सोमवार, 22 सितंबर 2008

हमेशा नम्बर वन रहने वाली रेखा इस बार भी अव्वल रही

रेखा (2007 फरवरी)

सात सितम्बर को अचानक बहुत दिनों बाद रेखा की याद आयी. उसका फोन नम्बर मेरे पास नहीं था. मैंने सोचा इंटरनेट पर शायद मिल जाय. इसलिये मैं गूगल सर्च इंजिन पर उसे तलाशने पहुँची. मुझे रेखा का ई मेल आई डी मिल भी गया. मैने उसे एक ई मेल किया भी और फिर शुरू हुआ उसके जवाब का इंतजार . उसका जवाब तो नहीं मिला किंतु उसके बारे में एक ऐसी खबर मिली जिसके बारे में मैंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी.
दोपहर में विभूति का फोन आया कि 10 सितम्बर के दिन जयपुर से रेखा बहुत दूर चली गयी, इतनी दूर कि अब उससे कभी बात नहीं हो पायेगी. समझ में नही आया कि ऐसा कैसे हो गया ? अभी तो उसे बहुत कुछ करना था. न जाने कितने काम अधूरे छोड गयी.
बनस्थली में वह थी ही नहीं तो मेरा मैसेज कैसे पढती ! इन दिनों. ज्योति विद्यापीठ में रेखा वाइस चांसलर के पद की शोभा बढा रही थी. इनाग्रल सेशन की स्पीच देते देते वह हमेशा के लिये खामोश हो गयी. असाधारण प्रतिभा वाली रेखा दुनियां से गयी भी असाधारण तरीके से . कितनी बडी क्षति हुयी है इसका हिसाब लगाना नामुमकिन है
रेखा (1974 मार्च)


(रेखा और मैं बनस्थली विद्यापीठ मैं एक साथ पढते थे. मेरी शिक्षा बनस्थली में ही हुयी है.मैं बोर्डिंग में थी और वह डे स्कॉलर . बी•एस•सी• तक हमारा साथ रहा किंतु एम•एस•सी• मैंने बनस्थली से इनार्गनिक केमिस्ट्री में किया और रेखा ने न्युक्लियर फिजिक्स में जयपुर यूनिवर्सिटी को ज्वॉयन किया. मेरी बहुत प्यारी दोस्त रेखा अब इस दुनियां में मौजूद नहीं है . उसका अकादमिक रिकार्ड अद्वितीय है. वह हायर सैकेंडरी, बी•एस•सी• एवं एम•एस•सी• सभी मे पूरे राजस्थान में पहले नम्बर पर रही. उसके बाद कुछ वर्षों तक भाभा ऐटोमिक रिसर्च सेंटर में साइंटिस्ट रही . तत्पश्चात बनस्थली में कई वर्षों तक कम्प्यूटर साइंस विभाग में प्रोफेसर और हेड रही . पिछले दिनों वह वहां डीन थी . अभी तीन महीने पहले ही उसने बनस्थली से इस्तीफा देकर ज्योति विद्यापीठ में वाइस चांसलर के पद पर ज्वॉयन किया था और उस यूनिवर्सिटी के इनॉग्रल डे पर स्पीच देते हुये इस दुनियां से विदा ले ली. उसे बडी जल्दी रहती थी . सबसे पहले सभी काम करने की उसकी पुरानी आदत थी . इस बार भी वह हम सबसे बाजी मार गयी. हमेशा नम्बर वन रहने वाली रेखा इस बार भी अव्वल रही. इस बार भी उसने हम सबको बहुत पीछे छोड दिया.
गूगल सर्च इंजिन पर उसके बारे में तमाम जानकरियां उपलब्ध हैं.)

पद्मा

शनिवार, 20 सितंबर 2008

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

हाशिमपुरा/ विभूति नारायण राय (आई•पी•एस•)


जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होतें हैं जो जिन्दगी भर आपका पीछा नहीं छोडतें . एक दु:स्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलतें हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सर पर सवार रहतें हैं. हाशिमपुरा भी मेरे लिये कुछ ऐसा ही अनुभव है. 22/23 मई सन 1987 की आधी रात दिल्ली गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गाँव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना- सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है.
उस रात द्स-साढे दस बजे हापुड से वापस लौटा था. साथ जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी थे जिन्हें उनके बँगले पर उतारता हुआ मैं पुलिस अधीक्षक निवास पर पहुँचा. निवास के गेट पर जैसे ही कार की हेडलाइट्स पडी मुझे घबराया हुआ और उडी रंगत वाला चेहरा लिये सब इंसपेक्टर वी•बी•सिंह दिखायी दिया जो उस समय लिंक रोड थाने का इंचार्ज था. मेरा अनुभव बता रहा था कि उसके इलाके में कुछ गंभीर घटा है. मैंने ड्राइवर को कार रोकने का इशारा किया और नीचे उतर गया.
वी•बी•सिंह इतना घबराया हुआ था कि उसके लिये सुसंगत तरीके से कुछ भी बता पाना संभव नहीं लग रहा था. हकलाते हुये और असंबद्ध टुकडों में उसने जो कुछ मुझे बताया वह स्तब्ध कर देने के लिये काफी था. मेरी समझ में आ गया कि उसके थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पी•ए•सी• ने कुछ मुसलमानों को मार दिया है. क्यों मारा? कितने लोगों को मारा ? कहाँ से लाकर मारा ? स्पष्ट नहीं था. कई बार उसे अपने तथ्यों को दुहराने के लिये कह कर मैंने पूरे घटनाक्रम को टुकडे-टुकडे जोडते हुये एक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की. जो चित्र बना उसके अनुसार वी•बी•सिंह थाने में अपने कार्यालय में बैठा हुआ था कि लगभग 9 बजे उसे मकनपुर की तरफ से फायरिंग की आवाज सुनायी दी. उसे और थाने में मौजूद दूसरे पुलिस कर्मियों को लगा कि गाँव में डकैती पड रही है. आज तो मकनपुर गाँव का नाम सिर्फ रेवेन्यू रिकार्ड्स में है . आज गगनचुम्बी आवासीय इमारतों, मॉल और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों वाले मकनपुर में 1987 में दूर-दूर तक बंजर जमीन पसरी हुयी थी. इसी बंजर जमीन के बीच की एक चक रोड पर वी•बी•सिंह की मोटर सायकिल दौडी. उसके पीछे थाने का एक दारोगा और एक अन्य सिपाही बैठे थे. वे चक रोड पर सौ गज भी नहीं पहुँचे थे कि सामने से तेज रफ्तार से एक ट्रक आता हुआ दिखायी दिया. अगर उन्होंने समय रहते हुये अपनी मोटर सायकिल चक रोड से नीचे न उतार दी होती तो ट्रक उन्हें कुचल देता. अपना संतुलन संभालते-संभालते जितना कुछ उन्होंने देखा उसके अनुसार ट्रक पीले रंग का था और उस पर पीछे 41 लिखा हुआ था, पिछली सीटों पर खाकी कपडे पहने कुछ लोग बैठे हुये दिखे.किसी पुलिस कर्मी के लिये यह समझना मुश्किल नहीं था कि पी•ए•सी• की 41 वीं बटालियन का ट्रक कुछ पी•ए•सी• कर्मियों को लेकर गुजरा था. पर इससे गुत्थी और उलझ गयी. इस समय मकनपुर गाँव में पी•ए•सी• का ट्रक क्यों आ रहा था ? गोलियों की आवाज के पीछे क्या रहस्य था ? वी•बी•सिंह ने मोटर सायकिल वापस चक रोड पर डाली और गाँव की तरफ बढा. मुश्किल से एक किलोमीटर दूर जो नजारा उसने और उसके साथियों ने देखा वह रोंगटे खडा कर देने वाला था मकनपुर गाँव की आबादी से पहले चक रोड एक नहर को काटती थी. नहर आगे जाकर दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर जाती थी. जहाँ चक रोड और नहर एक दूसरे को काटते थे वहाँ पुलिया थी. पुलिया पर पहुँचते- पहुँचते वी•बी•सिंह के मोटर सायकिल की हेडलाइट जब नहर के किनारे उस सरकंडे की झाडियों पर पडी तो उन्हें गोलियों की आवाज का रहस्य समझ में आया. चारों तरफ खून के धब्बे बिखरे पडे थे. नहर की पटरी, झाडियों और पानी के अन्दर ताजा जख्मों वाले शव पडे थे. वी•बी•सिंह और उसके साथियों ने घटनास्थल का मुलाहिजा कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि वहाँ क्या हुआ होगा ? उनकी समझ में सिर्फ इतना आया कि वहाँ पडे शवों और रास्ते में दिखे पी•ए•सी• की ट्रक में कोई संबन्ध जरूर है. साथ के सिपाही को घटनास्थल पर निगरानी के लिये