिखायी देते हैं, ऐसा लगता है कि वे अपना उस दिन के लिए निर्धारित काम पूरा करके ही दम लेंगे लेकिन जल्दी ही सबका धैर्य चुकता हो जाता था।तानिश को टॉयलेट जाना होता है या फिर भूख लग जाती,साहिल को अपनी साल भर पहले की लगी चोट में दर्द होने लगता है और इशिता को जिस नये स्कूल में आगे पढने के लिए जाना है उसकी याद सताने लगती है ।केवल अकेली विनयना बची रह जाती जो अपने काम को पूरी निष्ठा के साथ पूरा करके ही दम लेती ।उस समय उसे अपनी पढाई के अलावा कुछ भी याद नहीं रहता ।
आंखों की पुतलियों को पूरा फैलाकर दीदी की तरह टुकटुकी लगाए एकाग्रचित्त होकर सुनने वाली विनयना की पढाई में इतनी दिलचस्पी देखकर अंजना का मन भी उसे ज्यादा से ज्यादा सिखाने के लिए मजबूर हो जाता है।विनयना चाहती भी यही है कि वह जल्दी से जल्दी कितना कुछ सीख जाये और तमाम जानकारियां हासिल कर ले।
पढते समय उसको कोई चीज अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकती थी ।किन्तु साहिल,इशिता और तानिश तीनो का हाल यह था कि उन्हें पढाई के अलावा और सभी चीजें अपनी तरफ आकर्षित कर सकतीं थीं।कितनी सारी बातें होतीं उनके नन्हें से दिमाग में और कितनी नई बातें वे अपनी उन यादों में स्वयं जोडते जाते। जितनी देर चाहो उतनी देर तक वे बातें कर सकते थे।बातें करते समय थकान उन्हें कभी नहीं होती ।वे सोचते -
''अगर पढना न होता तो कितना मजा आता।''
फिर अब क्या हो गया इसे ? पढने लिखने से इसका मन क्यों उचट गया है सोचते हुए मैंने एक कुर्सी खींची और उसके ठीक सामने बैठ गयी।उसके बैग मे से कॉपी, पेन्सिल निकाल कर उसके सामने रख दिया।उसने कनखियों से मुझे देखा।फिर अपना सिर ऊपर उठाया ।उसके होंठ कुछ टेढे हुए और पेन्सिल को अपने दोनो हाथों से पकडक़र अपने बांयें हाथ के अंगूठे और ऊंगलियों के बीच में अटकायी तो मुझे उम्मीद होने लगी ,अब विनयना अपना काम करना आरम्भ करेगी ।लेकिन उसने अपने उसी पुराने अंदाज में पेन्सिल घुमाना शुरू किया ।दुबारा मार्डन आर्ट बनाने मे मशगूल हो गयी।वही पुराना कार्यक्रम।मैं समझ गयी, इस तरह तो विनयना के हाथों कई दुर्लभ चित्र बनकर तैयार हो जायेंगे और उनकी प्रदर्शनी के लिए हमारे स्कूल का हॉल छोटा पडेग़ा।मैंने कुछ न बोलने में ही खैरियत समझी ।उसके जो मन में आ रहा था वह करती जा रही थी और मैं उसके सामने चुपचाप बैठी हुयी उसे करते हुए देख रही थी ।उसके क्रियाकलाप में मैंने किसी प्रकार की दखलअंदाजी नहीं की ।विनयना को मुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी ।ऐसा कभी होता नहीं था कि दीदी ने जो काम करने के लिए दिया हो वह न कर के कोई बच्चा पेन्सिल से आडी तिरछी रेखाएं खींचता रहे और टीचर कुछ न कहे।उसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।उसने पेन्सिल से खिलवाड क़रना बंद कर दिया ।मेरी तरफ देखा ,सोच रही होगी कि शायद मैं कुछ कहूंगी।मैंने कुछ नहीं कहा ।लेकिन वह क्या कर रही है, किसे देख रही है और किधर देख रही है ,इन सब बातों पर मेरी पूरी नजर थी ।मैं लगातार यह नोटिस कर रही थी कि बीच-बीच में विनयना की नजरें अपने आस-पास बैठै बच्चों की पेन्सिलों और कापियों पर फिसल रही थी।
एकाएक मुझे कुछ कुछ बात समझ आने लगी। हो न हो यही बात है ।शायद मैं ठीक समझ रही होऊं । थोडा मन में शक भी था।उस समय मुझे ऐसा महसूस हुआ कि दूसरे बच्चों की तरह वह भी लिखना चाहती थी ।अक्षरों को, उन्हीं अक्षरों से आरम्भ होने वाले चित्रों के साथ मैच कर-कर के वह बोर हो चुकी हो, क्या पता? तभी तो अंजना ने कितने भी अच्छे चित्र उसकी कॉपी में बनाकर क्यों न दिया हो , उसके मन में किसी प्रकार की उत्सुकता नहीं जगी ।उन चित्रों की तरफ उसने ठीक से देखा भी नहीं ।अब उसका मन ही नहीं लगता इस काम में ।कब तक केवल मैचिंग करती रहे ? यह सब तो विनयना कब का सीख चुकी है अब उसकी आकांक्षा कुछ नया सीखने की है ।
मन कह रहा था कि मेरा अंदाजा सही होगा।यही बात हो सकती है।धीरे-धीरे विश्वास हो चला कि इसके अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता।विनयना सभी अक्षरों को पहचानने लगी है।शब्दों को ही नहीं अब तो उसने पूरे-पूरे वाक्यों को भी पढना आरम्भ कर दिया है ।दीदी प्रति दिन उसे मैचिंग करने के लिए दे देतीं हैं ।क्यों देतीं हैं ? कितने दिन और वह मैचिंग करती रहेगी ? उसे यह सब बहुत अच्छी तरह आता है।अब नहीं करना है उसे यह बोरिंग काम । उसके दूसरे साथी अभी तक अक्षरों में ही उलझें हैं।कोई बच्चा उसकी तरह नहीं पढ सकता । मीनू के अलावा सभी ,इशिता, तानिश और साहिल लिखतें हैं ।वे ठीक से नहीं लिख पाते तब कई बार तो, हाथ पकड क़र दीदी उनसे लिखवातीं हैं।देखकर, उसका भी मन लिखने का करता है ।उन लोगों की कॉपियां भरने लगीं हैं ।प्रति दिन वे सब लिखतें हैं फिर उससे क्यों नहीं लिखवातीं हैं ? वह भी लिखेगी ।अंजना दीदी नहीं लिखवातीं , कोई बात नहीं , वह अपने आप लिखेगी।और अब वही करने की ठानी है ।वैसे तो मुझे अपने अनुमान के सच होने का विश्वास था किन्तु तब भी उससे एक बार पूछने में क्या हर्ज है ।मैने पूछा-
''क्या बात है विनयना ? क्यों नहीं अपना काम जल्दी से पूरा कर लेती हो ।तुम्हें तो सब कुछ आता है न ? देखो सबने अपना अपना काम तुमसे पहले समाप्त कर लिया ।ऐसा पहले कभी होता था?''
विनयना ने कुछ कहा जिस पहले मैं समझ नहीं पायी ।वह बोल सकती है ,बोलती भी है ।सभी बातें कहने का प्रयास करती है लेकिन उसकी जीभ सही जगह पर पहुंच न पाने के कारण उसकी आवाज साफ-साफ समझ नहीं आती और उसके शब्दों को समझने में दिक्कत होती है ।हम अनुमान लगाते रहते और उसकी कोशिश तब तक जारी रहती जब तक कि उसकी बातों को हम ठीक-ठीक समझ नहीं लेते ।हम अटकलें लगाते।गलत होने पर वह अपना सिर जल्दी-जल्दी दांयें-बायें हिलाकर हमे आगाह करती कि हम गलत सोच रहें हैं ।सही सिरा हमारे हाथ में आते ही उसकी मुस्कराहट देखने लायक होती और उसका चेहरा चमकीला हो उठता है ।तब उसके हर हावभाव खुशनुमा हो उठतें हैं।
अपने कान उसके नजदीक ले जाकर मैंने ध्यान से उसकी बात सुनी और समझने की भी कोशिश की ।शायद कुछ समझ में आया।
''तुम भी लिखोगी जैसे तानिश लिख रहा है ?''
विनयना का सिर ऊपर-नीचे ,दांयें-बांयें गरज ये कि जिधर की तरफ भी वह हिला सकती थी,हिला रही थी।हाथ हवा में उडने लगे ।अंजना भी वहीं थी । उसने सब सुना और सुनकर अवाक बैठी मेरी तरफ देख रही थी। आगे क्या होने वाला है -वह कल्पना कर सकती थी।
अपना सिर कुर्सी से टिका कर मंद मंद मुस्कुराती हुयी विनयना अब शान्त मुद्रा में कुछ सोचती सी लगी।इस समय मुझे वह बहुत प्यारी लग रही है।
'' तो लिखो न ।तुमने पहले कभी बताया नहीं ।''
मेज पर से उसकी कॉपी उठाकर मैंने उसके एक पन्ने पर ,सबसे पहली पंक्ति में बडे-बडे दो अक्षर लिख दिये ।जब मैं लिख रही थी उस समय उसका पूरा ध्यान लगाकर मेरे लिखने पर था।अपने लिखने का इंतजार था उसे ।सारे अक्षरों को वह अच्छी तरह से जानती पहचानती है फिर उन्हें लिखने में कितनी देर लगेगी भला।मैं कनखियों से उसे परख रही थी । मैंने कहा _
''पढो इसे ।''
मेरी तरफ देख कर हंसी_
''ब ऽऽऽऽऽ,क़ऽऽऽऽऽ।'' खिल- खिल, खिल- खिल।ढेरों गुलाब खिल उठे एक साथ ।मुझे महसूस हुआ जैसे गुलाबों की महक में रात रानी की भीनी-भीनी खुशबू भी शामिल हो गयी हो।
''ठीक है , वेरी गुड ।एकदम सही पढा है तुमने ।'' फिर मैं ने अंजना की तरफ देखा और कहा,
''अंजना दी आज इसे आप 'एक स्टार' दीजिएगा ।'' अंजना मेरी तरफ देखती रही ।कुछ सोच रही थी।
''हां तो अब विनयना ,आज तुम्हें लिखना है ।लो अब यह पेन्सिल उठाओ और इन दोनो अक्षरों को अपनी कॉपी में लिख डालो।''
मेरे मुहं से निकलने की देर थी कि विनयना ने फटाफट पेन्सिल अपने ऊंगलियों और अंगूठे के बीच बने घेरे मे फंसाया और जुट गयी । उसने लिखना शुरू कर दिया ।आत्म विश्वास से उसका चेहरा दमक रहा था।किन्तु जितना उसने सोचा था ,काम उतना आसान नहीं है।खासा मुश्किल है ।मनचाहे दिशा में पेन्सिल चल नहीं रही है ।ले जाना चाहती है दांयें और पेन्सिल घूम जाती है बांयें ।सीधी रेखा खींचती है, खिंच जाती है अष्टकोणीय ।मुसीबत है ।अपने तरीके से लिखने की कोशिश करती ।एकाध सैकण्ड हाथ कन्ट्रोल में रहता और फिर हवा में ऐसे उडने लगता कि थोडा बहुत आकार जो बना होता वह भी बिगड ज़ाता। अक्षर बन नहीं पा रहे थे ।लेकिन उसने अपनी कोशिशें नहीं छोडीं ।लगातार पेन्सिल को अपने तरीके से चलाने का प्रयास करती जा रही थी।वह लिख कर रहेगी ।सारे अक्षरों को अच्छी तरह से पहचानने वाली विनयना 'ब' और 'क' नहीं लिख सकती , यह कैसे हो सकता है ?
बैठी-बैठी मैं अपने आपको कोस रही थी , मुझे इस तरह की बेहूदी बात आखिर सूझी कैसे ? यह काम ठीक नहीं हुआ।अब क्या करूं? उससे झूठ भी नहीं बोल सकती कि उसने एकदम सही लिखा है ।और किसी को तो झूठ बोलकर बहला फुसला सकतें हैं किन्तु विनयना को नहीं ।यह संभव ही नहीं है।झूठा दिलासा उसे कैसे दे सकतीं हूं ? गलत लिखे अक्षरों को विनयना सही मानेगी ही नहीं ,यह मैं अच्छी तरह जानतीं हूं ।अक्षरों के सही स्वरूप से वह पूरी तरह से वाकिफ है ।उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है ।
मैं देख रहीं हूं ,उसका आत्मविश्वास डिगने लगा है ।यही मैं नहीं चाहती थी ।लेकिन अब ! जी तोड असफल कोशिशों से विनयना थकने लगी है ।माथे पर नन्हीं नन्हीं पसीने की बूंदें दिखायी देने लगीं हैं ।उसकी एकाग्रता भंग हो चुकी है । लिखते समय एक बार उसने अपना मुंह ऊपर उठाया ।मैंने उसकी आंखों की कातरता देखी ।असफल हुयी है विनयना ,उसका एहसास तेजी से उसे हो रहा था और इसके साथ ही उदासी ने उसे घेरना शुरू कर दिया । पेन्सिल उसकी गिरफ्त से छूटकर पहले मेज पर गिरी और फिर लुढक़ते हुए जमीन पर पहुंच गयी।अपना सिर उसने एक बार फिर कुर्सी पर टिका दिया।
भिंचा हुआ चेहरा और बार-बार होंठों को काटने की कोशिश, करती हुयी विनयना -उसका यह रूप मेरे लिए बिल्कुल नया है ।इतना असहाय मैने उसे पहले कभी नहीं देखा था। आहिस्ता-आहिस्ता मैंने उससे कहना आरम्भ किया ।
''विनयना देखो तो जरा, तुमने जो अक्षर बनायें हैं उनमें से ये वाला अक्षर तो कुछ ठीक लग रहा है ।कुछ देर अगर और कोशिश करोगी तब एकदम सही बनने लगेगा ।मैं ठीक कह रहीं हूं न ? लेकिन आज नहीं ।हम कल एक बार फिर से इसी तरह से लिखने का प्रयास करेंगे ।क्यो ?''
उसने मेरी बात सुनी या नहीं ,मुझे नहीं मालूम चला किन्तु मैंने देखा ,उसने कांपते हाथों से अपनी क्लास वर्क की कॉपी अपने सामने खींच ली और उन पन्नों को खोलकर अपने सामने रख लिया जिस पर दीदी ने उसके लिए चित्र बनाकर उसका क्लासवर्क निर्धारित किया था। निर्विकार भाव से उसने मुझे एक बार देखा फिर हल्के से मुस्कुराकर उसने पेन्सिल उठा ली और अक्षरों को चित्रों के साथ मैच कराने लगी।मैंने मुक्ति की सांस ली ।मुझे लगा अब विनयना लिखने की जिद नहीं करेगी ।लेकिन विनयना ने मुझे गलत साबित कर दिया।उसने हार नहीं मानी थी ।दूसरे दिन विनयना का वही पहले वाला रूप फिर मेरे सामने बैठा था।लेकिन हम दोनो में जल्दी ही समझौता हो गया।सबसे पहले विनयना अपना क्लास वर्क पूरा करेगी ।उसके बाद लिखने का अभ्यास होगा ।वह आसानी से मुझसे सहमत हो गयी।मैंने और अंजना ने एक दूसरे को देखा और फिर बिना कुछ कहे किसी दूसरे काम में व्यस्त हो गये ।मैं, अंजना और विनयना, तीनो को पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही विनयना इस अभियान में कुछ हद तक तो सफलता पा ही जायेगी ।
यह केवल इस एक दिन की बात नहीं है ।इधर कई दिनों से विनयना का व्यवहार ऐसा ही है ।उसके सामने मैंने उसकी कॉपी खोलकर रख दी ।उसकी कलाई में रिस्टबैण्ड बांधकर उसे मोटी वाली पेन्सिल पकडा दी ।अब उसे लिखना चाहिए ।लेकिन वह अनमनी सी बैठी रही ।पेन्सिल उससे संभल नहीं रही थी या वह संभालना ही नहीं चाहती थी । न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा, कि वह जान बूझकर ऐसा कर रही है । उसे उन अक्षरों को उनके सामने बने चित्रों के साथ मैच करवाना था जो उन्हीं अक्षरों से आरम्भ होते थे ।पेन्सिल तो उसने संभाल ली थी लेकिन मैच करने के बजाय वह उन पन्नों पर आडी-तिरछी ,टेढी-मेढी रेखाओं वाली अजीबोगरीब आकृतियों का निर्माण करने लगी ।उसको मनाने का हर संभव प्रयास बेकार गया ।वह किसी भी तरीके से पहले की तरह अपना क्लास वर्क करने के लिए तैयार नहीं हुयी ।
कुछ देर बाद तो उसने पेंसिल पकडने से भी इंकार कर दिया ।हद तो यह हुयी कि उसने अपने दोनो हाथ मेज पर रखे और सिर पीछे कुर्सी पर टिका दिया ।उसके बाद कुर्सी को अपने पीठ और सिर से पूरी ताकत लगाकर पीछे की तरफ ढकेलने लगी ।कई बार कुर्सी उलटते-उलटते बची ।इतने पर भी संतोष नहीं हुआ तो अपने कांपते हाथों से सामने रखे मेज पर रखी हुयी तमाम वस्तुओं को जल्दी-जल्दी हटाने लगी ।देखते ही देखते कुछ ही देर में उस पर रखी सभी वस्तुएं एक-एक करके जमीन पर पहुंच गयीं ।
उन्हें उठाकर मैंने मेज पर रख दिया ।मैं कुछ नहीं कर पा रही थी ।मेरे पास असहाय होकर चुपचाप बैठकर उसे देखते रहने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।अंजना ने कहा -
''इसकी तरफ ध्यान मत दीजिए , थोडी देर में अपने आप नार्मल हो जायेगी।''
लाख कोशिशों के बावजूद ध्यान उसकी तरफ बार-बार जाता था।उसका क्रोध बढ रहा था और उसी रफ्तार से कुर्सी को पीठ से टकराने की रफ्तार भी ।अपनी पीठ से कुर्सी को बार-बार धक्का दे रही थी ।पेन्सिल,रबर,शार्पनर और चित्रों वाली कॉपी ,सभी कुछ जमीन पर पहुंच चुका था ।ऐसा एक बार नहीं हुआ ,कई-कई बार हो चुका था।दो बार तो पृथ्वी ही उन्हें उठा कर ऊपर रख चुका था ।इस समय भी सभी वस्तुएं जमीन पर बिखरीं हैं।मेज बिल्कुल साफ-सुथरी और खाली है।इस बार अंजना ने सारी वस्तुएं उठायीं और उन्हें विनयना के बैग में रख दिया।
कोई बात है तो जरूर ! पहले तो वह ऐसी नहीं थी ।सबसे कम उम्र की विनयना मल्टिपल प्राब्लमस की शिकार थीं । ठीक से बोल नहीं सकती थी, चलने के लिए उसे व्हील चेयर का सहारा लेना पडता था और उसके हाथ ,उसका आदेश मानने से इंकार करते थे ।इन सबके बावजूद पूरी तरह से अपने काम के प्रति समर्पित और एकाग्रचित्त होकर जी जान से आगे रहने की उसकी कोशिशें हमें उसकी तरफ आकर्षित करतीं रहतीं ।सारी क्लास में एक अकेले वही थी जिसका मन पढाई में सबसे ज्यादा लगता था।पढते समय उसका ध्यान कहीं और नहीं होता था।शुरू शुरू में सब एक ही तरह से ध्यान मग्न होकर समझदार बच्चों की तरह पढते हुए दिखायी देते हैं, ऐसा लगता है कि वे अपना उस दिन के लिए निर्धारित काम पूरा करके ही दम लेंगे लेकिन जल्दी ही सबका धैर्य चुकता हो जाता था।तानिश को टॉयलेट जाना होता है या फिर भूख लग जाती,साहिल को अपनी साल भर पहले की लगी चोट में दर्द होने लगता है और इशिता को जिस नये स्कूल में आगे पढने के लिए जाना है उसकी याद सताने लगती है ।केवल अकेली विनयना बची रह जाती जो अपने काम को पूरी निष्ठा के साथ पूरा करके ही दम लेती ।उस समय उसे अपनी पढाई के अलावा कुछ भी याद नहीं रहता ।
आंखों की पुतलियों को पूरा फैलाकर दीदी की तरह टुकटुकी लगाए एकाग्रचित्त होकर सुनने वाली विनयना की पढाई में इतनी दिलचस्पी देखकर अंजना का मन भी उसे ज्यादा से ज्यादा सिखाने के लिए मजबूर हो जाता है।विनयना चाहती भी यही है कि वह जल्दी से जल्दी कितना कुछ सीख जाये और तमाम जानकारियां हासिल कर ले।
पढते समय उसको कोई चीज अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकती थी ।किन्तु साहिल,इशिता और तानिश तीनो का हाल यह था कि उन्हें पढाई के अलावा और सभी चीजें अपनी तरफ आकर्षित कर सकतीं थीं।कितनी सारी बातें होतीं उनके नन्हें से दिमाग में और कितनी नई बातें वे अपनी उन यादों में स्वयं जोडते जाते। जितनी देर चाहो उतनी देर तक वे बातें कर सकते थे।बातें करते समय थकान उन्हें कभी नहीं होती ।वे सोचते -
''अगर पढना न होता तो कितना मजा आता।''
फिर अब क्या हो गया इसे ? पढने लिखने से इसका मन क्यों उचट गया है सोचते हुए मैंने एक कुर्सी खींची और उसके ठीक सामने बैठ गयी।उसके बैग मे से कॉपी, पेन्सिल निकाल कर उसके सामने रख दिया।उसने कनखियों से मुझे देखा।फिर अपना सिर ऊपर उठाया ।उसके होंठ कुछ टेढे हुए और पेन्सिल को अपने दोनो हाथों से पकडक़र अपने बांयें हाथ के अंगूठे और ऊंगलियों के बीच में अटकायी तो मुझे उम्मीद होने लगी ,अब विनयना अपना काम करना आरम्भ करेगी ।लेकिन उसने अपने उसी पुराने अंदाज में पेन्सिल घुमाना शुरू किया ।दुबारा मार्डन आर्ट बनाने मे मशगूल हो गयी।वही पुराना कार्यक्रम।मैं समझ गयी, इस तरह तो विनयना के हाथों कई दुर्लभ चित्र बनकर तैयार हो जायेंगे और उनकी प्रदर्शनी के लिए हमारे स्कूल का हॉल छोटा पडेग़ा।मैंने कुछ न बोलने में ही खैरियत समझी ।उसके जो मन में आ रहा था वह करती जा रही थी और मैं उसके सामने चुपचाप बैठी हुयी उसे करते हुए देख रही थी ।उसके क्रियाकलाप में मैंने किसी प्रकार की दखलअंदाजी नहीं की ।विनयना को मुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी ।ऐसा कभी होता नहीं था कि दीदी ने जो काम करने के लिए दिया हो वह न कर के कोई बच्चा पेन्सिल से आडी तिरछी रेखाएं खींचता रहे और टीचर कुछ न कहे।उसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।उसने पेन्सिल से खिलवाड क़रना बंद कर दिया ।मेरी तरफ देखा ,सोच रही होगी कि शायद मैं कुछ कहूंगी।मैंने कुछ नहीं कहा ।लेकिन वह क्या कर रही है, किसे देख रही है और किधर देख रही है ,इन सब बातों पर मेरी पूरी नजर थी ।मैं लगातार यह नोटिस कर रही थी कि बीच-बीच में विनयना की नजरें अपने आस-पास बैठै बच्चों की पेन्सिलों और कापियों पर फिसल रही थी।
एकाएक मुझे कुछ कुछ बात समझ आने लगी। हो न हो यही बात है ।शायद मैं ठीक समझ रही होऊं । थोडा मन में शक भी था।उस समय मुझे ऐसा महसूस हुआ कि दूसरे बच्चों की तरह वह भी लिखना चाहती थी ।अक्षरों को, उन्हीं अक्षरों से आरम्भ होने वाले चित्रों के साथ मैच कर-कर के वह बोर हो चुकी हो, क्या पता? तभी तो अंजना ने कितने भी अच्छे चित्र उसकी कॉपी में बनाकर क्यों न दिया हो , उसके मन में किसी प्रकार की उत्सुकता नहीं जगी ।उन चित्रों की तरफ उसने ठीक से देखा भी नहीं ।अब उसका मन ही नहीं लगता इस काम में ।कब तक केवल मैचिंग करती रहे ? यह सब तो विनयना कब का सीख चुकी है अब उसकी आकांक्षा कुछ नया सीखने की है ।
मन कह रहा था कि मेरा अंदाजा सही होगा।यही बात हो सकती है।धीरे-धीरे विश्वास हो चला कि इसके अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता।विनयना सभी अक्षरों को पहचानने लगी है।शब्दों को ही नहीं अब तो उसने पूरे-पूरे वाक्यों को भी पढना आरम्भ कर दिया है ।दीदी प्रति दिन उसे मैचिंग करने के लिए दे देतीं हैं ।क्यों देतीं हैं ? कितने दिन और वह मैचिंग करती रहेगी ? उसे यह सब बहुत अच्छी तरह आता है।अब नहीं करना है उसे यह बोरिंग काम । उसके दूसरे साथी अभी तक अक्षरों में ही उलझें हैं।कोई बच्चा उसकी तरह नहीं पढ सकता । मीनू के अलावा सभी ,इशिता, तानिश और साहिल लिखतें हैं ।वे ठीक से नहीं लिख पाते तब कई बार तो, हाथ पकड क़र दीदी उनसे लिखवातीं हैं।देखकर, उसका भी मन लिखने का करता है ।उन लोगों की कॉपियां भरने लगीं हैं ।प्रति दिन वे सब लिखतें हैं फिर उससे क्यों नहीं लिखवातीं हैं ? वह भी लिखेगी ।अंजना दीदी नहीं लिखवातीं , कोई बात नहीं , वह अपने आप लिखेगी।और अब वही करने की ठानी है ।वैसे तो मुझे अपने अनुमान के सच होने का विश्वास था किन्तु तब भी उससे एक बार पूछने में क्या हर्ज है ।मैने पूछा-
''क्या बात है विनयना ? क्यों नहीं अपना काम जल्दी से पूरा कर लेती हो ।तुम्हें तो सब कुछ आता है न ? देखो सबने अपना अपना काम तुमसे पहले समाप्त कर लिया ।ऐसा पहले कभी होता था?''
विनयना ने कुछ कहा जिस पहले मैं समझ नहीं पायी ।वह बोल सकती है ,बोलती भी है ।सभी बातें कहने का प्रयास करती है लेकिन उसकी जीभ सही जगह पर पहुंच न पाने के कारण उसकी आवाज साफ-साफ समझ नहीं आती और उसके शब्दों को समझने में दिक्कत होती है ।हम अनुमान लगाते रहते और उसकी कोशिश तब तक जारी रहती जब तक कि उसकी बातों को हम ठीक-ठीक समझ नहीं लेते ।हम अटकलें लगाते।गलत होने पर वह अपना सिर जल्दी-जल्दी दांयें-बायें हिलाकर हमे आगाह करती कि हम गलत सोच रहें हैं ।सही सिरा हमारे हाथ में आते ही उसकी मुस्कराहट देखने लायक होती और उसका चेहरा चमकीला हो उठता है ।तब उसके हर हावभाव खुशनुमा हो उठतें हैं।
अपने कान उसके नजदीक ले जाकर मैंने ध्यान से उसकी बात सुनी और समझने की भी कोशिश की ।शायद कुछ समझ में आया।
''तुम भी लिखोगी जैसे तानिश लिख रहा है ?''
विनयना का सिर ऊपर-नीचे ,दांयें-बांयें गरज ये कि जिधर की तरफ भी वह हिला सकती थी,हिला रही थी।हाथ हवा में उडने लगे ।अंजना भी वहीं थी । उसने सब सुना और सुनकर अवाक बैठी मेरी तरफ देख रही थी। आगे क्या होने वाला है -वह कल्पना कर सकती थी।
अपना सिर कुर्सी से टिका कर मंद मंद मुस्कुराती हुयी विनयना अब शान्त मुद्रा में कुछ सोचती सी लगी।इस समय मुझे वह बहुत प्यारी लग रही है।
'' तो लिखो न ।तुमने पहले कभी बताया नहीं ।''
मेज पर से उसकी कॉपी उठाकर मैंने उसके एक पन्ने पर ,सबसे पहली पंक्ति में बडे-बडे दो अक्षर लिख दिये ।जब मैं लिख रही थी उस समय उसका पूरा ध्यान लगाकर मेरे लिखने पर था।अपने लिखने का इंतजार था उसे ।सारे अक्षरों को वह अच्छी तरह से जानती पहचानती है फिर उन्हें लिखने में कितनी देर लगेगी भला।मैं कनखियों से उसे परख रही थी । मैंने कहा _
''पढो इसे ।''
मेरी तरफ देख कर हंसी_
''ब ऽऽऽऽऽ,क़ऽऽऽऽऽ।'' खिल- खिल, खिल- खिल।ढेरों गुलाब खिल उठे एक साथ ।मुझे महसूस हुआ जैसे गुलाबों की महक में रात रानी की भीनी-भीनी खुशबू भी शामिल हो गयी हो।
''ठीक है , वेरी गुड ।एकदम सही पढा है तुमने ।'' फिर मैं ने अंजना की तरफ देखा और कहा,
''अंजना दी आज इसे आप 'एक स्टार' दीजिएगा ।'' अंजना मेरी तरफ देखती रही ।कुछ सोच रही थी।
''हां तो अब विनयना ,आज तुम्हें लिखना है ।लो अब यह पेन्सिल उठाओ और इन दोनो अक्षरों को अपनी कॉपी में लिख डालो।''
मेरे मुहं से निकलने की देर थी कि विनयना ने फटाफट पेन्सिल अपने ऊंगलियों और अंगूठे के बीच बने घेरे मे फंसाया और जुट गयी । उसने लिखना शुरू कर दिया ।आत्म विश्वास से उसका चेहरा दमक रहा था।किन्तु जितना उसने सोचा था ,काम उतना आसान नहीं है।खासा मुश्किल है ।मनचाहे दिशा में पेन्सिल चल नहीं रही है ।ले जाना चाहती है दांयें और पेन्सिल घूम जाती है बांयें ।सीधी रेखा खींचती है, खिंच जाती है अष्टकोणीय ।मुसीबत है ।अपने तरीके से लिखने की कोशिश करती ।एकाध सैकण्ड हाथ कन्ट्रोल में रहता और फिर हवा में ऐसे उडने लगता कि थोडा बहुत आकार जो बना होता वह भी बिगड ज़ाता। अक्षर बन नहीं पा रहे थे ।लेकिन उसने अपनी कोशिशें नहीं छोडीं ।लगातार पेन्सिल को अपने तरीके से चलाने का प्रयास करती जा रही थी।वह लिख कर रहेगी ।सारे अक्षरों को अच्छी तरह से पहचानने वाली विनयना 'ब' और 'क' नहीं लिख सकती , यह कैसे हो सकता है ?
बैठी-बैठी मैं अपने आपको कोस रही थी , मुझे इस तरह की बेहूदी बात आखिर सूझी कैसे ? यह काम ठीक नहीं हुआ।अब क्या करूं? उससे झूठ भी नहीं बोल सकती कि उसने एकदम सही लिखा है ।और किसी को तो झूठ बोलकर बहला फुसला सकतें हैं किन्तु विनयना को नहीं ।यह संभव ही नहीं है।झूठा दिलासा उसे कैसे दे सकतीं हूं ? गलत लिखे अक्षरों को विनयना सही मानेगी ही नहीं ,यह मैं अच्छी तरह जानतीं हूं ।अक्षरों के सही स्वरूप से वह पूरी तरह से वाकिफ है ।उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है ।
मैं देख रहीं हूं ,उसका आत्मविश्वास डिगने लगा है ।यही मैं नहीं चाहती थी ।लेकिन अब ! जी तोड असफल कोशिशों से विनयना थकने लगी है ।माथे पर नन्हीं नन्हीं पसीने की बूंदें दिखायी देने लगीं हैं ।उसकी एकाग्रता भंग हो चुकी है । लिखते समय एक बार उसने अपना मुंह ऊपर उठाया ।मैंने उसकी आंखों की कातरता देखी ।असफल हुयी है विनयना ,उसका एहसास तेजी से उसे हो रहा था और इसके साथ ही उदासी ने उसे घेरना शुरू कर दिया । पेन्सिल उसकी गिरफ्त से छूटकर पहले मेज पर गिरी और फिर लुढक़ते हुए जमीन पर पहुंच गयी।अपना सिर उसने एक बार फिर कुर्सी पर टिका दिया।
भिंचा हुआ चेहरा और बार-बार होंठों को काटने की कोशिश, करती हुयी विनयना -उसका यह रूप मेरे लिए बिल्कुल नया है ।इतना असहाय मैने उसे पहले कभी नहीं देखा था। आहिस्ता-आहिस्ता मैंने उससे कहना आरम्भ किया ।
''विनयना देखो तो जरा, तुमने जो अक्षर बनायें हैं उनमें से ये वाला अक्षर तो कुछ ठीक लग रहा है ।कुछ देर अगर और कोशिश करोगी तब एकदम सही बनने लगेगा ।मैं ठीक कह रहीं हूं न ? लेकिन आज नहीं ।हम कल एक बार फिर से इसी तरह से लिखने का प्रयास करेंगे ।क्यो ?''
उसने मेरी बात सुनी या नहीं ,मुझे नहीं मालूम चला किन्तु मैंने देखा ,उसने कांपते हाथों से अपनी क्लास वर्क की कॉपी अपने सामने खींच ली और उन पन्नों को खोलकर अपने सामने रख लिया जिस पर दीदी ने उसके लिए चित्र बनाकर उसका क्लासवर्क निर्धारित किया था। निर्विकार भाव से उसने मुझे एक बार देखा फिर हल्के से मुस्कुराकर उसने पेन्सिल उठा ली और अक्षरों को चित्रों के साथ मैच कराने लगी।मैंने मुक्ति की सांस ली ।मुझे लगा अब विनयना लिखने की जिद नहीं करेगी ।लेकिन विनयना ने मुझे गलत साबित कर दिया।उसने हार नहीं मानी थी ।दूसरे दिन विनयना का वही पहले वाला रूप फिर मेरे सामने बैठा था।लेकिन हम दोनो में जल्दी ही समझौता हो गया।सबसे पहले विनयना अपना क्लास वर्क पूरा करेगी ।उसके बाद लिखने का अभ्यास होगा ।वह आसानी से मुझसे सहमत हो गयी।मैंने और अंजना ने एक दूसरे को देखा और फिर बिना कुछ कहे किसी दूसरे काम में व्यस्त हो गये ।मैं, अंजना और विनयना, तीनो को पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही विनयना इस अभियान में कुछ हद तक तो सफलता पा ही जायेगी ।
शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
वर्कशॉप
यहीं पहुंचना था कि किसी और जगह ? तय करना कठिन था लेकिन दुविधा ज्यादा देर तक नहीं रही । तेज चाल से चलती एक महिला जिसने हरे रंग का शलवार कुर्ता पहन रखा था , तेजी से हमारी तरफ लपकती हुयी दिखाई दी ।स्टाफ की ही हो शायद लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी मैं याद नहीं कर पायी कि उसे पहले कब देखा है ।
''आप लोग वालंटियर्स हैं न?'' वो हम से ही पूछ रही थी।
''जी ।''
''आज जो वर्कशॉप होने वाली है उसी के लिए आप लोग आयीं हैं ?''
''जी।''
''तब ऐसा करिए आप लोग इसी कमरे में इंतजार करिए ।'' कहकर वो उतने ही तेज कदमों से वापस लौट गयी । व्यस्तता कुछ ज्यादा थी शायद ।
उत्सुकतावश मैने कमरे के अंदर झांका । इस तरह के वर्कशॉप मे आने का मेरा यह पहला मौका था। जमीन के तीन चौथाई हिस्से पर एक धारीदार दरी बिछी हुयी थी ।दरी के सामने वाला हिस्सा नंगा था और उसके बीचोंबीच दरी की तरफ मुंह किए हुए दो कुर्सियां अभी शायद किसी के आने का इंतजार करती हुई खाली थीं।
अंदर पहुंचे हम ।हमसे पहले से वहां कई लोग बैठे थे वे सब किसी डॉक्टर के आने का इन्तजार बडी बेसब्री से कर रहे थे ।साढे दस का समय उन्हें दिया गया था और साढे दस कब के बज चुके थे परंतु डॉक्टर का अभी तक कहीं पता नहीं था ।वहां आये लोगों की निगाहें यहाँ वहाँ भटक रहीं थीं । उनमें से कुछ का ध्यान दीवारों पर टंगे चार्ट्स और पोस्टरों पर था ।
उसी महिला ने थोडी देर बाद दुबारा आकर हमें बताया -
''अभी थोडी देर और आप सबको इंतजार करना होगा ।डॉक्टर साहब को लेने हमारी वैन काफी देर पहले ही जा चुकी है ।कोई बहुत सीरियस पेशेन्ट आ जाने के कारण उन्हें थोडी देर हो रही है । उम्मीद है आप लोग उनकी मजबूरी समझ रहें होंगे ।परंतु अब ज्यादा देर उन्हें आने में नहीं लगेगा ।उम्मीद है कि अब तक वे चल चुके होंगे ।हमे उम्मीद है कि थोडी देर मे ही वे यहां पहुंच जाएंगे ।''
इंतजार करने वालों मे हम लोगों के अलावा कई जोडे मां-बाप भी थे ।कुछ अकेले-अकेले भी आए थे ।हर जोडे क़े साथ कम से कम एक बच्चा जरूर था।कइयों के साथ दो बच्चे भी थे लेकिन उनमे से एक सामान्य था और दूसरा स्पैस्टिक ।जाहिर है स्पैस्टिक बच्चों की अपनी कुछ जरूरतें भी थीं ।जिन को पूरा करने के लिए कभी उनकी मां उठती अपने बच्चे को गोद मे संभाले -संभाले कमरे से बाहर निकलती और थोडी देर में वापस आकर अपनी जगह पर बैठ जाती तो कभी किसी दूसरे बच्चे के मां बाप मे से कोई दूसरा यही काम करता दिखाई देता ।बच्चे बडा हो या छोटा अंतर कोई खास नहीं था, चलते तो ज्यादातर अपने मां बाप के पैरों पर ही थे ।
डॉक्टर से बडी उम्मीदें हैं इन लोगों को ।उनका बडा नाम सुना है इन्होंने ।हो सकता है कुछ ऐसा बता जाएं जिससे उनका बच्चा जल्दी से जल्दी ठीक होने लगे ।थोडा कम या ज्यादा लेकिन इसी से मिलती-जुलती चाहत सभी की है।उनमे से कुछ बहुत पढे लिखे थे तो कुछ कम ।हो सकता है कि उनमे कुछ लोग ऐसे भी कभी रहें हों जो कभी ईश्वर में विश्वास न रखतें हों किन्तु अब ऐसा नहीं है ।वे सभी अब ईश्वर में बहुत ज्यादा विश्वास रखने वालों मे से एक हैं ऐसा मुझे उनकी बातों को सुनकर महसूस हुआ ।
अचानक मुझे लगा जैसे किसी ने अपनी ऊंगली से मेरी पीठ मे टहोका दिया हो ।मैने चिहुंक कर इधर-उधर देखा ।मेरी दांयी तरफ एक सीधी-सादी सी महिला अपने माथे पर एक लाल रंग की बडी सी गोल बिंदी चिपकाए अपनी बडी-बडी अांखों से मुझे ही देख रही थी ।मैने आंखों से ही कारण जानना चाहा ।हौले से हंसकर उसने जो कहा उसका मतलब था कि मुझसे वह कुछ जानना चाहती थी । उस वक्त मुझे थोडी हैरत भी हुयी ।फुसफुसाती आवाज मे बोली-
''आपका भी कोई बच्चा ........?''
वाक्य अधूरा ही छोड दिया था उसने ।फिर भी उसने मुझसे जो पूछना चाहा था उस बात को मैं सही-सही समझ सकी थी ।मैं अन्दर ही अन्दर कांप उठी ।
''नहीं....।। नहीं....। ।'' मैने जल्दी से कह गयी ।
''मैं यहां वालंटियर की तौर पर काम करतीं हूं।''
उसकी बडी-बडी आँखें और भी बडी हो आयीं और वह कुछ ज्यादा ही ध्यान से मुझे देखने लगी ।उसकी नजरों का सामना कर पाना थोडा कठिन लगा और मैं सामने रखी खाली कुर्सी की तरफ देखने लगी ।अभी डॉक्टर नहीं आयें हैं । न चाहते हुए भी मेरी नजरें एक बार दुबारा उस महिला की तरफ मुड ग़यीं ।वहां एक बच्चा यही करीब दो साल का होगा,उस औरत और उसके पति के बीच बैठा हुआ अपने सामने बैठी वालंटियर जो मुश्किल से उन्नीस -बीस वर्षों की रही होगी, के बालों को बार-बार खींचता और खुश होता हुआ दिखायी दिया।उसकी इस हरकत ने मुझे आकर्षित किया और मेरी नजरें वहीं टिक गयीं । मैने देखा कि बाल खिंचने से वह लडक़ी पीछे घूमकर जब देखती तो फिक् से हंस देता वह बच्चा ।मुझे भी मजा आने लगा इस खेल में जो यहां बैठी इस लडक़ी और बच्चे के बीच चल रहा था । बच्चे की हंसी यहां के भारी-भरकम माहौल को हल्का करती हुयी मुझे अपने तरफ आकर्षित कर रही थी ।अपने को रोकना मेरे लिए अब मुश्किल हो गया ।उसके गाल को हल्के से थपथपाया ,फिर उस महिला की तरफ देखकर पूछा ,
''ये आपका बच्चा है ?''
''हां जी ।'' उसका बोलने का लहजा पंजाबी था।मेरी बात का जवाब देने के साथ ही साथ वह हंसी भी ।इस कोशिश में न जाने क्यों उसका पूरा चेहरा कांप उठा ।
''क्या प्राब्लम है इसे ?'' मैने उसके मासूम चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा ।
वह बच्चा अभी भी उसी वालण्टियर के बालों में उलझा हुआ उन्हें उलझाता जा रहा था।उसके बाल खींचने पर वह लडक़ी अपने सिर पर अपना हाथ रखती ताकि बाल खींचने पर दर्द न हो और फिर पीछे मुडक़र उस बच्चे को घूरकर देखती। झट से वह अपना हाथ इस तरह खींच लेता जैसे उसने तो कुछ भी नहीं किया हो लेकिन जैसे ही वह लडक़ी सामने देखने लगती ,बच्चा उसके बालों से छेड-छाड फ़िर से शुरू देता ।उसकी मां तब से अब तक कई बार उसे रोकने की कोशिश कर चुकी लेकिन उस के ऊपर अपनी मां के प्रयासों का कोई असर पडा हो ऐसा मुझे तो नहीं लगा।शायद उस लडक़ी को भी इस खेल में आनन्द आने लगा था।
''दो साल का होने को आया हमारा समीर लेकिन भगवान जाने क्यों अभी तक अपने आप चल नहीं पाता ।घुटनों से चलता है वह भी बहुत तेज........पर।ख़डा नहीं हो पाता........'' ख़िसियानी हंसीं के साथ उसने अपनी बात समाप्त की ।ऐसा लग रहा था जैसे कि उसने कोई अपराध किया हो ।मैं आश्चर्य में पड ग़यी ।
''इस तरह की हंसी का मतलब ?''
''बोलता तो है न ? और तो कोई प्राब्लम नहीं है?''
''हांजी,हांजी बोलता है लेकिन उतना नहीं जितना इस उम्र के दूसरे बच्चे बोलतें हैं ।'' बेचारगी भरी आवाज मे उसने बताया और इसी बीच उसकी नजरें एक बार अपने पीछे की तरफ घूम गयीं ।उसकी आवाज कांप रही थी और पूरा बदन थरथरा रहा था।उससे थोडा ही हटकर उसके पीछे एक आदमी बैठा था जो उसका पति था,लगातार उसे कनखियों से देखता हुआ अपने चेहरे पर उदासी बिखेरे बैठा था । उसके चेहरे पर तनाव साफ देखा जा सकता था ।उन दोनों के बीच शायद कुछ हुआ था।मुझे जाने क्यों अचानक लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने बच्चे की इस हालत के लिए ये आदमी अपनी पत्नी को ही जिम्मेदार मानता है।हो सकता है ये मेरा सिर्फ वहम् ही हो !
''और भी बच्चें हैं आपके ?''
शायद उसे इसी प्रश्न का इंतजार था ।जल्दी से बोली -
''हां जी ,एक बेटी है न और वह एकदम अच्छी है ।बस न जाने कैसे इस को यह बीमारी लग गयी?'' और हंस दी ।
''उफ् क्यों हंसती है बिलावजह ये इतना ?'' मैं चुपचाप सामने देखने लगी ।उससे और क्या बात करूं , मेरी समझ में नहीं आ रहा था ।लेकिन वह अभी और बात करना चाहती थी, शायद उसकी जिज्ञासा का समाधान अब तक नहीं हुआ था इसलिए उसने बात आगे बढायी ,
''आप यहां क्या काम करतीं हैं ?''
''कोई भी काम जो इन बच्चों के लिए हमसे हो पाता है ,हम करतें हैं ।''
''अच्छा-अच्छा ....आप लोग इन बच्चों के साथ काम करतीं हैं जो यहां रेगुलर आतें होंगे।''
''जी।'' सामने देखते हुए ही मैने उसकी बात का जवाब दिया ।
डॉक्टर आ चुके थे ।उनके आने से कमरे के बीचों-बीच रखी कुर्सी भर गयी । उस कमरे मे मौजूद सभी लोग एकदम खामोश हो गए।एक गिलास पानी लेकर कृष्णा आया ।गिलास की बाहरी सतह पर पानी की बूंदें दिखाई दे रहीं थीं ।डॉक्टर ने गिलास छूकर देखा ।पानी ठंडा था ।पानी से भरा गिलास उन्होंने दूसरी खाली पडी क़ुर्सी पर रख दिया ।शायद थोडी देर बाद पिएंगे।
''आप रोज आतीं होंगी ?''
''नहीं, रोज नहीं ,हफ्ते में सिर्फ तीन दिन।''
उसके चेहरे पर मुझे अपने प्रति सम्मान जगता हुआ दिखायी दिया और न जाने क्यों मुझमें अजीब तरह की शर्मिन्दगी का अहसास भी भरता गया ।
''मैं इस सम्मान के योग्य हूं भी या नहीं ?''
उससे नजर मिलाना मेरे लिए मुश्किल होता जा रहा था ।
''डाक्टर बोलना कब शुरू करेंगे ?''
मैं सामने देखने लगी फिर से ।वहां डाक्टर बैठे थे ।अब शायद कुछ ही देर में बोलना आरम्भ करेंगे ।उनको सुनने के लिए ही यहां इतने सारे लोग इकट्ठे हुएं हैं।
अभी तक डाक्टर चुपचाप बैठे थे ।अचानक उन्होने अपनी गर्दन बांयीं तरफ झुकायी और सीधे होकर बैठ गये ।
डाक्टर हल्के -हल्के मुस्कुरा रहे थे ।उनकी मुस्कान मनमोहक थी ।थोडी देर तक वे इसी तरह सबकी तरफ देखते रहे और मुस्कुराते रहे ।उस बडे क़मरे में बैठे लोग उनके बोलने का इंतजार कर रहे थे।उन्होने विनम्र स्वर मे बोलना आरम्भ किया । उनकी बातों में उन लोगों के प्रति गहरा अपनापन और आस्था झलक रही थी ।उनकी स्नेहिल आवाज वहां बैठे सभी लोगों को अभिभूत कर गयी ।बडे मन से और बडे ही ध्यानपूर्वक उनकी बातें वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति सुनता हुआ दिखायी दे रहा था ।सब उन्हें ही सुन रहे थे ।उनकी अकेली सहज और सच्ची आवाज उस कमरे मे मौजूद सभी लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए पर्याप्त थी ।
जब से मैने यहां आना शुरू किया है और इन बच्चों से मेरा साक्षात्कार हुआ है तब से स्पैस्टिक शब्द सुन कर ही दिल मे न जाने कैसा तो लगने लगता है ।डाक्टर इसी के विषय में बता रहे थे ।मैने सुना वे कह रहे थे -
''ब्रेन यानि कि दिमाग जो हमारे शरीर के प्रत्येक अंग के क्रियाकलापों को- कैसे कब और क्यों करना है,निर्धारित करता है ,जब अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ होता बल्कि विकसित होने की प्रक्रिया से गुजर रहा होता है तब उस अवस्था में यदि किसी भी कारण उसे आघात पहुंचता है तब पैदा होती है ये बीमारी ।पैदा होने के बाद भी दिमाग के विकास की ये प्रक्रिया चलती रहती है।दिमाग को आघात गर्भ में,पैदा होते समय या पैदा होने के बाद कभी भी किसी कारणवश पहुंच सकता है ।कारण चाहे कोई भी हो ,किन्तु इससे बच्चे का मोटर सिस्टम प्रभावित होता है एवं इसका असर दिखाई देने लगता है ।बच्चे के शरीर के विभिन्न अंगों का दिमाग के साथ तालमेल गडबडाने लगता है ।यह किसी एक अंग, दो अंगों या फिर उससे ज्यादा अंगों के साथ भी हो सकता है ।''
करीब दस मिनट से बोल रहे डाक्टर अब खामोश हो गये थे ।उन्हें गले मे खरांश महसूस हुई ।गला फंसने लगा था ।खंखार कर के गला साफ किया और साथ वाली कुर्सी पर रखे पानी के गिलास को छूकर देखा ।अब उतना ठंडा नहीं है ।पिया जा सकता है ।गिलास उठाया और एक सांस में खाली कर के कुर्सी के नीचे थोडा अंदर की तरफ खिसकाकर रख दिया ।इस बीच उन्हें याद आया कि अभी कुछ बातें उन्हें और कहना बाकी रह गया है । सामने बैठे बच्चों को प्यार भरी नजरों से उन्होने हल्के से छुआ और फिर किसी एक विशेष को न देखते हुए भी सभी की तरफ देखने लगे ।चेहरे पर अजीब तरह की शांति थी ।वहां उपस्थित लोगों के प्रति गहरी संवेदना से भरी आवाज एक बार फिर सुनायी देने लगी ।
''एक बहुत जरूरी बात मैं आप लोगों को खासतौर से बताना चाहता हूं ।बीमारी की पहचान जितनी जल्दी हो जाती है उतनी ही आसानी से और अच्छी तरह बच्चे की थैरेपी की जा सकती है ।जैसे-जैसे देर होती जाती है वैसे-वैसे मुश्किलें बढती जाती है ।इस बीमारी का कोई भी इलाज नहीं है ।इसे ठीक नहीं किया जा सकता है।कोई दवा खाने से या किसी भी दवा या तेल की मालिश इसे ठीक नहीं कर सकती ।जो लोग ऐसा दावा करतें हैं वे आप लोगों को धोखा देने का काम करतें हैं ।बस अगर कोई चीज है जो कि इस बीमारी से लडने मे मददगार है तो वह है सिर्फ और सिर्फ ट्रेनिंग एवं फिजिकल थैरेपी ।एक बात और जो आप सबको शायद नहीं मालूम होगा कि हम अपने दिमाग का केवल कुछ हिस्सा ही इस्तेमाल करतें हैं इसलिए दिमाग के दूसरे बचे हिस्से को ट्रेनिंग की मदद से कुछ फायदा मिल सकता है ।हम इस तरह से उसका पोटैंशियल बढाने की कोशिश कर सकतें हैं ।लेकिन इसके लिए जरूरत है डिटरमिनेशन की ।हमे नियति के विरूध्द जाकर बहादुरी के साथ लडना होगा । कठिन लडाई है लेकिन असंभव कुछ भी नहीं ।सबसे जरूरी बात यह है कि आप जितनी जल्दी यह बात समझ जायगें उतना ही बच्चे के हक में ठीक रहेगा कि यह लम्बी लडाई आप को ही लडनी है। ''डाक्टर अपनी बात समाप्त कर चुकें हैं ।चेहरे पर तनाव की एक भी रेखा नहीं थी ।इस समय उनके चेहरे पर एक सहज मुस्कान मौजूद थी।
बहुत गर्मी है ।इस साल कुछ ज्यादा गर्मी पड भी रही है ।पारा चौवालीस के आसपास पहुंच चुका है अभी से।
उनकी बातें सबने ध्यानपूर्वक सुनी थी।डाक्टर इंतजार कर रहें हैं ,अगर किसी को कोई शंका हो तो उनकी पूरी कोशिश होगी उसे दूर करने की ।पूछना तो बहुतों को है बहुत कुछ, किन्तु पहल कौन करे? कोई इधर-उधर देख रहा था तो किसी की निगाहें ऊपर छत पर टंगे पंखे को टटोल रहीं थीं बेमकसद ।मेरे पीछे बांयी तरफ बैठी बडी-बडी आँखों वाली पंजाबिन महिला दरवाजे से बाहर देखती हुयी किसी और ही दुनियां मे जैसे गुम थी ।
एक आदमी जो शायद अकेले ही आया था ,बच्चा भी उसके साथ नहीं था-शायद आने की स्थिति में नहीं रहा होगा इसलिए नहीं आया था- ,अपनी जगह पर खडा होकर पूछने लगा ,
''डाक्टर साहब मैने पहले एक दूसरे डाक्टर को अपने बच्चे को दिखाया था तब उसने कहा था कि उसके दिमाग मे कोई चीज होती है जिसे शायद फलूड कहतें हैं उसकी मात्रा ज्यादा हो गई है जिसे निकालने के लिए आप्रेशन करना पडता है ।तो क्या डाक्टर साहब आप्रेशन करवाने से ये बीमारी ठीक हो सकती है ?''
इतना कह चुकने के बाद वह आदमी अपनी जगह पर बैठ गया ।घुटने सिकोड उन्हें अपने दोनो हाथों से पकडक़र ऊपर को मुहं उठाये वह डाक्टर के जवाब का इंतजार करने लगा ।
डॉक्टर ने गौर से उसकी बात सुनी ।इसी दौरान ऊपर से नीचे तक एक सरसरी निगाह से उसका निरीक्षण भी कर गये ।किसी साधारण से परिवार का एक मामूली गृहस्थ।अपनी भवें सिकोडक़र कुछ देर तक डॉक्टर ध्यानमग्न रहे फिर कहने लगे ,
''आपका मतलब शायद फ्ल्यूड से था।उस डॉक्टर ने इसी चीज के बारे मे बताया होगा ।कई बार ऐसा होता है कि दिमाग में जो एक तरह का पानी जैसा पदार्थ होता है उसकी मात्रा किसी कारणवश बढ ज़ाती है जिसकी वजह से उसे ज्यादा जगह की जरूरत होने लगती है।अब पानी ज्यादा जगह घेरने लगता है और आपको तो मालूम है कि सिर का आकार तो निश्चित है उसे तो बढाया नहीं जा सकता लिहाजा दिमाग को अपनी जरूरत के मुताबिक जगह मिलने मे दिक्कत होने लगती है। इस वजह से दिमाग अपना काम सुचारू रूप से नहीं चला पाता और शरीर मे कई प्रकार की विकृतियाँ पैदा होने लगती है ।'' एक लंबी सांस लेने के बाद उन्होने फिर से बोलना शुरू किया ,
''उस स्थिति में सिर का एक आप्रेशन करके दिमाग में एक नली डाल देतें हैं जिसे शंट कहतें हैं ।जिससे जरूरत से ज्यादा बना पानी निकलता रहता है ।इस आप्रेशन को दिमाग की बाईपास सर्जरी कहतें हैं ।लेकिन आपने ये तो बताया ही नहीं कि आपसे ये बात डॉक्टर ने कब बतायी थी ?''
''यही कोई तीन चार साल पहले ।'' दबी हुयी आवाज मे अटक-अटक कर उसने बताया ।
''तब आपने आप्रेशन करवाया नहीं ,क्यों ?''
''आप्रेशन करवाने मे बहुत पैसा लगता इसलिए हमने सोचा कि एक बार किसी दूसरे डॉक्टर को भी दिखालें तब आप्रेशन करवायें ।''
''तब?''
''दूसरे डॉक्टर को दिखाया भी था हमने ,लेकिन उन्होंने तो कहा था कि आप्रेशन करवाने की कोई जरूरत नहीं है ।उससे फायदा कुछ होगा नहीं ऊपर से पैसा और बेकार मे बरबाद होगा ।इसलिए ....'' क़हते-कहते उसकी आवाज कांपने लगी और बात अधूरी रह गयी ।
असली दिक्कत कहां थी यह समझ मे आ गया था डॉक्टर को। उसकी आवाज की कातरता से साफ लग रहा था कि उसमें बैठा पिता अपनी असमर्थता की वजह से दुखी था ।अगर पास मे पैसे होते तब शायद स्थिति कुछ बेहतर होती ।
डॉक्टर ने उसकी आवाज मे छिपी मजबूरी को महसूस कर रहे थे ।अपनी आवाज को भरसक कोमल बनाते हुए सान्त्वना भरे लहजे मे कहा_
''अगर किसी डॉक्टर ने यह राय दी थी तब तो ठीक ही किया आपने आप्रेशन न करवाकर।अब आप उसके थैरेपी पर ध्यान दीजिए ।''
उस आदमी के पास अब हिम्मत नहीं बची थी कि कुछ और पूछ सके। अपराध-बोध जरा भी कम नहीं हो पाया था उसका। आगे अब कुछ और जानने की न तो उसकी इच्छा थी और न ही साहस ।
वह महिला जो मेरे पास बैठी थी उसका चंचल बच्चा थक कर सो गया था ।पूरी तरह निश्चिन्त,अपनी मां के गोद मे ।वैसे भी वहां चल रही इन तमाम बातों में ऐसी शायद ही कोई बात रही हो जिसमे उसकी थोडी भी दिलचस्पी रही हो ।डाक्टर जो कुछ कह रहे थे वह सारी बातें उसकी समझ में न आने वाली बातें थीं और निहायत नीरस थीं ।बच्चा सो रहा था और मां का हाथ निरंतर उसके बालों को सहेजने मे लगा था।
अनायास मेरी निगाहें उनकी तरफ घूम गयीं ।उसे सोता हुआ देखा तो अनजाने में ही मुंह से निकल गया _
''सो गया?''
सिर हिलाकर हामी भरी उसने ।
''बडा प्यारा बच्चा है ।''
मेरी बात सुनकर हंसने लगी थी वह औरत । मगर कुछ खयाल आते ही अचानक थम गई उसकी हंसी और उदासी की एक पर्त ने उसके चेहरे को अपने अंदर समेट लिया । शायद अब रोने वाली है ।मुझे लगा जैसे मुझसे कोई बडी भारी भूल हो गई हो ।मैं स्तब्ध होकर जल्दी से सामने देखने लगी ।
डॉक्टर की कुर्सी से सटकर कुर्ता पाजामा पहनकर एक आदमी बैठा था ,उसने अपना हाथ उठा दिया ।उसके पास एक बच्चा चुपचाप बैठा हुआ सामने की तरफ देख रहा था । डॉक्टर की निगाहें उसकी तरफ उठीं ।
''हां-हां , पूछिये न क्या पूछना चाहतें हैं?''
''डॉक्टर साहब मेरा यह बेटा है ।पहले बोलने लगा था किन्तु अब इसने फिर से बोलना बंद कर दिया है ।क्यों डॉक्टर साहब, ऐसा क्यों हो गया ?'' कहते-कहते थोडा झुक गया वह आदमी और डॉक्टर जिस कुर्सी पर बैठे थे उस कुर्सी का हत्था अपने हांथो मे कसकर पकड लिया और उनके जवाब का इंतजार करने लगा ।
''क्या बच्चे को दौरे भी आतें हैं ?'' बच्चे की तरफ देखते हुए डॉक्टर ने पूछा ।
''जी।'' अब वह आदमी सीधे खडा होकर डॉक्टर की बात बडे ग़ौर से सुन रहा था।
''कई बार ऐसा होता है कि दौरों के दौरान दिमाग की कुछ कोशिकाएं जो दौरों के पहले एकदम ठीक ठाक होतीं हैं ,नष्ट हो जातीं हैं।यही हुआ है आपके बेटे के साथ।''
''तब अब क्या करें हम? क्या अब मेरा बच्चा कभी बोल नहीं पाएगा ?''
कातर निगाहों से डॉक्टर को देखते हुए उनकी बात सुनने की हिम्मत जुटाता वह आदमी मुझे अंदर तक हिला गया।उस समय मेरी दिली ख्वाहिश थी कि डाक्टर उसकी बातों का कोई जवाब न दें ।लेकिन मैने सुना, डॉक्टर को ठहरे हुए स्वर मे कहते हुए _
''हिम्मत मत हारिए ।एक बार फिर से, नये सिरे से इसकी फिजियोथैरेपी करवानी होगी।कोशिश करते रहिए....।।'' ड़ॉक्टर की आवाज कहीं दूर से आती हुयी सुनायी पड रही थी ।
डॉक्टर की बात अभी समाप्त हुयी ही थी कि दरवाजे के पास बैठी एक सांवली सी औरत उठ कर खडी हो गयी ।वहां बैठे सभी लोगों की नजरें उसकी तरफ घूम गयीं । डॉक्टर अपना सिर हिला रहे थे ,पूछा_
''हां कहिए।''
''जी ....। ''उसकी आवाज उसका साथ नहीं दे रही थी ।
''शायद आप कुछ पूछना चाहतीं थीं ।''
''जी....। ।''
''हां,हां पूछिये ,मैं आप लोगों के लिए ही यहां आया हूं ।''
''मेरी बेटी ........।''फ़िर से अटक गयी ।उसके गले में जैसे कुछ अटक गया था ।उसने कई बार कोशिश की किन्तु कायदे से एक वाक्य भी पूरा नहीं कर पायी थी अभी तक ।एक दो शब्द बोलते-बोलते गला भर्राने लगता था।
''आप पहले पानी पी लीजिए, फिर बोलिए।''
बडा कमरा था । उपस्थितों की संख्या बहुत थी किन्तु सब खामोश थे और सबकी आंखों मे नमी थी । डॉक्टर को किसी भी तरह की हडबडी नहीं थी ।
अपने साथ पानी की बोतल लेकर आयी थी वह औरत।उसने पानी पिया ,रूंधे गले को साफ किया और एक बार दुबारा प्रयास करना शुरू किया ।इस बार उतनी दिक्कत नहीं हुयी ।
''मेरी बेटी के स्पाईनल कॉर्ड में कुछ परेशानी है ।उसके कमर के नीचे का हिस्सा बिल्कुल काम नहीं करता है। डॉक्टर साहब उसके हाथ वगैरह एकदम ठीक हैं,सारे काम सही ढंग से करतें हैं लेकिन कमर के नीचे का हिस्सा एकदम बेकार हैं।यहां तक कि हम उसे टॉयलट ट्रेनिंग तक नहीं दे सकते ।उसका इस पर कोई कन्ट्रोल भी नहीं है ।''
''अभी तक तो सब किसी तरह से चल ही रहा था किन्तु अब जब कि उसकी छोटी बहन भी चलने लगी है तब शायद उसकी भी इच्छा होती होगी और इसीलिए, पूछने लगी है कि क्यों अभी तक वह चल नहीं पाती ।'' गला भर आया उसका ।आवाज फिर से फंसने लगी । उसने इधर उधर देखा और एक बार फिर से पानी का एक घूंट लिया । कमरे मे असहनीय शान्ति थी । डॉक्टर भी कुछ देर तक सुन्न बैठे रहे ।वे अपनी बेचैनी छिपाने की भरसक कोशिश करते दिखाई दे रहे थे ।उसकी बात जारी थी ।
'' हम अपने बच्चे को लेकर एब्राड भी गये ।वहां कई डॉक्टरों को दिखाया किन्तु हर जगह से एक ही जवाब मिला कि इस केस मे वे कुछ नहीं कर सकते ।अब आप ही बताइये डॉक्टर साहब मैं उस मासूम को क्या जवाब दूं जब वह भोलेपन से पूछती है कि ममा मैं कब तक चल पाऊंगी।मेरी तो समझ में आता नहीं ।''
अब तक डॉक्टर अपनी भावुकता पर काबू पा चुके थे ।
''क्या उम्र होगी उसकी ?''
''यही कोई सात वर्ष के लगभग ।''
''उसका आई क्यू टेस्ट कभी करवाया था आपने ?''
''जी आई-क्यू तो अपनी उम्र के बच्चों की तरह ही है ।''
''देखिए जब ऐसा है तब तो उसके लिए बहुत अच्छी बात है इसका मतलब यह हुआ कि अगर उसे आहिस्ता-आहिस्ता समझाया जाय तब वह यह बात अच्छी तरह समझ सकती है कि क्यों अभी तक चल नहीं पायी वह ।उसे बताइये कि उसे क्या दिक्कत है ,और फिर यह भी बताइये कि वह चल नहीं पायेगी ,कभी भी नहीं।'' अपने फेफडे में ढेर सारी हवा भरते हुए डॉक्टर ने भारी आवाज में कहा-
'' प्रकृति ने उसे क्या नहीं दिया है इस बात पर ज्यादा अफसोस करने से कोई फायदा नहीं बल्कि क्या मिला है उसे और उसको कैसे उसके आगे के जीवन को बेहतर बनाने मे उपयोग मे लाया जा सकता है, के बारे मे सोचने की जरूरत है। अपने बच्ची को सच का सामना करने लायक बनाइये -इसी में आपकी और आपके बच्ची की बेहतरी है ।''
''लेकिन डॉक्टर साहब ,अभी तक तो हम उससे कह रहे थे कि एक दिन वह भी जरूर चलेगी और अब अचानक कैसे कह दें कि वह कभी चल ही नहीं पायेगी ? हम उससे कैसे ऐसा कह सकतें हैं ?''कहते-कहते उसके होंठ सूखते जा रहे थे ।बीच-बीच में वह औरत अपनी बोतल से एक दो घूँट पानी अपने मुंह मे डालती जा रही थी ।
''आप लोगों को उससे ऐसा नहीं कहना था ।आखिर पढे लिखे लोग हैं आप दोनो ।कैसे इस तरह की बेवकूफी कर सकतें हैं ? मेरी समझ में नहीं आ रहा है ।''
डॉक्टर एकाएक गम्भीर हो गए ।
''तब क्या हमें आरम्भ में ही उम्मीदें छोड देनी चाहिए ?''
''मैं ऐसा कहां कह रहा हूं? उम्मीद पर तो दुनियां कायम है ।उम्मीद के सहारे ही हम भी काम करतें हैं ।लेकिन हमे रियलिस्टिक होना पडेग़ा ।वास्तविकता से हमें भागना नहीं है ।सच्चाई का सामना करिए ।डट कर उसका मुकाबला करने से ही कुछ हो सकता है ।आप इसको समझिए और हिम्मत के साथ अपनी बच्ची को भी ताकत दीजिए ताकि वह इस स्थिति का बहादुरी के साथ सामना कर सके ।उसे बताइये कि ऐसी अवस्था में भी वह बहुत कुछ ऐसा है जो कर सकती है ।खडी होकर नहीं चल सकती तो क्या हुआ ?अभी दुनियां खत्म नहीं हुयी है ।ऐसी न जाने कितनी चीजें हैं जो आप लोगों की मदद और मेहनत से वह हासिल कर सकती है ।जीवन में आस्था रखिए ।विश्वास ,लगन और मेहनत से क्या कुछ नहीं हासिल किया जा सकता है। याद रखिये मां से बडा मददगार दुनियां में शायद ही कोई दूसरा मिले ।हां उसके दिल में ऐसी इच्छायें मत जगाइये जो पूरी नहीं हो सकती ।वरना वास्तविकता का आभास होते ही उसे तिनका-तिनका बिखरने से कोई नहीं रोक पाएगा ।आपका भगवान भी नहीं ।'' लंबी सी सांस लेकर उन्होने अपनी बातें जारी रखी ,
''जब आप अपनी बात बता रहीं थीं उस समय आपने कहा था कि बच्ची के इलाज के सिलसिले में आप विदेश तक हो आयीं हैं ,इसका मतलब आपके पास रिसोर्सेस की कोई कमी नहीं है ।तब तो आप बहुत कुछ कर सकतीं हैं अपनी बच्ची के लिए । अच्छे व्हील चेयरस् और तमाम उन जरूरी सामानो को खरीदिये जो उसके पोटैन्शियल को बढाने मे मददगार साबित होतें हैं।एक बार फिर से कहता हूं कि झूठे आश्वासन देकर आप उसे मत बहलाइये ।कहीं ऐसा न हो जाय कि बाद में उसे सम्भालना ही मुश्किल हो जाय ।अच्छी तरह से गांठ बांध लीजिए कि इस बीमारी का कोई इलाज न्हीं है ।जो डेमेज हो चुका है उसे वापस नहीं लाया जा सकता ।हां इतना जरूर हो सकता है कि जो कुछ बचा हुआ है उसके पास, उसी की मदद से ट्रेनिंग और थैरेपी के सहारे उसको जीने लायक बनाना होगा ।कोई दूसरा नहीं आयेगा आपकी मदद के लिए ।आपको स्वयं अपनी मदद के लिए आगे आना होगा ।हिम्मत और धैर्य के साथ आगे बढक़र अपनी बच्ची के मन मे जीने की जिजीविषा पैदा करनी होगी ।बहादुर बनाना होगा उसे और साथ में आपको भी बहादुर बनना होगा ।मुश्किल काम जरूर है किन्तु असम्भव नहीं ।भरोसा रखिये अपने पर।आप कर सकतीं हैं इस काम को ,ऐसा मुझे विश्वास है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आप मेरे विश्वास को ठेस नहीं पहुंचायेंगी।क्यों समझ रहीं हैं न आप ?'' डॉक्टर की आंखों मे उम्मीदें थीं और था ढेर सारा भरोसा ।
वह सुन रही थी सब कुछ और शायद समझ भी रही थी ।कोई जवाब नहीं दिया उसने ।वहीं बैठ गयी चुपचाप ।इन बातों को उसने पहली बार नहीं सुना था।इसके पहले भी डॉक्टरों ने उसे कुछ-कुछ इसी तरह की बातें कहीं थीं।फिर भी न जाने क्यों हर उस डॉक्टर से जिससे पहली बार मिलने का मौका मिलता है उसे ,कुछ ऐसी उम्मीद हो जाती है कि क्या पता वह उसकी बेटी के शरीर के निचले हिस्से मे कुछ जुम्बिश पैदा करने मे सफल हो जाय ।
डॉक्टर जो अभी तक उसे बहादुर बनने के लिए कह रहे थे - के माथे पर पसीने की बूंदें दूर से ही दिखायी देने लगीं थीं । जेब से रूमाल निकाल कर अपना माथा वे जल्दी-जल्दी उसे पोंछने लगे।
ठीक उसी समय मेरे बांयीं तरफ कुछ हलचल सी हुयी ।मैने मुडक़र देखा बडी सी बिंदी वाली महिला अचानक उठ कर खडी हो गयी थी।डॉक्टर साहब क्या इस तरह की बीमारी बच्चों को अपनी मां की वजह से ही होती है ?''एक झटके मे उसने अपना वाक्य पूरा कर दिया ।हां इस दौरान वह लगातार अपने पति की तरफ ही देखती रही थी।
डॉक्टर चौंके ।
''नहीं तो।''
''लेकिन........। !।''उसका आंखें अभी भी अपने पति की ओर ही थीं ।
''नहीं।।।बिल्कुल भी नहीं ।किसने कहा आपसे ? सोचा भी कैसे आपने ? ऐसा भूल कर भी अपने दिमाग में मत लाइये ।अगर ऐसी बात मन मे किसी वजह से आ भी जाये तो उसे निकाल फेंकिये ।ऐसा नहीं है ।किसी भी परिवार में स्वस्थ माता पिता होने के बावजूद ऐसे बच्चे का जन्म हो सकता है ।पिचानबे प्रतिशत केसेस में संयोगवश ऐसा हो जाता है ।ऐसा देखा गया है कि अज्ञानता वश कई लोग बच्चे की इस स्थिति के लिए मां को जिम्मेदार ठहराने लगतें हैं ।किन्तु यह बात सच नहीं है ।''
''हूं ऽ ऽ ऽ तब फिर ऽ ऽ ऽ।''क़हकर वह चुप हो गयी ,लेकिन अभी भी उसकी आंखें अपने पति पर ही टिकीं थीं ।उसके पति उससे आंखें नहीं मिला पा रहा था और शायद इसलिए इधर-उधर देख रहा था ।अभी अभी डाक्टर की कही हुयी बातों को सुनकर उसे अपनी गलतफहमी का अहसास अच्छी तरह से हो चुका था और वह ग्लानि महसूस कर रहा था।
बहुत देर से सब चुपचाप बैठे थे ।सुई गिरने की आवाज भी उस दौरान सुनी जा सकती थी ।उस खामोशी मे खलल पडा।शुरू से अब तक शान्ति से बैठी एक महिला ने एक लम्बी सांस ली ।एक दूसरी महिला ने जैसे अपने आप से ही कहा-
''कम से कम अब हम दूसरे बच्चे के बारे में प्लान तो सकतें हैं।इस बच्चे के होने के बाद से तो हमे इस बारे मे सोचने में भी डर लगने लगा था।''
डॉक्टर के रहस्योद्धाटन के बाद से मेरे नजदीक बैठी महिला जो अब तक मुझसे बातें करने के लिए लगातार बहाने तलाशती रही थी नि:शब्द बैठी थी। अचानक उसके चेहरे का आकार बिगडने लगा और मैने देखा कि बात-बेबात हंसने वाली वह महिला फूट-फूट कर रोने लगी थी ।उसके पति के चेहरे पर अपराध बोध साफ झलक रहा था।
मेरी स्थिति तो और भी अजीब हो गयी थी ।जब वह बिलावजह हंस रही थी तब मुझे खीज हो रही थी और अब मुझे बेचैनी हो रही थी ।सच कहूं तो उसकी हंसी से कई बार डर सा लगने लगा था।उसके रोने में मुझे कुछ भी अजीब नहीं लग रहा था ।उसका पति सिर झुकाये चुपके-चुपके अपनी आंखें पोंछ रहा था और उसकी पीठ पर आहिस्ता-आहिस्ता हाथ फेरते हुए उसे चुप कराने की कोशिश भी कर रहा था । उसके हाथ कांप रहे थे ।अपनी पत्नी पर उसने अनजाने मे जो इल्जाम लगाए थे उन पर उसे ग्लानि हो रही थी।
एक इच्छा बडी शिद्दत से मेरे मन में सिर उठा रही थी कि उसका पति थोडी देर के लिए ही सही कहीं चला जाय और मुझे कुछ देर उस औरत से बातें करने का मौका दोबारा मिल जाय ।
पद्मा राय
''आप लोग वालंटियर्स हैं न?'' वो हम से ही पूछ रही थी।
''जी ।''
''आज जो वर्कशॉप होने वाली है उसी के लिए आप लोग आयीं हैं ?''
''जी।''
''तब ऐसा करिए आप लोग इसी कमरे में इंतजार करिए ।'' कहकर वो उतने ही तेज कदमों से वापस लौट गयी । व्यस्तता कुछ ज्यादा थी शायद ।
उत्सुकतावश मैने कमरे के अंदर झांका । इस तरह के वर्कशॉप मे आने का मेरा यह पहला मौका था। जमीन के तीन चौथाई हिस्से पर एक धारीदार दरी बिछी हुयी थी ।दरी के सामने वाला हिस्सा नंगा था और उसके बीचोंबीच दरी की तरफ मुंह किए हुए दो कुर्सियां अभी शायद किसी के आने का इंतजार करती हुई खाली थीं।
अंदर पहुंचे हम ।हमसे पहले से वहां कई लोग बैठे थे वे सब किसी डॉक्टर के आने का इन्तजार बडी बेसब्री से कर रहे थे ।साढे दस का समय उन्हें दिया गया था और साढे दस कब के बज चुके थे परंतु डॉक्टर का अभी तक कहीं पता नहीं था ।वहां आये लोगों की निगाहें यहाँ वहाँ भटक रहीं थीं । उनमें से कुछ का ध्यान दीवारों पर टंगे चार्ट्स और पोस्टरों पर था ।
उसी महिला ने थोडी देर बाद दुबारा आकर हमें बताया -
''अभी थोडी देर और आप सबको इंतजार करना होगा ।डॉक्टर साहब को लेने हमारी वैन काफी देर पहले ही जा चुकी है ।कोई बहुत सीरियस पेशेन्ट आ जाने के कारण उन्हें थोडी देर हो रही है । उम्मीद है आप लोग उनकी मजबूरी समझ रहें होंगे ।परंतु अब ज्यादा देर उन्हें आने में नहीं लगेगा ।उम्मीद है कि अब तक वे चल चुके होंगे ।हमे उम्मीद है कि थोडी देर मे ही वे यहां पहुंच जाएंगे ।''
इंतजार करने वालों मे हम लोगों के अलावा कई जोडे मां-बाप भी थे ।कुछ अकेले-अकेले भी आए थे ।हर जोडे क़े साथ कम से कम एक बच्चा जरूर था।कइयों के साथ दो बच्चे भी थे लेकिन उनमे से एक सामान्य था और दूसरा स्पैस्टिक ।जाहिर है स्पैस्टिक बच्चों की अपनी कुछ जरूरतें भी थीं ।जिन को पूरा करने के लिए कभी उनकी मां उठती अपने बच्चे को गोद मे संभाले -संभाले कमरे से बाहर निकलती और थोडी देर में वापस आकर अपनी जगह पर बैठ जाती तो कभी किसी दूसरे बच्चे के मां बाप मे से कोई दूसरा यही काम करता दिखाई देता ।बच्चे बडा हो या छोटा अंतर कोई खास नहीं था, चलते तो ज्यादातर अपने मां बाप के पैरों पर ही थे ।
डॉक्टर से बडी उम्मीदें हैं इन लोगों को ।उनका बडा नाम सुना है इन्होंने ।हो सकता है कुछ ऐसा बता जाएं जिससे उनका बच्चा जल्दी से जल्दी ठीक होने लगे ।थोडा कम या ज्यादा लेकिन इसी से मिलती-जुलती चाहत सभी की है।उनमे से कुछ बहुत पढे लिखे थे तो कुछ कम ।हो सकता है कि उनमे कुछ लोग ऐसे भी कभी रहें हों जो कभी ईश्वर में विश्वास न रखतें हों किन्तु अब ऐसा नहीं है ।वे सभी अब ईश्वर में बहुत ज्यादा विश्वास रखने वालों मे से एक हैं ऐसा मुझे उनकी बातों को सुनकर महसूस हुआ ।
अचानक मुझे लगा जैसे किसी ने अपनी ऊंगली से मेरी पीठ मे टहोका दिया हो ।मैने चिहुंक कर इधर-उधर देखा ।मेरी दांयी तरफ एक सीधी-सादी सी महिला अपने माथे पर एक लाल रंग की बडी सी गोल बिंदी चिपकाए अपनी बडी-बडी अांखों से मुझे ही देख रही थी ।मैने आंखों से ही कारण जानना चाहा ।हौले से हंसकर उसने जो कहा उसका मतलब था कि मुझसे वह कुछ जानना चाहती थी । उस वक्त मुझे थोडी हैरत भी हुयी ।फुसफुसाती आवाज मे बोली-
''आपका भी कोई बच्चा ........?''
वाक्य अधूरा ही छोड दिया था उसने ।फिर भी उसने मुझसे जो पूछना चाहा था उस बात को मैं सही-सही समझ सकी थी ।मैं अन्दर ही अन्दर कांप उठी ।
''नहीं....।। नहीं....। ।'' मैने जल्दी से कह गयी ।
''मैं यहां वालंटियर की तौर पर काम करतीं हूं।''
उसकी बडी-बडी आँखें और भी बडी हो आयीं और वह कुछ ज्यादा ही ध्यान से मुझे देखने लगी ।उसकी नजरों का सामना कर पाना थोडा कठिन लगा और मैं सामने रखी खाली कुर्सी की तरफ देखने लगी ।अभी डॉक्टर नहीं आयें हैं । न चाहते हुए भी मेरी नजरें एक बार दुबारा उस महिला की तरफ मुड ग़यीं ।वहां एक बच्चा यही करीब दो साल का होगा,उस औरत और उसके पति के बीच बैठा हुआ अपने सामने बैठी वालंटियर जो मुश्किल से उन्नीस -बीस वर्षों की रही होगी, के बालों को बार-बार खींचता और खुश होता हुआ दिखायी दिया।उसकी इस हरकत ने मुझे आकर्षित किया और मेरी नजरें वहीं टिक गयीं । मैने देखा कि बाल खिंचने से वह लडक़ी पीछे घूमकर जब देखती तो फिक् से हंस देता वह बच्चा ।मुझे भी मजा आने लगा इस खेल में जो यहां बैठी इस लडक़ी और बच्चे के बीच चल रहा था । बच्चे की हंसी यहां के भारी-भरकम माहौल को हल्का करती हुयी मुझे अपने तरफ आकर्षित कर रही थी ।अपने को रोकना मेरे लिए अब मुश्किल हो गया ।उसके गाल को हल्के से थपथपाया ,फिर उस महिला की तरफ देखकर पूछा ,
''ये आपका बच्चा है ?''
''हां जी ।'' उसका बोलने का लहजा पंजाबी था।मेरी बात का जवाब देने के साथ ही साथ वह हंसी भी ।इस कोशिश में न जाने क्यों उसका पूरा चेहरा कांप उठा ।
''क्या प्राब्लम है इसे ?'' मैने उसके मासूम चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा ।
वह बच्चा अभी भी उसी वालण्टियर के बालों में उलझा हुआ उन्हें उलझाता जा रहा था।उसके बाल खींचने पर वह लडक़ी अपने सिर पर अपना हाथ रखती ताकि बाल खींचने पर दर्द न हो और फिर पीछे मुडक़र उस बच्चे को घूरकर देखती। झट से वह अपना हाथ इस तरह खींच लेता जैसे उसने तो कुछ भी नहीं किया हो लेकिन जैसे ही वह लडक़ी सामने देखने लगती ,बच्चा उसके बालों से छेड-छाड फ़िर से शुरू देता ।उसकी मां तब से अब तक कई बार उसे रोकने की कोशिश कर चुकी लेकिन उस के ऊपर अपनी मां के प्रयासों का कोई असर पडा हो ऐसा मुझे तो नहीं लगा।शायद उस लडक़ी को भी इस खेल में आनन्द आने लगा था।
''दो साल का होने को आया हमारा समीर लेकिन भगवान जाने क्यों अभी तक अपने आप चल नहीं पाता ।घुटनों से चलता है वह भी बहुत तेज........पर।ख़डा नहीं हो पाता........'' ख़िसियानी हंसीं के साथ उसने अपनी बात समाप्त की ।ऐसा लग रहा था जैसे कि उसने कोई अपराध किया हो ।मैं आश्चर्य में पड ग़यी ।
''इस तरह की हंसी का मतलब ?''
''बोलता तो है न ? और तो कोई प्राब्लम नहीं है?''
''हांजी,हांजी बोलता है लेकिन उतना नहीं जितना इस उम्र के दूसरे बच्चे बोलतें हैं ।'' बेचारगी भरी आवाज मे उसने बताया और इसी बीच उसकी नजरें एक बार अपने पीछे की तरफ घूम गयीं ।उसकी आवाज कांप रही थी और पूरा बदन थरथरा रहा था।उससे थोडा ही हटकर उसके पीछे एक आदमी बैठा था जो उसका पति था,लगातार उसे कनखियों से देखता हुआ अपने चेहरे पर उदासी बिखेरे बैठा था । उसके चेहरे पर तनाव साफ देखा जा सकता था ।उन दोनों के बीच शायद कुछ हुआ था।मुझे जाने क्यों अचानक लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने बच्चे की इस हालत के लिए ये आदमी अपनी पत्नी को ही जिम्मेदार मानता है।हो सकता है ये मेरा सिर्फ वहम् ही हो !
''और भी बच्चें हैं आपके ?''
शायद उसे इसी प्रश्न का इंतजार था ।जल्दी से बोली -
''हां जी ,एक बेटी है न और वह एकदम अच्छी है ।बस न जाने कैसे इस को यह बीमारी लग गयी?'' और हंस दी ।
''उफ् क्यों हंसती है बिलावजह ये इतना ?'' मैं चुपचाप सामने देखने लगी ।उससे और क्या बात करूं , मेरी समझ में नहीं आ रहा था ।लेकिन वह अभी और बात करना चाहती थी, शायद उसकी जिज्ञासा का समाधान अब तक नहीं हुआ था इसलिए उसने बात आगे बढायी ,
''आप यहां क्या काम करतीं हैं ?''
''कोई भी काम जो इन बच्चों के लिए हमसे हो पाता है ,हम करतें हैं ।''
''अच्छा-अच्छा ....आप लोग इन बच्चों के साथ काम करतीं हैं जो यहां रेगुलर आतें होंगे।''
''जी।'' सामने देखते हुए ही मैने उसकी बात का जवाब दिया ।
डॉक्टर आ चुके थे ।उनके आने से कमरे के बीचों-बीच रखी कुर्सी भर गयी । उस कमरे मे मौजूद सभी लोग एकदम खामोश हो गए।एक गिलास पानी लेकर कृष्णा आया ।गिलास की बाहरी सतह पर पानी की बूंदें दिखाई दे रहीं थीं ।डॉक्टर ने गिलास छूकर देखा ।पानी ठंडा था ।पानी से भरा गिलास उन्होंने दूसरी खाली पडी क़ुर्सी पर रख दिया ।शायद थोडी देर बाद पिएंगे।
''आप रोज आतीं होंगी ?''
''नहीं, रोज नहीं ,हफ्ते में सिर्फ तीन दिन।''
उसके चेहरे पर मुझे अपने प्रति सम्मान जगता हुआ दिखायी दिया और न जाने क्यों मुझमें अजीब तरह की शर्मिन्दगी का अहसास भी भरता गया ।
''मैं इस सम्मान के योग्य हूं भी या नहीं ?''
उससे नजर मिलाना मेरे लिए मुश्किल होता जा रहा था ।
''डाक्टर बोलना कब शुरू करेंगे ?''
मैं सामने देखने लगी फिर से ।वहां डाक्टर बैठे थे ।अब शायद कुछ ही देर में बोलना आरम्भ करेंगे ।उनको सुनने के लिए ही यहां इतने सारे लोग इकट्ठे हुएं हैं।
अभी तक डाक्टर चुपचाप बैठे थे ।अचानक उन्होने अपनी गर्दन बांयीं तरफ झुकायी और सीधे होकर बैठ गये ।
डाक्टर हल्के -हल्के मुस्कुरा रहे थे ।उनकी मुस्कान मनमोहक थी ।थोडी देर तक वे इसी तरह सबकी तरफ देखते रहे और मुस्कुराते रहे ।उस बडे क़मरे में बैठे लोग उनके बोलने का इंतजार कर रहे थे।उन्होने विनम्र स्वर मे बोलना आरम्भ किया । उनकी बातों में उन लोगों के प्रति गहरा अपनापन और आस्था झलक रही थी ।उनकी स्नेहिल आवाज वहां बैठे सभी लोगों को अभिभूत कर गयी ।बडे मन से और बडे ही ध्यानपूर्वक उनकी बातें वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति सुनता हुआ दिखायी दे रहा था ।सब उन्हें ही सुन रहे थे ।उनकी अकेली सहज और सच्ची आवाज उस कमरे मे मौजूद सभी लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए पर्याप्त थी ।
जब से मैने यहां आना शुरू किया है और इन बच्चों से मेरा साक्षात्कार हुआ है तब से स्पैस्टिक शब्द सुन कर ही दिल मे न जाने कैसा तो लगने लगता है ।डाक्टर इसी के विषय में बता रहे थे ।मैने सुना वे कह रहे थे -
''ब्रेन यानि कि दिमाग जो हमारे शरीर के प्रत्येक अंग के क्रियाकलापों को- कैसे कब और क्यों करना है,निर्धारित करता है ,जब अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ होता बल्कि विकसित होने की प्रक्रिया से गुजर रहा होता है तब उस अवस्था में यदि किसी भी कारण उसे आघात पहुंचता है तब पैदा होती है ये बीमारी ।पैदा होने के बाद भी दिमाग के विकास की ये प्रक्रिया चलती रहती है।दिमाग को आघात गर्भ में,पैदा होते समय या पैदा होने के बाद कभी भी किसी कारणवश पहुंच सकता है ।कारण चाहे कोई भी हो ,किन्तु इससे बच्चे का मोटर सिस्टम प्रभावित होता है एवं इसका असर दिखाई देने लगता है ।बच्चे के शरीर के विभिन्न अंगों का दिमाग के साथ तालमेल गडबडाने लगता है ।यह किसी एक अंग, दो अंगों या फिर उससे ज्यादा अंगों के साथ भी हो सकता है ।''
करीब दस मिनट से बोल रहे डाक्टर अब खामोश हो गये थे ।उन्हें गले मे खरांश महसूस हुई ।गला फंसने लगा था ।खंखार कर के गला साफ किया और साथ वाली कुर्सी पर रखे पानी के गिलास को छूकर देखा ।अब उतना ठंडा नहीं है ।पिया जा सकता है ।गिलास उठाया और एक सांस में खाली कर के कुर्सी के नीचे थोडा अंदर की तरफ खिसकाकर रख दिया ।इस बीच उन्हें याद आया कि अभी कुछ बातें उन्हें और कहना बाकी रह गया है । सामने बैठे बच्चों को प्यार भरी नजरों से उन्होने हल्के से छुआ और फिर किसी एक विशेष को न देखते हुए भी सभी की तरफ देखने लगे ।चेहरे पर अजीब तरह की शांति थी ।वहां उपस्थित लोगों के प्रति गहरी संवेदना से भरी आवाज एक बार फिर सुनायी देने लगी ।
''एक बहुत जरूरी बात मैं आप लोगों को खासतौर से बताना चाहता हूं ।बीमारी की पहचान जितनी जल्दी हो जाती है उतनी ही आसानी से और अच्छी तरह बच्चे की थैरेपी की जा सकती है ।जैसे-जैसे देर होती जाती है वैसे-वैसे मुश्किलें बढती जाती है ।इस बीमारी का कोई भी इलाज नहीं है ।इसे ठीक नहीं किया जा सकता है।कोई दवा खाने से या किसी भी दवा या तेल की मालिश इसे ठीक नहीं कर सकती ।जो लोग ऐसा दावा करतें हैं वे आप लोगों को धोखा देने का काम करतें हैं ।बस अगर कोई चीज है जो कि इस बीमारी से लडने मे मददगार है तो वह है सिर्फ और सिर्फ ट्रेनिंग एवं फिजिकल थैरेपी ।एक बात और जो आप सबको शायद नहीं मालूम होगा कि हम अपने दिमाग का केवल कुछ हिस्सा ही इस्तेमाल करतें हैं इसलिए दिमाग के दूसरे बचे हिस्से को ट्रेनिंग की मदद से कुछ फायदा मिल सकता है ।हम इस तरह से उसका पोटैंशियल बढाने की कोशिश कर सकतें हैं ।लेकिन इसके लिए जरूरत है डिटरमिनेशन की ।हमे नियति के विरूध्द जाकर बहादुरी के साथ लडना होगा । कठिन लडाई है लेकिन असंभव कुछ भी नहीं ।सबसे जरूरी बात यह है कि आप जितनी जल्दी यह बात समझ जायगें उतना ही बच्चे के हक में ठीक रहेगा कि यह लम्बी लडाई आप को ही लडनी है। ''डाक्टर अपनी बात समाप्त कर चुकें हैं ।चेहरे पर तनाव की एक भी रेखा नहीं थी ।इस समय उनके चेहरे पर एक सहज मुस्कान मौजूद थी।
बहुत गर्मी है ।इस साल कुछ ज्यादा गर्मी पड भी रही है ।पारा चौवालीस के आसपास पहुंच चुका है अभी से।
उनकी बातें सबने ध्यानपूर्वक सुनी थी।डाक्टर इंतजार कर रहें हैं ,अगर किसी को कोई शंका हो तो उनकी पूरी कोशिश होगी उसे दूर करने की ।पूछना तो बहुतों को है बहुत कुछ, किन्तु पहल कौन करे? कोई इधर-उधर देख रहा था तो किसी की निगाहें ऊपर छत पर टंगे पंखे को टटोल रहीं थीं बेमकसद ।मेरे पीछे बांयी तरफ बैठी बडी-बडी आँखों वाली पंजाबिन महिला दरवाजे से बाहर देखती हुयी किसी और ही दुनियां मे जैसे गुम थी ।
एक आदमी जो शायद अकेले ही आया था ,बच्चा भी उसके साथ नहीं था-शायद आने की स्थिति में नहीं रहा होगा इसलिए नहीं आया था- ,अपनी जगह पर खडा होकर पूछने लगा ,
''डाक्टर साहब मैने पहले एक दूसरे डाक्टर को अपने बच्चे को दिखाया था तब उसने कहा था कि उसके दिमाग मे कोई चीज होती है जिसे शायद फलूड कहतें हैं उसकी मात्रा ज्यादा हो गई है जिसे निकालने के लिए आप्रेशन करना पडता है ।तो क्या डाक्टर साहब आप्रेशन करवाने से ये बीमारी ठीक हो सकती है ?''
इतना कह चुकने के बाद वह आदमी अपनी जगह पर बैठ गया ।घुटने सिकोड उन्हें अपने दोनो हाथों से पकडक़र ऊपर को मुहं उठाये वह डाक्टर के जवाब का इंतजार करने लगा ।
डॉक्टर ने गौर से उसकी बात सुनी ।इसी दौरान ऊपर से नीचे तक एक सरसरी निगाह से उसका निरीक्षण भी कर गये ।किसी साधारण से परिवार का एक मामूली गृहस्थ।अपनी भवें सिकोडक़र कुछ देर तक डॉक्टर ध्यानमग्न रहे फिर कहने लगे ,
''आपका मतलब शायद फ्ल्यूड से था।उस डॉक्टर ने इसी चीज के बारे मे बताया होगा ।कई बार ऐसा होता है कि दिमाग में जो एक तरह का पानी जैसा पदार्थ होता है उसकी मात्रा किसी कारणवश बढ ज़ाती है जिसकी वजह से उसे ज्यादा जगह की जरूरत होने लगती है।अब पानी ज्यादा जगह घेरने लगता है और आपको तो मालूम है कि सिर का आकार तो निश्चित है उसे तो बढाया नहीं जा सकता लिहाजा दिमाग को अपनी जरूरत के मुताबिक जगह मिलने मे दिक्कत होने लगती है। इस वजह से दिमाग अपना काम सुचारू रूप से नहीं चला पाता और शरीर मे कई प्रकार की विकृतियाँ पैदा होने लगती है ।'' एक लंबी सांस लेने के बाद उन्होने फिर से बोलना शुरू किया ,
''उस स्थिति में सिर का एक आप्रेशन करके दिमाग में एक नली डाल देतें हैं जिसे शंट कहतें हैं ।जिससे जरूरत से ज्यादा बना पानी निकलता रहता है ।इस आप्रेशन को दिमाग की बाईपास सर्जरी कहतें हैं ।लेकिन आपने ये तो बताया ही नहीं कि आपसे ये बात डॉक्टर ने कब बतायी थी ?''
''यही कोई तीन चार साल पहले ।'' दबी हुयी आवाज मे अटक-अटक कर उसने बताया ।
''तब आपने आप्रेशन करवाया नहीं ,क्यों ?''
''आप्रेशन करवाने मे बहुत पैसा लगता इसलिए हमने सोचा कि एक बार किसी दूसरे डॉक्टर को भी दिखालें तब आप्रेशन करवायें ।''
''तब?''
''दूसरे डॉक्टर को दिखाया भी था हमने ,लेकिन उन्होंने तो कहा था कि आप्रेशन करवाने की कोई जरूरत नहीं है ।उससे फायदा कुछ होगा नहीं ऊपर से पैसा और बेकार मे बरबाद होगा ।इसलिए ....'' क़हते-कहते उसकी आवाज कांपने लगी और बात अधूरी रह गयी ।
असली दिक्कत कहां थी यह समझ मे आ गया था डॉक्टर को। उसकी आवाज की कातरता से साफ लग रहा था कि उसमें बैठा पिता अपनी असमर्थता की वजह से दुखी था ।अगर पास मे पैसे होते तब शायद स्थिति कुछ बेहतर होती ।
डॉक्टर ने उसकी आवाज मे छिपी मजबूरी को महसूस कर रहे थे ।अपनी आवाज को भरसक कोमल बनाते हुए सान्त्वना भरे लहजे मे कहा_
''अगर किसी डॉक्टर ने यह राय दी थी तब तो ठीक ही किया आपने आप्रेशन न करवाकर।अब आप उसके थैरेपी पर ध्यान दीजिए ।''
उस आदमी के पास अब हिम्मत नहीं बची थी कि कुछ और पूछ सके। अपराध-बोध जरा भी कम नहीं हो पाया था उसका। आगे अब कुछ और जानने की न तो उसकी इच्छा थी और न ही साहस ।
वह महिला जो मेरे पास बैठी थी उसका चंचल बच्चा थक कर सो गया था ।पूरी तरह निश्चिन्त,अपनी मां के गोद मे ।वैसे भी वहां चल रही इन तमाम बातों में ऐसी शायद ही कोई बात रही हो जिसमे उसकी थोडी भी दिलचस्पी रही हो ।डाक्टर जो कुछ कह रहे थे वह सारी बातें उसकी समझ में न आने वाली बातें थीं और निहायत नीरस थीं ।बच्चा सो रहा था और मां का हाथ निरंतर उसके बालों को सहेजने मे लगा था।
अनायास मेरी निगाहें उनकी तरफ घूम गयीं ।उसे सोता हुआ देखा तो अनजाने में ही मुंह से निकल गया _
''सो गया?''
सिर हिलाकर हामी भरी उसने ।
''बडा प्यारा बच्चा है ।''
मेरी बात सुनकर हंसने लगी थी वह औरत । मगर कुछ खयाल आते ही अचानक थम गई उसकी हंसी और उदासी की एक पर्त ने उसके चेहरे को अपने अंदर समेट लिया । शायद अब रोने वाली है ।मुझे लगा जैसे मुझसे कोई बडी भारी भूल हो गई हो ।मैं स्तब्ध होकर जल्दी से सामने देखने लगी ।
डॉक्टर की कुर्सी से सटकर कुर्ता पाजामा पहनकर एक आदमी बैठा था ,उसने अपना हाथ उठा दिया ।उसके पास एक बच्चा चुपचाप बैठा हुआ सामने की तरफ देख रहा था । डॉक्टर की निगाहें उसकी तरफ उठीं ।
''हां-हां , पूछिये न क्या पूछना चाहतें हैं?''
''डॉक्टर साहब मेरा यह बेटा है ।पहले बोलने लगा था किन्तु अब इसने फिर से बोलना बंद कर दिया है ।क्यों डॉक्टर साहब, ऐसा क्यों हो गया ?'' कहते-कहते थोडा झुक गया वह आदमी और डॉक्टर जिस कुर्सी पर बैठे थे उस कुर्सी का हत्था अपने हांथो मे कसकर पकड लिया और उनके जवाब का इंतजार करने लगा ।
''क्या बच्चे को दौरे भी आतें हैं ?'' बच्चे की तरफ देखते हुए डॉक्टर ने पूछा ।
''जी।'' अब वह आदमी सीधे खडा होकर डॉक्टर की बात बडे ग़ौर से सुन रहा था।
''कई बार ऐसा होता है कि दौरों के दौरान दिमाग की कुछ कोशिकाएं जो दौरों के पहले एकदम ठीक ठाक होतीं हैं ,नष्ट हो जातीं हैं।यही हुआ है आपके बेटे के साथ।''
''तब अब क्या करें हम? क्या अब मेरा बच्चा कभी बोल नहीं पाएगा ?''
कातर निगाहों से डॉक्टर को देखते हुए उनकी बात सुनने की हिम्मत जुटाता वह आदमी मुझे अंदर तक हिला गया।उस समय मेरी दिली ख्वाहिश थी कि डाक्टर उसकी बातों का कोई जवाब न दें ।लेकिन मैने सुना, डॉक्टर को ठहरे हुए स्वर मे कहते हुए _
''हिम्मत मत हारिए ।एक बार फिर से, नये सिरे से इसकी फिजियोथैरेपी करवानी होगी।कोशिश करते रहिए....।।'' ड़ॉक्टर की आवाज कहीं दूर से आती हुयी सुनायी पड रही थी ।
डॉक्टर की बात अभी समाप्त हुयी ही थी कि दरवाजे के पास बैठी एक सांवली सी औरत उठ कर खडी हो गयी ।वहां बैठे सभी लोगों की नजरें उसकी तरफ घूम गयीं । डॉक्टर अपना सिर हिला रहे थे ,पूछा_
''हां कहिए।''
''जी ....। ''उसकी आवाज उसका साथ नहीं दे रही थी ।
''शायद आप कुछ पूछना चाहतीं थीं ।''
''जी....। ।''
''हां,हां पूछिये ,मैं आप लोगों के लिए ही यहां आया हूं ।''
''मेरी बेटी ........।''फ़िर से अटक गयी ।उसके गले में जैसे कुछ अटक गया था ।उसने कई बार कोशिश की किन्तु कायदे से एक वाक्य भी पूरा नहीं कर पायी थी अभी तक ।एक दो शब्द बोलते-बोलते गला भर्राने लगता था।
''आप पहले पानी पी लीजिए, फिर बोलिए।''
बडा कमरा था । उपस्थितों की संख्या बहुत थी किन्तु सब खामोश थे और सबकी आंखों मे नमी थी । डॉक्टर को किसी भी तरह की हडबडी नहीं थी ।
अपने साथ पानी की बोतल लेकर आयी थी वह औरत।उसने पानी पिया ,रूंधे गले को साफ किया और एक बार दुबारा प्रयास करना शुरू किया ।इस बार उतनी दिक्कत नहीं हुयी ।
''मेरी बेटी के स्पाईनल कॉर्ड में कुछ परेशानी है ।उसके कमर के नीचे का हिस्सा बिल्कुल काम नहीं करता है। डॉक्टर साहब उसके हाथ वगैरह एकदम ठीक हैं,सारे काम सही ढंग से करतें हैं लेकिन कमर के नीचे का हिस्सा एकदम बेकार हैं।यहां तक कि हम उसे टॉयलट ट्रेनिंग तक नहीं दे सकते ।उसका इस पर कोई कन्ट्रोल भी नहीं है ।''
''अभी तक तो सब किसी तरह से चल ही रहा था किन्तु अब जब कि उसकी छोटी बहन भी चलने लगी है तब शायद उसकी भी इच्छा होती होगी और इसीलिए, पूछने लगी है कि क्यों अभी तक वह चल नहीं पाती ।'' गला भर आया उसका ।आवाज फिर से फंसने लगी । उसने इधर उधर देखा और एक बार फिर से पानी का एक घूंट लिया । कमरे मे असहनीय शान्ति थी । डॉक्टर भी कुछ देर तक सुन्न बैठे रहे ।वे अपनी बेचैनी छिपाने की भरसक कोशिश करते दिखाई दे रहे थे ।उसकी बात जारी थी ।
'' हम अपने बच्चे को लेकर एब्राड भी गये ।वहां कई डॉक्टरों को दिखाया किन्तु हर जगह से एक ही जवाब मिला कि इस केस मे वे कुछ नहीं कर सकते ।अब आप ही बताइये डॉक्टर साहब मैं उस मासूम को क्या जवाब दूं जब वह भोलेपन से पूछती है कि ममा मैं कब तक चल पाऊंगी।मेरी तो समझ में आता नहीं ।''
अब तक डॉक्टर अपनी भावुकता पर काबू पा चुके थे ।
''क्या उम्र होगी उसकी ?''
''यही कोई सात वर्ष के लगभग ।''
''उसका आई क्यू टेस्ट कभी करवाया था आपने ?''
''जी आई-क्यू तो अपनी उम्र के बच्चों की तरह ही है ।''
''देखिए जब ऐसा है तब तो उसके लिए बहुत अच्छी बात है इसका मतलब यह हुआ कि अगर उसे आहिस्ता-आहिस्ता समझाया जाय तब वह यह बात अच्छी तरह समझ सकती है कि क्यों अभी तक चल नहीं पायी वह ।उसे बताइये कि उसे क्या दिक्कत है ,और फिर यह भी बताइये कि वह चल नहीं पायेगी ,कभी भी नहीं।'' अपने फेफडे में ढेर सारी हवा भरते हुए डॉक्टर ने भारी आवाज में कहा-
'' प्रकृति ने उसे क्या नहीं दिया है इस बात पर ज्यादा अफसोस करने से कोई फायदा नहीं बल्कि क्या मिला है उसे और उसको कैसे उसके आगे के जीवन को बेहतर बनाने मे उपयोग मे लाया जा सकता है, के बारे मे सोचने की जरूरत है। अपने बच्ची को सच का सामना करने लायक बनाइये -इसी में आपकी और आपके बच्ची की बेहतरी है ।''
''लेकिन डॉक्टर साहब ,अभी तक तो हम उससे कह रहे थे कि एक दिन वह भी जरूर चलेगी और अब अचानक कैसे कह दें कि वह कभी चल ही नहीं पायेगी ? हम उससे कैसे ऐसा कह सकतें हैं ?''कहते-कहते उसके होंठ सूखते जा रहे थे ।बीच-बीच में वह औरत अपनी बोतल से एक दो घूँट पानी अपने मुंह मे डालती जा रही थी ।
''आप लोगों को उससे ऐसा नहीं कहना था ।आखिर पढे लिखे लोग हैं आप दोनो ।कैसे इस तरह की बेवकूफी कर सकतें हैं ? मेरी समझ में नहीं आ रहा है ।''
डॉक्टर एकाएक गम्भीर हो गए ।
''तब क्या हमें आरम्भ में ही उम्मीदें छोड देनी चाहिए ?''
''मैं ऐसा कहां कह रहा हूं? उम्मीद पर तो दुनियां कायम है ।उम्मीद के सहारे ही हम भी काम करतें हैं ।लेकिन हमे रियलिस्टिक होना पडेग़ा ।वास्तविकता से हमें भागना नहीं है ।सच्चाई का सामना करिए ।डट कर उसका मुकाबला करने से ही कुछ हो सकता है ।आप इसको समझिए और हिम्मत के साथ अपनी बच्ची को भी ताकत दीजिए ताकि वह इस स्थिति का बहादुरी के साथ सामना कर सके ।उसे बताइये कि ऐसी अवस्था में भी वह बहुत कुछ ऐसा है जो कर सकती है ।खडी होकर नहीं चल सकती तो क्या हुआ ?अभी दुनियां खत्म नहीं हुयी है ।ऐसी न जाने कितनी चीजें हैं जो आप लोगों की मदद और मेहनत से वह हासिल कर सकती है ।जीवन में आस्था रखिए ।विश्वास ,लगन और मेहनत से क्या कुछ नहीं हासिल किया जा सकता है। याद रखिये मां से बडा मददगार दुनियां में शायद ही कोई दूसरा मिले ।हां उसके दिल में ऐसी इच्छायें मत जगाइये जो पूरी नहीं हो सकती ।वरना वास्तविकता का आभास होते ही उसे तिनका-तिनका बिखरने से कोई नहीं रोक पाएगा ।आपका भगवान भी नहीं ।'' लंबी सी सांस लेकर उन्होने अपनी बातें जारी रखी ,
''जब आप अपनी बात बता रहीं थीं उस समय आपने कहा था कि बच्ची के इलाज के सिलसिले में आप विदेश तक हो आयीं हैं ,इसका मतलब आपके पास रिसोर्सेस की कोई कमी नहीं है ।तब तो आप बहुत कुछ कर सकतीं हैं अपनी बच्ची के लिए । अच्छे व्हील चेयरस् और तमाम उन जरूरी सामानो को खरीदिये जो उसके पोटैन्शियल को बढाने मे मददगार साबित होतें हैं।एक बार फिर से कहता हूं कि झूठे आश्वासन देकर आप उसे मत बहलाइये ।कहीं ऐसा न हो जाय कि बाद में उसे सम्भालना ही मुश्किल हो जाय ।अच्छी तरह से गांठ बांध लीजिए कि इस बीमारी का कोई इलाज न्हीं है ।जो डेमेज हो चुका है उसे वापस नहीं लाया जा सकता ।हां इतना जरूर हो सकता है कि जो कुछ बचा हुआ है उसके पास, उसी की मदद से ट्रेनिंग और थैरेपी के सहारे उसको जीने लायक बनाना होगा ।कोई दूसरा नहीं आयेगा आपकी मदद के लिए ।आपको स्वयं अपनी मदद के लिए आगे आना होगा ।हिम्मत और धैर्य के साथ आगे बढक़र अपनी बच्ची के मन मे जीने की जिजीविषा पैदा करनी होगी ।बहादुर बनाना होगा उसे और साथ में आपको भी बहादुर बनना होगा ।मुश्किल काम जरूर है किन्तु असम्भव नहीं ।भरोसा रखिये अपने पर।आप कर सकतीं हैं इस काम को ,ऐसा मुझे विश्वास है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आप मेरे विश्वास को ठेस नहीं पहुंचायेंगी।क्यों समझ रहीं हैं न आप ?'' डॉक्टर की आंखों मे उम्मीदें थीं और था ढेर सारा भरोसा ।
वह सुन रही थी सब कुछ और शायद समझ भी रही थी ।कोई जवाब नहीं दिया उसने ।वहीं बैठ गयी चुपचाप ।इन बातों को उसने पहली बार नहीं सुना था।इसके पहले भी डॉक्टरों ने उसे कुछ-कुछ इसी तरह की बातें कहीं थीं।फिर भी न जाने क्यों हर उस डॉक्टर से जिससे पहली बार मिलने का मौका मिलता है उसे ,कुछ ऐसी उम्मीद हो जाती है कि क्या पता वह उसकी बेटी के शरीर के निचले हिस्से मे कुछ जुम्बिश पैदा करने मे सफल हो जाय ।
डॉक्टर जो अभी तक उसे बहादुर बनने के लिए कह रहे थे - के माथे पर पसीने की बूंदें दूर से ही दिखायी देने लगीं थीं । जेब से रूमाल निकाल कर अपना माथा वे जल्दी-जल्दी उसे पोंछने लगे।
ठीक उसी समय मेरे बांयीं तरफ कुछ हलचल सी हुयी ।मैने मुडक़र देखा बडी सी बिंदी वाली महिला अचानक उठ कर खडी हो गयी थी।डॉक्टर साहब क्या इस तरह की बीमारी बच्चों को अपनी मां की वजह से ही होती है ?''एक झटके मे उसने अपना वाक्य पूरा कर दिया ।हां इस दौरान वह लगातार अपने पति की तरफ ही देखती रही थी।
डॉक्टर चौंके ।
''नहीं तो।''
''लेकिन........। !।''उसका आंखें अभी भी अपने पति की ओर ही थीं ।
''नहीं।।।बिल्कुल भी नहीं ।किसने कहा आपसे ? सोचा भी कैसे आपने ? ऐसा भूल कर भी अपने दिमाग में मत लाइये ।अगर ऐसी बात मन मे किसी वजह से आ भी जाये तो उसे निकाल फेंकिये ।ऐसा नहीं है ।किसी भी परिवार में स्वस्थ माता पिता होने के बावजूद ऐसे बच्चे का जन्म हो सकता है ।पिचानबे प्रतिशत केसेस में संयोगवश ऐसा हो जाता है ।ऐसा देखा गया है कि अज्ञानता वश कई लोग बच्चे की इस स्थिति के लिए मां को जिम्मेदार ठहराने लगतें हैं ।किन्तु यह बात सच नहीं है ।''
''हूं ऽ ऽ ऽ तब फिर ऽ ऽ ऽ।''क़हकर वह चुप हो गयी ,लेकिन अभी भी उसकी आंखें अपने पति पर ही टिकीं थीं ।उसके पति उससे आंखें नहीं मिला पा रहा था और शायद इसलिए इधर-उधर देख रहा था ।अभी अभी डाक्टर की कही हुयी बातों को सुनकर उसे अपनी गलतफहमी का अहसास अच्छी तरह से हो चुका था और वह ग्लानि महसूस कर रहा था।
बहुत देर से सब चुपचाप बैठे थे ।सुई गिरने की आवाज भी उस दौरान सुनी जा सकती थी ।उस खामोशी मे खलल पडा।शुरू से अब तक शान्ति से बैठी एक महिला ने एक लम्बी सांस ली ।एक दूसरी महिला ने जैसे अपने आप से ही कहा-
''कम से कम अब हम दूसरे बच्चे के बारे में प्लान तो सकतें हैं।इस बच्चे के होने के बाद से तो हमे इस बारे मे सोचने में भी डर लगने लगा था।''
डॉक्टर के रहस्योद्धाटन के बाद से मेरे नजदीक बैठी महिला जो अब तक मुझसे बातें करने के लिए लगातार बहाने तलाशती रही थी नि:शब्द बैठी थी। अचानक उसके चेहरे का आकार बिगडने लगा और मैने देखा कि बात-बेबात हंसने वाली वह महिला फूट-फूट कर रोने लगी थी ।उसके पति के चेहरे पर अपराध बोध साफ झलक रहा था।
मेरी स्थिति तो और भी अजीब हो गयी थी ।जब वह बिलावजह हंस रही थी तब मुझे खीज हो रही थी और अब मुझे बेचैनी हो रही थी ।सच कहूं तो उसकी हंसी से कई बार डर सा लगने लगा था।उसके रोने में मुझे कुछ भी अजीब नहीं लग रहा था ।उसका पति सिर झुकाये चुपके-चुपके अपनी आंखें पोंछ रहा था और उसकी पीठ पर आहिस्ता-आहिस्ता हाथ फेरते हुए उसे चुप कराने की कोशिश भी कर रहा था । उसके हाथ कांप रहे थे ।अपनी पत्नी पर उसने अनजाने मे जो इल्जाम लगाए थे उन पर उसे ग्लानि हो रही थी।
एक इच्छा बडी शिद्दत से मेरे मन में सिर उठा रही थी कि उसका पति थोडी देर के लिए ही सही कहीं चला जाय और मुझे कुछ देर उस औरत से बातें करने का मौका दोबारा मिल जाय ।
पद्मा राय
बुधवार, 27 जनवरी 2010
अंतिम इच्छा-
"बडी मुश्किल से बुआ जी की आँख लगी है , लगता है आज कुछ कुछ ज्यादा तकलीफ में हैं." रसोई के रोशनदान से छनकर आती हुयी आवाज बडकी दुलहिन की थी. वे सुन रहीं थीं. आधी नींद में और आधी जगी हुयी अपनी आँखें बन्द करके बुआ जी लेटीं थीं. किसी चलचित्र की तरह उनका पूरा जीवन उनके दिलो-दिमाग में घूम रहा था . वे अपने आप से ही बातें कर रहीं थीं-
तकलीफ तो हमें है पर यह तकलीफ तो एक दिन होनी ही थी. दुर्गा भवानी , भैया को खूब खुश रखें जिनके कारण यह तकलीफ आधी रह गयी है. खूब फलें फूलें वे , यही हमारी मनोकामना है. उन्होंने हमें कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वे हमारे बेटे नहीं हैं. किसे मालूम कि बेटा होने पर कोई सुख मिलता भी कि नहीं परंतु भैया ने अपने सगे बेटे से बढकर हमारी देखभाल की. आज सबेरे की ही तो बात है, वे देर तक हमारे पैताने बैठ कर हमारी हाल खबर पूछते रहे. बडी फिकर है उन्हें. हमारी बिमारी लम्बी खिंचती जा रही है इसीलिये भैया परेशान हैं. हमें मानते भी कितना हैं. कोई कुछ भी कहे परंतु इस एक मामले में तो हम हैं बडे भाग वाले. बिमारी अमारी तो आती रहती है. जी भी तो बहुत चुके !. अब ऊपर वाले का बुलावा लगता है आन पहुँचा है. हम तो उसी दिन समझ गये थे जिस दिन यूनिवर्सिटी से बडे डाक्टर आये थे. हमारी नाडी पकडते ही उनके माथे की शिकन गहराने लगीं थीं. आला लगाकर देखते समय उनका चेहरा कुछ ठीक नहीं लगा था.
हमसे पूछे भी,
"बुआ जी ठीक तो हैं न ?" न जाने क्यों उस समय हम कुछ बोल नहीं पाये थे, केवल मुस्कुराने की कोशिश करते रह गये थे.
डाक्टर साहब को बाहर तक छोडने बडके बचवा गये थे . लौटे तब उनका मुहँ लटका था. हम क्या समझते नहीं ? अब इतने नादान भी नहीं रहे . पहाड सी जिन्दगी यूँ ही नहीं बीत गयी. जाने कितनो ने इन्हीं आँखों के सामने जनम लिया और पता नहीं कितने परलोक सिधारे.
एक दिन मरना तो हमें है ही, कोई अमरित की घरिया पीकर तो आये नहीं थे कि अजर अमर हो जायेंगे. अब ये तो नहीं मालूम कि अमरित जैसी कोई चीज होती भी है या नहीं. गूलर के फूल की तरह इसे भी किसी ने नहीं देखा.
भगवान के घर से अगर हमार बुलावा आया है तब जाना तो पडेगा ही. उसकी इच्छा सर्वोपरि है यह तो सभी कहतें हैं, उस पर किस का वश है ! छठी के दिन विधाता अपनी कलम से सबका भाग लिखतें हैं. हमने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि हम फूटी किस्मत के साथ पैदा हुये. लेकिन हमारा भाग भी तो उसी ने लिखा होगा जो सबका भाग लिखता है और उस दिन जो लिख दिया होगा वही हम अब तक जीते आये. उसकी लीला वही जाने लेकिन अगर हमसे विधाता की कभी मुलाकात हुयी तब उससे एक बात हम जरूर पूछना चाहेंगे- कि आखिर उसने हमारा भाग ऐसा क्यों लिखा ? लोग कहतें हैं कि जैसी करनी वैसी भरनी. लेकिन तब तो हमारी उमर भी ऐसी नहीं थी कि हमने कोई पाप कर सकें. शायद अनजाने में कोई करम बिगड गयें हों ! या कि पूर्व जनम का फल मिला हो. अब ये सब कौन जाने ? कर्मों का हिसाब तो विधाता के पास ही होगा उसी से पूछेंगे. पीछे मुडकर देखतें हैं तब समझ में आता है कि कितना लम्बा जीवन पीछे छूट गया. लोग कहते थे कि अकेले कैसे बितायेगी इतना लम्बा-पहाड जैसा जीवन ? पर बीत ही गया.
ब्याह का मतलब तो हम जानते नहीं थे लेकिन जब ब्याह हमारा हुआ था उस दिन की कुछ बातें हमें अब भी याद है लेकिन न तो हमें अपनी माँग में सिंदूर पडने की याद है और न ही भांवरों के घूमने की. पंडित सात बचन पढकर सुनातें हैं और उसे अपने मन में गांठ बांधकर रखना होता है लेकिन उन्हें सुनने की जब हमारी बारे आयी तब हम वो भी नहीं सुन पाये थे. नऊनियां की गोदी में गुडमुडिया कर सोये पडे थे उस बखत हम. शादी का सब कारज खतम हुआ तो वही हमें उठायी थी. हमारे पैर में झुनझुनी चढ आयी थी. जो सिंधोरा हम अपने हाथ में पकड कर बैठे थे वो नींद में हमारे हाथ से छूट कर गोद में पहुँच गया था. कुम्भकरण जैसी नींद भी तो होती थी तब हमारी. जब उठ कर खडे हुये तो सिंधोरा गोद से उछल कर जमीन पर गिर गया था. सारी धरती सिंदूर से लाल हो गयी थी. तब सबसे डाँट पडेगी -सोचकर हम बहुत डर गये थे. आजी और अम्मा तो अपने देवता ,पितरों को मनाने में लगीं थीं. अपशकुन जो हुआ था. किसी भारी अनिष्ट की आशंका से बाबूजी का भी मुँह उतर गया था.
अपशकुन था कि नहीं, नही जानती लेकिन दूसरे दिन जब बारत वापस लौट रही थी तब जिसने एक दिन पहले उसी सिंधोरे के सिंदूर से हमारी मांग भर हमें अपनी ब्याहता बनाया था उसे ही लू लग गयी थी और उसके घर पहुँची थी उसकी मिट्टी . तब शादी ब्याह जेठ बैसाख के महीने में ही ज्यादा होते थे और उन दिनों सूरज तपता भी बहुत है. हमारा लगन भी जेठ के महीने में ही हुआ था. लू के थपेडे सूरज डूबने के बाद तक चलते रहते थे.
अब जब सोचतीं हूं तब समझ में नहीं आता कि उस समय की अपनी हरकतों पर हसें कि रोयें. हर साल तीज आती थी कई त्यौहार भी आते थे और तब आती थी चूडिहारिन. आलता और नहन्नी लेकर नऊनियाँ भी आती थी. भौजाई, चाची सभी रंग बिरंगी चूडीयाँ पहनते और फिर नऊनियां से अपने हाथ पैर के नाखून कटवाकर आलता से अपने पैर रंगवाते. पैरों पर नऊनियां रच रच कर चिरई बनाती. हम सबको यह सब करवाते हुये चुपचाप देखते और अपनी बारी का इंतजार करते लेकिन हमारी बारी जब अंत तक नहीं आती तब हम सारा घर सिर पर उठा लेते थे और अड जाते कि हमें भी भर हाथ चूडी पहननी है और पैरों में महावर लगवाना है.अम्मा हमें कुछ कहने के बजाय हमारे भाग को कोसतीं जातीं और अपने धोती के अचरा से अपने बह्ते आँसू पोंछती जातीं. लेकिन बडे होते जाने के साथ साथ हम सब कुछ अपने आप समझ गये थे. अपने मन को मारना हम सीख लिये थे. लेकिन हाँ भौजी की भरी कलाइयों की चूडियों के खनकने की आवाज सुनकर कलेजा टीसता जरूर था. मन मसोस कर हम अपनी कोठरी में घुस जाते थे. अपनी सूनी कलाइयों के देखते रहते और र्प्ते जाते. मन हल्का कर के , जब हम कोठरी से बाहर आते तब चेहरे पर ऐसा कुछ नहीं होता था जिससे किसी को हमारी हालत का भान भी हो पाये.हमारी डंडे जैसी कलाइयों को देखकर अम्मा जरूर अपने को रोक नहीं पातीं थीं-रोने लगतीं थीं. एक बार तो बाबूजी के सामने वो जिदिया गयीं. उसी समय बाबूजी ने हमारे लिये सोने की चार चूडियाँ बनवाईं थीं.. वही चूडियाँ हमारे हाथ अब भी हैं .
ससुराल क्या होता है ? वहाँ कैसे रहा जाता है, हमें इसका अनुभव नहीं. होता भी कैसे जब कभी ससुराल गये ही नहीं ! बाबूजी ने जाने ही कब दिया ! हम नैहर में ही अपनी सारी जिन्दगी बिता दिये पर रहे हम मलकिन बन कर ही. हमारी मर्जी हमेशा सबसे ऊपर रही. पहले भगवान को भोग लगता और तब हम खाने बैठते.
अपने ही घर का क्यों पूरे गांव में किसी के घर जच्चगी हो, मुंडन हो या कोई भी काज परोज हो बिना हमारी राय के पूरा नहीं होता. घर की तिजोरी की चाभी हमारे ही आंचल के खूंटे में हमेशा बन्धी होती. राज किया हमनें जीवन भर. सबने बडा मान दिया हमको. नैहर का सुख तो हम बहुत उठाये अब रही ससुराल की बात तो जो हमारे भाग में ही नहीं लिखा था वो भला हमें कैसे मिलता ? मजाल नहीं किसी की जो हमारी बात टाल जाय. कभी कभी हमें न जाने क्या हो जाता था ! हम पगलाने लगते थे. बिला वजह चिड-चिड करने लगते तब सारी दुनियां अपनी दुश्मन लगने लगती. जब तक हमारा दिमाग सही न हो जाता तब तक सब डरते रहते थे. न जाने कितनी बार सिर्फ हमारे कारण घर में बवाल हुआ. हम खूब जानतें हैं कि मन ही मन पुष्पा अरे वही शेखर की दुलहिन हमें जरूर कोसती होगी. हम भी तो अक्सर बिना कारण ही उस पर नाराज हो जाते थे. बडकी दुलहिन सावित्री के सामने हमें वो अच्छी ही नहीं लगती. कई बार तो उसकी सही बत भी हमें गलत लगती . इस मामले में गलती हमारी है यह हम अच्छी तरह जानतें हैं पर करें क्या ? अब तो चाहें भी तो उसे ठीक नहीं कर सकते.
बहुत नेम धरम से रहे हम. पुरोहित जो पूजा पाठ करने को कहते थे वो सब हमने की. कोई कह तो दे कि हमने कोई ऐसा काम किया हो जो हमारे जैसी भाग्यहीन औरतों के लिये वर्जित हो. अब मरती दांयीं भगवान झूठ न बुलवाये मन तो हमारा भी बहुत करता था सजने संवरने का , लेकिन हमने अपनी कोठरी में आयना तक कभी नहीं रखा. बनारस वाली चाची बहुत सुघड थीं. बडे घर की थीं. घर में सिंगारदान की कमी उन्हें खटकती. दिमाग भी खूब चलता था उनका. अपने कोठरी में उन्होंने एक बडा सा शीशा दीवार पर लटका दिया था.उसी से काम चला लेतीं थीं.
एक बार हमें मौका मिला जब हमने उनकी सुहाग पिटारी खुली देख ली थी. वे वहां नहीं थीं. हम बस चुपके से उसमें से एक टिकुली निकालकर अपने माथे के बीचोबीच चिपका लिये थे और फिर दिइवार पर टंगे शीशे में अपने आप को कुछ देर तक निहारते रहे थे. वो दिन हम आज तक नहीं भूल पाये.माथे की बिन्दी हटाने के बाद हम बहुत देर तक रोते रहे थे. अम्मा ने बहुत पूछा था लेकिन अपने मन की बात छिपाना हम तब तक सीख चुके थे.भगवान हमें नरक में भी जगह न दे जो हम झूठ बोल रहें हों. यह काम हमने बस वही एक बार किया था. लडकपन था शायद इसीलिये ऐसी गलती हमसे हो गयी थी अब उस गलती की चाहे जो सजा भगवान हमको दे.
अपनी जिम्मेवारी से हम कभी पीछे नहीं हटे. कब बडी-मुगौडी पडनी है, कितने आमों का अचार पडना है, किस पेड के आम का अचार पडना है, बगीचे से टपके हुये आमों का क्या करना है, कितना अमहर पडेगा और कितने का अमचूर बनवाना है, तालाब से सिघाडों को तुडवाया गया या नहीं, महुआ बिनने कोई गया या नहीं- सब फिकर हमें ही करनी होती. शादी व्याह के समय पितरों को निमंत्रित करना हो तब भी एक हम ही हैं जिसे पितरों के नाम याद हैं. हमारे बाद यह सब कौन करेगा ? इसकी चिंता लगी रह्ती है . यहां जो आता है वह अपनी मौत भी साथ में लिखवा कर लाता है . वापसी का दिन तय होता है. यही दस्तूर है., प्रकृति का यही नियम है और परम सत्य भी है, यह सब जानतें हैं . हम भी जानतें हैं. किसी के बहुत अपने के गुजर जाने पर यही कह कर उसे दिलासा भी देतें रहें हैं . इसके बावजूद न जाने क्यों हमारा मन यह मानने के लिये तैयार नहीं होता. अपनी गैरमौजूदगी में दुनियां के होने की कल्पना करना भी मुश्किल है. भला ऐसा भी कभी हुआ है ? किसी के न रहने से कहीं दुनियां रुकी है जो हमारे न होने पर रुक जायेगी ! अब तो देर सबेर जाना ही है. जाने की सोच कर कैसा कैसा तो हो रहा है .आँखों में जलन हो रही है.
"फुआ रो रहीं हैं !" कह्ती हुयी फुल्लन उनके आँखों के कोर पोंछ रही थी. फुल्लन पडोस में रहती है और अक्सर उंनका हाल समाचार लेने आ जाती है..
"नहीं तो ." धीमी आवाज में बुआ जी बोलीं. पता नहीं कब और कैसे उनकी आँखों के किनारे से पानी बह निकला था.
"बहुत तकलीफ हो रही है ?" बडकी दुलहिन पूछ रही थी.
"नहीं तकलीफ तो नहीं बस ऐसे ही. जरा बिटिया हमारा बक्सा यहाँ मंगवा दो."
'क्या करेंगी उसका ?'
"कुछ काम बाकी रह गया है, जरा उसे मंगवा दोगी."
"अभी मंगवाती हूं." थोडी देर में बक्सा उनके सामने था.
"मेरे सिरहाने से इसकी कुंजी रखी है जरा लेकर इसे खोलना तो फुल्लन."
फुल्लन ने बक्सा खोला . उस बक्से के खोले जाने की खबर सबको हो गयी थी . घर के सभी सदस्य वहां किसी न किसी बहाने पहुंच चुके थे.
"इसमें एक छोटी सी तिजोरी है .बिटिया जरा उसे खोलकर हमें थमा ." फुल्लन उनके कहे अनुसार काम करती जा रही थी.
बडकी दुलहिन कुछ समझीं, बोलीं,
"अभी इसकी क्या जरूरत है बुआ जी . इस तिजोरी को फुल्लन वापस बक्से में रख दो . यह सब कहीं भागा जा रहा है क्या ?"
"जरूरत है. यह काम तो करना ही है. फुल्लन तिजोरी खोल तो." सधी किंतु धीमी आवाज में उन्होंने कहा. बुआ जी अपने गहने एक एक करके अपने गहने जब सबको बाँट चुकीं तब अंत में अपने हाथ में पहनी चूडियों को देखते हुये बोलें,
"ये मेरे हाथ में चार चूडियाँ हैं , बाबू जी ने बनवाये थे तब से मेरे हाथ में ही पडें हैं . कभी निकाला नहीं . मरने के बाद दुलहिन इन्हें निकाल लेना और इन्हें बेचकर मेरे क्रिया कर्म में तुम लोग लगा देना."
इस बीच फुल्लन उठी और बक्से को जहाँ से उठाकर लायी थी वहीं ले जाकर रख आयी.
"आप भी बुआ जी , ये क्या कह रहीं है ! हम लोग अब इतने गये गुजरे भी नहीं !"
"अरे नहीं ऐसी कोई बात नहीं पर हम नहीं चाहते कि हम अपने सिर पर किसी का कर्जा चढाकर इस दुनियां से विदा लें." कहकर उन्होंने अपनी आँखें दुबारा बन्द कर लीं. फिर किसी ने कुछ नहीं कहा और बुआ जी की नींद में खलल न पडे इसलिये सब उस कमरे से बाहर निकल गये.
"लगता है अब बुआ जी की चला चली की बेला आ गयी." प्रभा बुदबुदाई ."
"भाई साहब कब तक आयेंगे दीदी ? जाने क्यों डर लग रहा है ."
"अब तक तो आ जाना चाहिये था ." कह्ते हुये सावित्री ने बाहरी दरवाजे की तरफ देखा.
तभी बाहरी दरवाजा खुलने की आवाज सुनायी दी. लगता है कमला प्रसाद आ गये थे. सत्तर पचहत्तर के तो होंगे ही परंतु बुआ जी उन्हें भइया कह कर ही बुलातीं हैं और उनकी धर्मपत्नी को दुलहिन. बुआ जी के बारे सुनकर वे सीधे उनके पास पहुंचे. वे आंख बन्द करके लेटीं थीं किंतु उनके पैरों की आहट सुनकर बोलीं,
"आ गये बचवा ?"
"कैसा लग रहा है आपको ?"
"ठीक ही है, बस जरा कमजोरी सी लग रही है, कल डाक्टर तो आये थे क्या कह गये थे?"
"कुछ खास नहीं. कह रहे थे ,थोडी कमजोरी है . खाने पीने में अब परहेज करने की कोई जरूरत नहीं . लम्बी बिमारी ने आपको कमजोर कर दियाहै . अब ठीक से खाना पीना करेंगी तब ठीक हो जायेंगी. "
कहकर वे कुछ अनमने हो उठे और बुआ जी से नजरें बचाकर खिडकी से बाहर की तरफ देखने लगे.
बुआ जी सब समझ रहीं थीं, उनका आखिरी वक्त करीब है.
"जाओ थोडा तुम भी आराम कर लो . थके हुये लग रहे हो." कहकर बुआ जी अपनी आंखें बन्द कर लीं. दो बातें कहने भर में ही वे काफी थक गयीं थीं. लम्बी बिमारी ने उन्हें कमजोर कर दिया है.
बडे कमरे में प्रभा- कमला प्रसाद के छोटे भाई की पत्नी- सावित्री के साथ धीरे धीरे बात कर रहीं थीं.
"जीजी लगता है बुआ जी अब नहीं बचेंगीं और यह बात वे भी समझ गयीं हैं . इसीलिये शायद अपने जेवर जेवरात उन्होंने हम सबमें बांट दिये."
"हाँ लगता तो कुछ ऐसा ही है."
"मर जायेंगी तब घर में कितनी शांति रहेगी . कोई सीख देने वाला नहीं रहेगा.जैसे हमें तो कुछ आता जाता ही नहीं." प्रभा मुंह बनाते हुये बोली.
"ऐसा नहीं कहते पुष्पा."
"क्यों? क्या उनके डर के कारण हमारी जान हर वख्त सूली पर अटकी सी नहीं लगती है ?"
"वे हमें अपना समझतीं हैं तभी तो कुछ कहतीं हैं !"
"आपकी सहनशक्ति बहुत ज्यादा है जीजी."कह कर प्रभा रसोंई की तरफ चली गयी. उसका छोटा बेटा टनटन उसे आवाज दे रहा था. थोडी देर बाद ही वह अपने हाथ में रसगुल्ले की कटोरी लिये बुआ जी के सामने पहुंच चुका था. वे सो रहीं हैं और बीमार हैं इसलिये उन्हें जगाना नहीं चाहिये , इतनी उसकी समझ कहाँ !
"उठो दादी उठो ." टनटन था.
बुआ जी की नींद से बोझल आँखें थोडी सी खुलीं.
"क्या बात है टुन्नु ?"
"दादी देखो मैं क्या खा रहा हूं ?"
"क्या है बेटा ?"
"रसगुल्ले, खायेंगी ? मम्मी ने क्षीर सागर से मंगायें हैं."
"तुम खाओ."
रसगुल्ले खाता हुआ टनटन वहां से चला गया. एक जगह उसके पैर टिकते भी तो नहीं..एक पल यहां तो दूसरे ही पल किसी और जगह.. बुआ जी ने दुबारा अपनी आँखें बन्द कर लीं किंतु अब नींद गायब हो चुकी थी. टनटन के हाथ की कटोरी और उसमें रस भरा सफेद रसगुल्ला बार बार उनकी नींद में खलल डाल रहा था. उन्होंने कभी रसगुल्ला नहीं खाया था. रसगुल्ला ही क्यों , कोई भी मिठाई जो चीनी डाल कर बनायी गयी हो नहीं खाया था. खाती कैसे ? कहतें हैं कि चीनी बनाते समय गन्ने के रस की सफाई हड्डियों के चूरे से होती है.
"कैसा स्वाद होता होगा इसका ? बहुत स्वादिष्ट होतें होंगे तभी तो टनटन को इतना पसन्द है. हर दिन खाता है." ओठों पर जबान फेरती हुयी वे उसका स्वाद महसूस करने की कोशिश कर रहीं थीं .
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. वे परेशान हो उठीं . कोई जान जान जायेगा तब क्या कहेगा ? अंत समय जब भगवान का नाम लेने का समय आया तब टनटन के हाथ की कटोरी याद आ रही है.
जबान ऐंठ रही है. लगता है जीवन भर की कठिन तपस्या बेकार होने को है . यह जनम तो बिगडा ही था अब शायद अगला जनम भी जायेगा. आँख के आगे से ये हट जाये इसके लिये भगवान से मनौती भी मान ली उन्होंने किंतु सब बेकार ! ग्रामोफोन के घिसे हुये रिकार्ड की तरह सुई एक ही जगह अटक गई थी तथा घडी के पेंडुलम की तरह रसगुल्ले आँख के आगे डोल रहे थे. पहाड सा लम्बा जीवन कठोर नियमों में बांधकर बिताया था उन्होंने . मांस, मछली तो दूर की चीज है उन्होंने तो लहसुन, प्याज, मसूर, गाजर, चीनी और भी न जाने क्या-क्या , कब का खाना छोड दिया था. लेकिन अब आज उन्हें न जाने क्या हो गया है ? नियम कायदा सब याद होने के बावजूद वे अपना ध्यान उधर से हटा नहीं पा रहीं हैं. सांसों की डोर जब टूटने को है तब टनटन के रसगुल्लों की याद सता रही है. हे भगवान ! अंत समय राम नाम नहीं रसगुल्ले याद आ रहें हैं . कभी कभी उनका आकार इतना बडा दिखने लग रहा है मानो पूरा ब्रह्माण्ड उसमें समा जाये. क्या करूं ?
"किससे और कैसे मांगूं ? हलक में आकर उसका नाम नहीं अटक जायेगा ? सब सुनकर मजाक नहीं उडायेंगे ? तब ?" बहुत देर तक वे इसी उधेड बुन में लगीं थीं कि अचानक उनके दिमाग में कुछ कौंधा और उनकी निस्तेज होतीं आँखों की चमक लौटने लगी-
" टनटन तो हर दिन रसगुल्ला खाता है और इस बीच वह एक बार यहां मेरे पास जरूर आता है. कल जब यहां आयेगा तब उससे जरूर मांगूंगी." वे अपने आपको सांत्वना देती हुयी सोने की असफल कोशिश करने लगीं. लेकिन नींद उनकी आँखों से कोसों दूर थी. रसगुल्ले तो जैसे उनकी जान पर बन आये थे.
बहुत देर से बुआ जी को देखा नहीं सोचकर शेखर उनके कमरे में गया लेकिन उन्हें सोता हुआ देखकर वापस लौट आया.
"बुआ जी ने कुछ खाया ?" वापस आकर शेखर ने प्रभा से पूछा.
"सुबह थोडा मुसम्मी का जूस लिया था उन्होंने ." प्रभा ने बताया.
"इस समय कुछ भी नहीं खाया ? चाय भी नहीं पी ?"
"नहीं, चाय मैं अभी बनाने ही जा रही थी."
"थोडा रुको . मैं उनसे पूछ कर आता हूं . शायद उनका कुछ खाने का मन हो ." कहते हुये शेखर एक बार फिर से उनके पास पहुंचा. बुआ जी के माथे पर धीरे से अपना हाथ रखकर पूछा ,
"बुआ जी क्या खायेंगी ? डाक्टर ने कहा है कि आपकी जो भी खाने की इच्छा हो खा सकतीं हैं."
शेखर के हाथों का स्पर्श अपने माथे पर महसूस करते हुये बुआ जी ने अपनी आँखें खोलने की कोशिश की. अभी अभी उन्होंने सुना कि शेखर ने उनसे खाने के लिये पूछा था. अचानक रसगुल्ले फिर से जीवित हो उठे. अपने सिर को झटका उन्होंने मानो रसगुल्लों को दिमाग से निकाल फेंकना चाहतीं हों .लेकिन हजार कोशिशों के बावजूद वे उन्हीं के बारे में सोच रहीं थीं,
"खाने के लिये रसगुल्ले मांगू क्या ? ठीक होगा ? शेखर क्या सोचेगा ? तब क्या करूं ? टनटन का इंतजार करूं ? लेकिन टनटन तो अब कल रसगुल्ले लेकर मेरे पास आयेगा . तब तक अगर मुझे कुछ हो गया तो ? मेरी जान तो जैसे उसी में अटकी है .उसे खाये बिना तो मरने के बाद भी मुक्ति नहीं मिल पायेगी. आत्मा मृत्युलोक में ही भटकती रहेगी. पूरा जीवन व्रत उपवास ही तो किया है , एक रसगुल्ला खा ही लूंगी तो क्या हो जायेगा ? सुधीजन कहतें हैं कि ईश्वर की मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं होता . तब क्या यह इच्छा भी ईश्वर ही नहीं हमारे मन में पैदा कियें हैं ? अब जो होना हो सो हो ." खुद को आश्वस्त किया बुआ जी ने और एक लम्बी सांस लेते हुये अपनी पूरी आँखें खोल दीं. सामने शेखर अभी भी खडा उनके कुछ कहने का इंतजार कर रहा था .
"कुछ खाने की इच्छा है बुआ जी ?"
"जो इच्छा हो वो खा सकतीं हूं क्या ?" थूक गटकते हुये उन्होंने पूछा. इस क्षण उन्हें लोक- परलोक, कुछ भी याद नहीं था.
"हां हां क्यों नहीं !सब कुछ खा सकतीं हैं .डाक्टर ने ही कहा है. आप कहिये न क्या खाना चाहतीं हैं ?" दरवाजे के पास खडी प्रभा की तरफ देखते हुये शेखर ने कहा.
"अभी थोडी देर पहले टनटन कुछ खा रहा था . कह रहा था कि उसकी मां ने क़्शीर सागर से मंगवाया है ." एक क्षण के लिये वे रुकीं लेकिन फिर लडखडाती जबान से उन्होंने कहा,
"बेटा, वही मंगवा दो, आज मेरा मन कर रहा है. उसे खाने का. पहले कभी नहीं खाया." दीवार की तरफ करवट करते हुये उन्होंने कहा और अपनी आंखें फिर से मूंद लीं . बडी मुश्किल हुयी थी बुआ जी को इतनी सी बात कहते में . खुलकर रसगुल्ले का नाम भी नहीं कह पायीं थीं . शेखर से ये बताने में कितनी तो लाज लग रही थी परंतु रसगुल्ला खाने की ललक का वे क्या करें ?
दरवाजे के पास खडी प्रभा ने अपने दिमाग पर जोर डाला . उसे याद आया , अभी थोडी देर पहले तो उसने टनटन को रोज की तरह रसगुल्ले दिये थे खाने के लिये और वह खाता हुआ बुआ जी के कमरे की तरफ भी आया था. साडी के पल्लू से अपना मुंह दबाकर उसने किसी तरह अपनी हंसी रोकी .
"क्या खा रहा था टनटन ? मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि बुआ जी किस चीज के लिये कह रहीं हैं ?" शेखर ने धीरे से प्रभा के नजदीक आकर पूछा .
"रसगुल्ला ! प्रभा ने जवाब दिया और अपनी हंसी दबाते हुये सावित्री के कमरे की तरफ भागी . कितनी मजेदार बात है , जीजी को बताना जरूरी है .
"श..श.. तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या ?" शेखर फुसफुसाया .किंतु उसकी बात सुनने के लिये प्रभा वहां कहां रुकी !
"बुआ जी की यह अंतिम इच्छा है ." आश्चर्यचकित शेखर की आँखें फैल गयीं . बुआ जी की तरफ उसने अविश्वास भरी नजरों से देखा , उनका चेहरा दीवार की तरफ था इसलिये उनकी सूरत नहीं देख पाया.
"अभी मंगवाता हूं ." कहकर शेखर वहां से चला गया.
उनकी आंखें बन्द थीं किंतु दिल बहुत तेजी से धडकने लगा था . अब वे उस पल का इंतजार कर रहीं थीं जब उनके सामने रसगुल्ले की कटोरी होगी और वे जिन्दगी में पहली बार उसका स्वाद ले पायेंगी. शेखर को गये देर हो गयी , क्या पता न लाये . उन्हें बेचैनी हो रही थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ . कुछ देर बाद ही अपने हाथ में रसगुल्ले की कटोरी लिये हुये शेखर उनसे कह रहा था.
"बुआ जी, उठिये ."
"कौन ?" बुआ जी का मुंह अब भी दीवार की तरफ ही था .
"मैं शेखर, लीजिये रसगुल्ला लाया हूं ."
"ले आये बेटा ?" मन ही मन उन्होंने शेखर को जी भर कर आशीर्वाद देते हुये कहा .
"हां बुआ जी ." शेखर ने सहारा देकर उन्हें उठाते हुये कहा.
बुआ जी की नजरें रसगुल्ले की कटोरी पर जाकर चिपक गयीं . अपने पापा से सटकर खडा टनटन कब से उनकी तरफ बडी उम्मीद से देखता रहा था कि दादी उसकी तरफ एक बार देखें तो वह भी उन रसगुल्लों में अपना हिस्सा लगवाये . उसे रसगुल्ले बहुत प्रिय हैं , कुछ ही मिनटों में बुआ जी तकिये का सहारा लेकर अपने बिस्तर पर बैठी शेखर के हाथ से रसगुल्ला खा रहीं थीं . टनटन ने रसगुल्लों की उम्मीद छोड दी थी और हार कर, दादी से नाराज होकर बाहर चला गया था तथा उसी कमरे की खिडकी और दरवाजे के बाहर से उस घर के बाकी सभी प्राणी मुंह बाये उन्हें रसगुल्ला खाते हुये देख रहे थे.
बुआ जी के चेहरे पर तृप्ति का जैसा भाव था वैसा पिछले कई वर्षों से उनमें से शायद किसी ने नहीं देखा था
पद्मा राय
तकलीफ तो हमें है पर यह तकलीफ तो एक दिन होनी ही थी. दुर्गा भवानी , भैया को खूब खुश रखें जिनके कारण यह तकलीफ आधी रह गयी है. खूब फलें फूलें वे , यही हमारी मनोकामना है. उन्होंने हमें कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वे हमारे बेटे नहीं हैं. किसे मालूम कि बेटा होने पर कोई सुख मिलता भी कि नहीं परंतु भैया ने अपने सगे बेटे से बढकर हमारी देखभाल की. आज सबेरे की ही तो बात है, वे देर तक हमारे पैताने बैठ कर हमारी हाल खबर पूछते रहे. बडी फिकर है उन्हें. हमारी बिमारी लम्बी खिंचती जा रही है इसीलिये भैया परेशान हैं. हमें मानते भी कितना हैं. कोई कुछ भी कहे परंतु इस एक मामले में तो हम हैं बडे भाग वाले. बिमारी अमारी तो आती रहती है. जी भी तो बहुत चुके !. अब ऊपर वाले का बुलावा लगता है आन पहुँचा है. हम तो उसी दिन समझ गये थे जिस दिन यूनिवर्सिटी से बडे डाक्टर आये थे. हमारी नाडी पकडते ही उनके माथे की शिकन गहराने लगीं थीं. आला लगाकर देखते समय उनका चेहरा कुछ ठीक नहीं लगा था.
हमसे पूछे भी,
"बुआ जी ठीक तो हैं न ?" न जाने क्यों उस समय हम कुछ बोल नहीं पाये थे, केवल मुस्कुराने की कोशिश करते रह गये थे.
डाक्टर साहब को बाहर तक छोडने बडके बचवा गये थे . लौटे तब उनका मुहँ लटका था. हम क्या समझते नहीं ? अब इतने नादान भी नहीं रहे . पहाड सी जिन्दगी यूँ ही नहीं बीत गयी. जाने कितनो ने इन्हीं आँखों के सामने जनम लिया और पता नहीं कितने परलोक सिधारे.
एक दिन मरना तो हमें है ही, कोई अमरित की घरिया पीकर तो आये नहीं थे कि अजर अमर हो जायेंगे. अब ये तो नहीं मालूम कि अमरित जैसी कोई चीज होती भी है या नहीं. गूलर के फूल की तरह इसे भी किसी ने नहीं देखा.
भगवान के घर से अगर हमार बुलावा आया है तब जाना तो पडेगा ही. उसकी इच्छा सर्वोपरि है यह तो सभी कहतें हैं, उस पर किस का वश है ! छठी के दिन विधाता अपनी कलम से सबका भाग लिखतें हैं. हमने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि हम फूटी किस्मत के साथ पैदा हुये. लेकिन हमारा भाग भी तो उसी ने लिखा होगा जो सबका भाग लिखता है और उस दिन जो लिख दिया होगा वही हम अब तक जीते आये. उसकी लीला वही जाने लेकिन अगर हमसे विधाता की कभी मुलाकात हुयी तब उससे एक बात हम जरूर पूछना चाहेंगे- कि आखिर उसने हमारा भाग ऐसा क्यों लिखा ? लोग कहतें हैं कि जैसी करनी वैसी भरनी. लेकिन तब तो हमारी उमर भी ऐसी नहीं थी कि हमने कोई पाप कर सकें. शायद अनजाने में कोई करम बिगड गयें हों ! या कि पूर्व जनम का फल मिला हो. अब ये सब कौन जाने ? कर्मों का हिसाब तो विधाता के पास ही होगा उसी से पूछेंगे. पीछे मुडकर देखतें हैं तब समझ में आता है कि कितना लम्बा जीवन पीछे छूट गया. लोग कहते थे कि अकेले कैसे बितायेगी इतना लम्बा-पहाड जैसा जीवन ? पर बीत ही गया.
ब्याह का मतलब तो हम जानते नहीं थे लेकिन जब ब्याह हमारा हुआ था उस दिन की कुछ बातें हमें अब भी याद है लेकिन न तो हमें अपनी माँग में सिंदूर पडने की याद है और न ही भांवरों के घूमने की. पंडित सात बचन पढकर सुनातें हैं और उसे अपने मन में गांठ बांधकर रखना होता है लेकिन उन्हें सुनने की जब हमारी बारे आयी तब हम वो भी नहीं सुन पाये थे. नऊनियां की गोदी में गुडमुडिया कर सोये पडे थे उस बखत हम. शादी का सब कारज खतम हुआ तो वही हमें उठायी थी. हमारे पैर में झुनझुनी चढ आयी थी. जो सिंधोरा हम अपने हाथ में पकड कर बैठे थे वो नींद में हमारे हाथ से छूट कर गोद में पहुँच गया था. कुम्भकरण जैसी नींद भी तो होती थी तब हमारी. जब उठ कर खडे हुये तो सिंधोरा गोद से उछल कर जमीन पर गिर गया था. सारी धरती सिंदूर से लाल हो गयी थी. तब सबसे डाँट पडेगी -सोचकर हम बहुत डर गये थे. आजी और अम्मा तो अपने देवता ,पितरों को मनाने में लगीं थीं. अपशकुन जो हुआ था. किसी भारी अनिष्ट की आशंका से बाबूजी का भी मुँह उतर गया था.
अपशकुन था कि नहीं, नही जानती लेकिन दूसरे दिन जब बारत वापस लौट रही थी तब जिसने एक दिन पहले उसी सिंधोरे के सिंदूर से हमारी मांग भर हमें अपनी ब्याहता बनाया था उसे ही लू लग गयी थी और उसके घर पहुँची थी उसकी मिट्टी . तब शादी ब्याह जेठ बैसाख के महीने में ही ज्यादा होते थे और उन दिनों सूरज तपता भी बहुत है. हमारा लगन भी जेठ के महीने में ही हुआ था. लू के थपेडे सूरज डूबने के बाद तक चलते रहते थे.
अब जब सोचतीं हूं तब समझ में नहीं आता कि उस समय की अपनी हरकतों पर हसें कि रोयें. हर साल तीज आती थी कई त्यौहार भी आते थे और तब आती थी चूडिहारिन. आलता और नहन्नी लेकर नऊनियाँ भी आती थी. भौजाई, चाची सभी रंग बिरंगी चूडीयाँ पहनते और फिर नऊनियां से अपने हाथ पैर के नाखून कटवाकर आलता से अपने पैर रंगवाते. पैरों पर नऊनियां रच रच कर चिरई बनाती. हम सबको यह सब करवाते हुये चुपचाप देखते और अपनी बारी का इंतजार करते लेकिन हमारी बारी जब अंत तक नहीं आती तब हम सारा घर सिर पर उठा लेते थे और अड जाते कि हमें भी भर हाथ चूडी पहननी है और पैरों में महावर लगवाना है.अम्मा हमें कुछ कहने के बजाय हमारे भाग को कोसतीं जातीं और अपने धोती के अचरा से अपने बह्ते आँसू पोंछती जातीं. लेकिन बडे होते जाने के साथ साथ हम सब कुछ अपने आप समझ गये थे. अपने मन को मारना हम सीख लिये थे. लेकिन हाँ भौजी की भरी कलाइयों की चूडियों के खनकने की आवाज सुनकर कलेजा टीसता जरूर था. मन मसोस कर हम अपनी कोठरी में घुस जाते थे. अपनी सूनी कलाइयों के देखते रहते और र्प्ते जाते. मन हल्का कर के , जब हम कोठरी से बाहर आते तब चेहरे पर ऐसा कुछ नहीं होता था जिससे किसी को हमारी हालत का भान भी हो पाये.हमारी डंडे जैसी कलाइयों को देखकर अम्मा जरूर अपने को रोक नहीं पातीं थीं-रोने लगतीं थीं. एक बार तो बाबूजी के सामने वो जिदिया गयीं. उसी समय बाबूजी ने हमारे लिये सोने की चार चूडियाँ बनवाईं थीं.. वही चूडियाँ हमारे हाथ अब भी हैं .
ससुराल क्या होता है ? वहाँ कैसे रहा जाता है, हमें इसका अनुभव नहीं. होता भी कैसे जब कभी ससुराल गये ही नहीं ! बाबूजी ने जाने ही कब दिया ! हम नैहर में ही अपनी सारी जिन्दगी बिता दिये पर रहे हम मलकिन बन कर ही. हमारी मर्जी हमेशा सबसे ऊपर रही. पहले भगवान को भोग लगता और तब हम खाने बैठते.
अपने ही घर का क्यों पूरे गांव में किसी के घर जच्चगी हो, मुंडन हो या कोई भी काज परोज हो बिना हमारी राय के पूरा नहीं होता. घर की तिजोरी की चाभी हमारे ही आंचल के खूंटे में हमेशा बन्धी होती. राज किया हमनें जीवन भर. सबने बडा मान दिया हमको. नैहर का सुख तो हम बहुत उठाये अब रही ससुराल की बात तो जो हमारे भाग में ही नहीं लिखा था वो भला हमें कैसे मिलता ? मजाल नहीं किसी की जो हमारी बात टाल जाय. कभी कभी हमें न जाने क्या हो जाता था ! हम पगलाने लगते थे. बिला वजह चिड-चिड करने लगते तब सारी दुनियां अपनी दुश्मन लगने लगती. जब तक हमारा दिमाग सही न हो जाता तब तक सब डरते रहते थे. न जाने कितनी बार सिर्फ हमारे कारण घर में बवाल हुआ. हम खूब जानतें हैं कि मन ही मन पुष्पा अरे वही शेखर की दुलहिन हमें जरूर कोसती होगी. हम भी तो अक्सर बिना कारण ही उस पर नाराज हो जाते थे. बडकी दुलहिन सावित्री के सामने हमें वो अच्छी ही नहीं लगती. कई बार तो उसकी सही बत भी हमें गलत लगती . इस मामले में गलती हमारी है यह हम अच्छी तरह जानतें हैं पर करें क्या ? अब तो चाहें भी तो उसे ठीक नहीं कर सकते.
बहुत नेम धरम से रहे हम. पुरोहित जो पूजा पाठ करने को कहते थे वो सब हमने की. कोई कह तो दे कि हमने कोई ऐसा काम किया हो जो हमारे जैसी भाग्यहीन औरतों के लिये वर्जित हो. अब मरती दांयीं भगवान झूठ न बुलवाये मन तो हमारा भी बहुत करता था सजने संवरने का , लेकिन हमने अपनी कोठरी में आयना तक कभी नहीं रखा. बनारस वाली चाची बहुत सुघड थीं. बडे घर की थीं. घर में सिंगारदान की कमी उन्हें खटकती. दिमाग भी खूब चलता था उनका. अपने कोठरी में उन्होंने एक बडा सा शीशा दीवार पर लटका दिया था.उसी से काम चला लेतीं थीं.
एक बार हमें मौका मिला जब हमने उनकी सुहाग पिटारी खुली देख ली थी. वे वहां नहीं थीं. हम बस चुपके से उसमें से एक टिकुली निकालकर अपने माथे के बीचोबीच चिपका लिये थे और फिर दिइवार पर टंगे शीशे में अपने आप को कुछ देर तक निहारते रहे थे. वो दिन हम आज तक नहीं भूल पाये.माथे की बिन्दी हटाने के बाद हम बहुत देर तक रोते रहे थे. अम्मा ने बहुत पूछा था लेकिन अपने मन की बात छिपाना हम तब तक सीख चुके थे.भगवान हमें नरक में भी जगह न दे जो हम झूठ बोल रहें हों. यह काम हमने बस वही एक बार किया था. लडकपन था शायद इसीलिये ऐसी गलती हमसे हो गयी थी अब उस गलती की चाहे जो सजा भगवान हमको दे.
अपनी जिम्मेवारी से हम कभी पीछे नहीं हटे. कब बडी-मुगौडी पडनी है, कितने आमों का अचार पडना है, किस पेड के आम का अचार पडना है, बगीचे से टपके हुये आमों का क्या करना है, कितना अमहर पडेगा और कितने का अमचूर बनवाना है, तालाब से सिघाडों को तुडवाया गया या नहीं, महुआ बिनने कोई गया या नहीं- सब फिकर हमें ही करनी होती. शादी व्याह के समय पितरों को निमंत्रित करना हो तब भी एक हम ही हैं जिसे पितरों के नाम याद हैं. हमारे बाद यह सब कौन करेगा ? इसकी चिंता लगी रह्ती है . यहां जो आता है वह अपनी मौत भी साथ में लिखवा कर लाता है . वापसी का दिन तय होता है. यही दस्तूर है., प्रकृति का यही नियम है और परम सत्य भी है, यह सब जानतें हैं . हम भी जानतें हैं. किसी के बहुत अपने के गुजर जाने पर यही कह कर उसे दिलासा भी देतें रहें हैं . इसके बावजूद न जाने क्यों हमारा मन यह मानने के लिये तैयार नहीं होता. अपनी गैरमौजूदगी में दुनियां के होने की कल्पना करना भी मुश्किल है. भला ऐसा भी कभी हुआ है ? किसी के न रहने से कहीं दुनियां रुकी है जो हमारे न होने पर रुक जायेगी ! अब तो देर सबेर जाना ही है. जाने की सोच कर कैसा कैसा तो हो रहा है .आँखों में जलन हो रही है.
"फुआ रो रहीं हैं !" कह्ती हुयी फुल्लन उनके आँखों के कोर पोंछ रही थी. फुल्लन पडोस में रहती है और अक्सर उंनका हाल समाचार लेने आ जाती है..
"नहीं तो ." धीमी आवाज में बुआ जी बोलीं. पता नहीं कब और कैसे उनकी आँखों के किनारे से पानी बह निकला था.
"बहुत तकलीफ हो रही है ?" बडकी दुलहिन पूछ रही थी.
"नहीं तकलीफ तो नहीं बस ऐसे ही. जरा बिटिया हमारा बक्सा यहाँ मंगवा दो."
'क्या करेंगी उसका ?'
"कुछ काम बाकी रह गया है, जरा उसे मंगवा दोगी."
"अभी मंगवाती हूं." थोडी देर में बक्सा उनके सामने था.
"मेरे सिरहाने से इसकी कुंजी रखी है जरा लेकर इसे खोलना तो फुल्लन."
फुल्लन ने बक्सा खोला . उस बक्से के खोले जाने की खबर सबको हो गयी थी . घर के सभी सदस्य वहां किसी न किसी बहाने पहुंच चुके थे.
"इसमें एक छोटी सी तिजोरी है .बिटिया जरा उसे खोलकर हमें थमा ." फुल्लन उनके कहे अनुसार काम करती जा रही थी.
बडकी दुलहिन कुछ समझीं, बोलीं,
"अभी इसकी क्या जरूरत है बुआ जी . इस तिजोरी को फुल्लन वापस बक्से में रख दो . यह सब कहीं भागा जा रहा है क्या ?"
"जरूरत है. यह काम तो करना ही है. फुल्लन तिजोरी खोल तो." सधी किंतु धीमी आवाज में उन्होंने कहा. बुआ जी अपने गहने एक एक करके अपने गहने जब सबको बाँट चुकीं तब अंत में अपने हाथ में पहनी चूडियों को देखते हुये बोलें,
"ये मेरे हाथ में चार चूडियाँ हैं , बाबू जी ने बनवाये थे तब से मेरे हाथ में ही पडें हैं . कभी निकाला नहीं . मरने के बाद दुलहिन इन्हें निकाल लेना और इन्हें बेचकर मेरे क्रिया कर्म में तुम लोग लगा देना."
इस बीच फुल्लन उठी और बक्से को जहाँ से उठाकर लायी थी वहीं ले जाकर रख आयी.
"आप भी बुआ जी , ये क्या कह रहीं है ! हम लोग अब इतने गये गुजरे भी नहीं !"
"अरे नहीं ऐसी कोई बात नहीं पर हम नहीं चाहते कि हम अपने सिर पर किसी का कर्जा चढाकर इस दुनियां से विदा लें." कहकर उन्होंने अपनी आँखें दुबारा बन्द कर लीं. फिर किसी ने कुछ नहीं कहा और बुआ जी की नींद में खलल न पडे इसलिये सब उस कमरे से बाहर निकल गये.
"लगता है अब बुआ जी की चला चली की बेला आ गयी." प्रभा बुदबुदाई ."
"भाई साहब कब तक आयेंगे दीदी ? जाने क्यों डर लग रहा है ."
"अब तक तो आ जाना चाहिये था ." कह्ते हुये सावित्री ने बाहरी दरवाजे की तरफ देखा.
तभी बाहरी दरवाजा खुलने की आवाज सुनायी दी. लगता है कमला प्रसाद आ गये थे. सत्तर पचहत्तर के तो होंगे ही परंतु बुआ जी उन्हें भइया कह कर ही बुलातीं हैं और उनकी धर्मपत्नी को दुलहिन. बुआ जी के बारे सुनकर वे सीधे उनके पास पहुंचे. वे आंख बन्द करके लेटीं थीं किंतु उनके पैरों की आहट सुनकर बोलीं,
"आ गये बचवा ?"
"कैसा लग रहा है आपको ?"
"ठीक ही है, बस जरा कमजोरी सी लग रही है, कल डाक्टर तो आये थे क्या कह गये थे?"
"कुछ खास नहीं. कह रहे थे ,थोडी कमजोरी है . खाने पीने में अब परहेज करने की कोई जरूरत नहीं . लम्बी बिमारी ने आपको कमजोर कर दियाहै . अब ठीक से खाना पीना करेंगी तब ठीक हो जायेंगी. "
कहकर वे कुछ अनमने हो उठे और बुआ जी से नजरें बचाकर खिडकी से बाहर की तरफ देखने लगे.
बुआ जी सब समझ रहीं थीं, उनका आखिरी वक्त करीब है.
"जाओ थोडा तुम भी आराम कर लो . थके हुये लग रहे हो." कहकर बुआ जी अपनी आंखें बन्द कर लीं. दो बातें कहने भर में ही वे काफी थक गयीं थीं. लम्बी बिमारी ने उन्हें कमजोर कर दिया है.
बडे कमरे में प्रभा- कमला प्रसाद के छोटे भाई की पत्नी- सावित्री के साथ धीरे धीरे बात कर रहीं थीं.
"जीजी लगता है बुआ जी अब नहीं बचेंगीं और यह बात वे भी समझ गयीं हैं . इसीलिये शायद अपने जेवर जेवरात उन्होंने हम सबमें बांट दिये."
"हाँ लगता तो कुछ ऐसा ही है."
"मर जायेंगी तब घर में कितनी शांति रहेगी . कोई सीख देने वाला नहीं रहेगा.जैसे हमें तो कुछ आता जाता ही नहीं." प्रभा मुंह बनाते हुये बोली.
"ऐसा नहीं कहते पुष्पा."
"क्यों? क्या उनके डर के कारण हमारी जान हर वख्त सूली पर अटकी सी नहीं लगती है ?"
"वे हमें अपना समझतीं हैं तभी तो कुछ कहतीं हैं !"
"आपकी सहनशक्ति बहुत ज्यादा है जीजी."कह कर प्रभा रसोंई की तरफ चली गयी. उसका छोटा बेटा टनटन उसे आवाज दे रहा था. थोडी देर बाद ही वह अपने हाथ में रसगुल्ले की कटोरी लिये बुआ जी के सामने पहुंच चुका था. वे सो रहीं हैं और बीमार हैं इसलिये उन्हें जगाना नहीं चाहिये , इतनी उसकी समझ कहाँ !
"उठो दादी उठो ." टनटन था.
बुआ जी की नींद से बोझल आँखें थोडी सी खुलीं.
"क्या बात है टुन्नु ?"
"दादी देखो मैं क्या खा रहा हूं ?"
"क्या है बेटा ?"
"रसगुल्ले, खायेंगी ? मम्मी ने क्षीर सागर से मंगायें हैं."
"तुम खाओ."
रसगुल्ले खाता हुआ टनटन वहां से चला गया. एक जगह उसके पैर टिकते भी तो नहीं..एक पल यहां तो दूसरे ही पल किसी और जगह.. बुआ जी ने दुबारा अपनी आँखें बन्द कर लीं किंतु अब नींद गायब हो चुकी थी. टनटन के हाथ की कटोरी और उसमें रस भरा सफेद रसगुल्ला बार बार उनकी नींद में खलल डाल रहा था. उन्होंने कभी रसगुल्ला नहीं खाया था. रसगुल्ला ही क्यों , कोई भी मिठाई जो चीनी डाल कर बनायी गयी हो नहीं खाया था. खाती कैसे ? कहतें हैं कि चीनी बनाते समय गन्ने के रस की सफाई हड्डियों के चूरे से होती है.
"कैसा स्वाद होता होगा इसका ? बहुत स्वादिष्ट होतें होंगे तभी तो टनटन को इतना पसन्द है. हर दिन खाता है." ओठों पर जबान फेरती हुयी वे उसका स्वाद महसूस करने की कोशिश कर रहीं थीं .
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. वे परेशान हो उठीं . कोई जान जान जायेगा तब क्या कहेगा ? अंत समय जब भगवान का नाम लेने का समय आया तब टनटन के हाथ की कटोरी याद आ रही है.
जबान ऐंठ रही है. लगता है जीवन भर की कठिन तपस्या बेकार होने को है . यह जनम तो बिगडा ही था अब शायद अगला जनम भी जायेगा. आँख के आगे से ये हट जाये इसके लिये भगवान से मनौती भी मान ली उन्होंने किंतु सब बेकार ! ग्रामोफोन के घिसे हुये रिकार्ड की तरह सुई एक ही जगह अटक गई थी तथा घडी के पेंडुलम की तरह रसगुल्ले आँख के आगे डोल रहे थे. पहाड सा लम्बा जीवन कठोर नियमों में बांधकर बिताया था उन्होंने . मांस, मछली तो दूर की चीज है उन्होंने तो लहसुन, प्याज, मसूर, गाजर, चीनी और भी न जाने क्या-क्या , कब का खाना छोड दिया था. लेकिन अब आज उन्हें न जाने क्या हो गया है ? नियम कायदा सब याद होने के बावजूद वे अपना ध्यान उधर से हटा नहीं पा रहीं हैं. सांसों की डोर जब टूटने को है तब टनटन के रसगुल्लों की याद सता रही है. हे भगवान ! अंत समय राम नाम नहीं रसगुल्ले याद आ रहें हैं . कभी कभी उनका आकार इतना बडा दिखने लग रहा है मानो पूरा ब्रह्माण्ड उसमें समा जाये. क्या करूं ?
"किससे और कैसे मांगूं ? हलक में आकर उसका नाम नहीं अटक जायेगा ? सब सुनकर मजाक नहीं उडायेंगे ? तब ?" बहुत देर तक वे इसी उधेड बुन में लगीं थीं कि अचानक उनके दिमाग में कुछ कौंधा और उनकी निस्तेज होतीं आँखों की चमक लौटने लगी-
" टनटन तो हर दिन रसगुल्ला खाता है और इस बीच वह एक बार यहां मेरे पास जरूर आता है. कल जब यहां आयेगा तब उससे जरूर मांगूंगी." वे अपने आपको सांत्वना देती हुयी सोने की असफल कोशिश करने लगीं. लेकिन नींद उनकी आँखों से कोसों दूर थी. रसगुल्ले तो जैसे उनकी जान पर बन आये थे.
बहुत देर से बुआ जी को देखा नहीं सोचकर शेखर उनके कमरे में गया लेकिन उन्हें सोता हुआ देखकर वापस लौट आया.
"बुआ जी ने कुछ खाया ?" वापस आकर शेखर ने प्रभा से पूछा.
"सुबह थोडा मुसम्मी का जूस लिया था उन्होंने ." प्रभा ने बताया.
"इस समय कुछ भी नहीं खाया ? चाय भी नहीं पी ?"
"नहीं, चाय मैं अभी बनाने ही जा रही थी."
"थोडा रुको . मैं उनसे पूछ कर आता हूं . शायद उनका कुछ खाने का मन हो ." कहते हुये शेखर एक बार फिर से उनके पास पहुंचा. बुआ जी के माथे पर धीरे से अपना हाथ रखकर पूछा ,
"बुआ जी क्या खायेंगी ? डाक्टर ने कहा है कि आपकी जो भी खाने की इच्छा हो खा सकतीं हैं."
शेखर के हाथों का स्पर्श अपने माथे पर महसूस करते हुये बुआ जी ने अपनी आँखें खोलने की कोशिश की. अभी अभी उन्होंने सुना कि शेखर ने उनसे खाने के लिये पूछा था. अचानक रसगुल्ले फिर से जीवित हो उठे. अपने सिर को झटका उन्होंने मानो रसगुल्लों को दिमाग से निकाल फेंकना चाहतीं हों .लेकिन हजार कोशिशों के बावजूद वे उन्हीं के बारे में सोच रहीं थीं,
"खाने के लिये रसगुल्ले मांगू क्या ? ठीक होगा ? शेखर क्या सोचेगा ? तब क्या करूं ? टनटन का इंतजार करूं ? लेकिन टनटन तो अब कल रसगुल्ले लेकर मेरे पास आयेगा . तब तक अगर मुझे कुछ हो गया तो ? मेरी जान तो जैसे उसी में अटकी है .उसे खाये बिना तो मरने के बाद भी मुक्ति नहीं मिल पायेगी. आत्मा मृत्युलोक में ही भटकती रहेगी. पूरा जीवन व्रत उपवास ही तो किया है , एक रसगुल्ला खा ही लूंगी तो क्या हो जायेगा ? सुधीजन कहतें हैं कि ईश्वर की मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं होता . तब क्या यह इच्छा भी ईश्वर ही नहीं हमारे मन में पैदा कियें हैं ? अब जो होना हो सो हो ." खुद को आश्वस्त किया बुआ जी ने और एक लम्बी सांस लेते हुये अपनी पूरी आँखें खोल दीं. सामने शेखर अभी भी खडा उनके कुछ कहने का इंतजार कर रहा था .
"कुछ खाने की इच्छा है बुआ जी ?"
"जो इच्छा हो वो खा सकतीं हूं क्या ?" थूक गटकते हुये उन्होंने पूछा. इस क्षण उन्हें लोक- परलोक, कुछ भी याद नहीं था.
"हां हां क्यों नहीं !सब कुछ खा सकतीं हैं .डाक्टर ने ही कहा है. आप कहिये न क्या खाना चाहतीं हैं ?" दरवाजे के पास खडी प्रभा की तरफ देखते हुये शेखर ने कहा.
"अभी थोडी देर पहले टनटन कुछ खा रहा था . कह रहा था कि उसकी मां ने क़्शीर सागर से मंगवाया है ." एक क्षण के लिये वे रुकीं लेकिन फिर लडखडाती जबान से उन्होंने कहा,
"बेटा, वही मंगवा दो, आज मेरा मन कर रहा है. उसे खाने का. पहले कभी नहीं खाया." दीवार की तरफ करवट करते हुये उन्होंने कहा और अपनी आंखें फिर से मूंद लीं . बडी मुश्किल हुयी थी बुआ जी को इतनी सी बात कहते में . खुलकर रसगुल्ले का नाम भी नहीं कह पायीं थीं . शेखर से ये बताने में कितनी तो लाज लग रही थी परंतु रसगुल्ला खाने की ललक का वे क्या करें ?
दरवाजे के पास खडी प्रभा ने अपने दिमाग पर जोर डाला . उसे याद आया , अभी थोडी देर पहले तो उसने टनटन को रोज की तरह रसगुल्ले दिये थे खाने के लिये और वह खाता हुआ बुआ जी के कमरे की तरफ भी आया था. साडी के पल्लू से अपना मुंह दबाकर उसने किसी तरह अपनी हंसी रोकी .
"क्या खा रहा था टनटन ? मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि बुआ जी किस चीज के लिये कह रहीं हैं ?" शेखर ने धीरे से प्रभा के नजदीक आकर पूछा .
"रसगुल्ला ! प्रभा ने जवाब दिया और अपनी हंसी दबाते हुये सावित्री के कमरे की तरफ भागी . कितनी मजेदार बात है , जीजी को बताना जरूरी है .
"श..श.. तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या ?" शेखर फुसफुसाया .किंतु उसकी बात सुनने के लिये प्रभा वहां कहां रुकी !
"बुआ जी की यह अंतिम इच्छा है ." आश्चर्यचकित शेखर की आँखें फैल गयीं . बुआ जी की तरफ उसने अविश्वास भरी नजरों से देखा , उनका चेहरा दीवार की तरफ था इसलिये उनकी सूरत नहीं देख पाया.
"अभी मंगवाता हूं ." कहकर शेखर वहां से चला गया.
उनकी आंखें बन्द थीं किंतु दिल बहुत तेजी से धडकने लगा था . अब वे उस पल का इंतजार कर रहीं थीं जब उनके सामने रसगुल्ले की कटोरी होगी और वे जिन्दगी में पहली बार उसका स्वाद ले पायेंगी. शेखर को गये देर हो गयी , क्या पता न लाये . उन्हें बेचैनी हो रही थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ . कुछ देर बाद ही अपने हाथ में रसगुल्ले की कटोरी लिये हुये शेखर उनसे कह रहा था.
"बुआ जी, उठिये ."
"कौन ?" बुआ जी का मुंह अब भी दीवार की तरफ ही था .
"मैं शेखर, लीजिये रसगुल्ला लाया हूं ."
"ले आये बेटा ?" मन ही मन उन्होंने शेखर को जी भर कर आशीर्वाद देते हुये कहा .
"हां बुआ जी ." शेखर ने सहारा देकर उन्हें उठाते हुये कहा.
बुआ जी की नजरें रसगुल्ले की कटोरी पर जाकर चिपक गयीं . अपने पापा से सटकर खडा टनटन कब से उनकी तरफ बडी उम्मीद से देखता रहा था कि दादी उसकी तरफ एक बार देखें तो वह भी उन रसगुल्लों में अपना हिस्सा लगवाये . उसे रसगुल्ले बहुत प्रिय हैं , कुछ ही मिनटों में बुआ जी तकिये का सहारा लेकर अपने बिस्तर पर बैठी शेखर के हाथ से रसगुल्ला खा रहीं थीं . टनटन ने रसगुल्लों की उम्मीद छोड दी थी और हार कर, दादी से नाराज होकर बाहर चला गया था तथा उसी कमरे की खिडकी और दरवाजे के बाहर से उस घर के बाकी सभी प्राणी मुंह बाये उन्हें रसगुल्ला खाते हुये देख रहे थे.
बुआ जी के चेहरे पर तृप्ति का जैसा भाव था वैसा पिछले कई वर्षों से उनमें से शायद किसी ने नहीं देखा था
पद्मा राय
A Coder’s cocktail
What happens if a young man of 25 is posted in a company to an alien land wherein forced by circumstances and unappetizing choices he plays his age and does all the youthful mistakes, and then one day he is left stranded in an alternate world of competing professionals?
Set in recession times, on the backdrop of the most respected IT company in India, INFOSYS, A Coder’s Cocktail promises to take you on an epic tale of friendship and betrayal, of love and office politics traversing on its way the gloomy shades of today’s youth to the age old struggles of seeking to answer the dark side of being a man. When the circumstances play truth and dare with the morality of my hero SJ, when his best friends are fired from the company courtesy recession...
Coder’s Cocktail takes him on a journey where he rediscovers all that was hidden under the bed sheet of his bachelor wants and sleeping conscience; he discovers his true self!
Compiled into 13 chapters and 240 pages, this book offers her readers everything, all that is not to be done in IT corporate life!!
shashwat rai
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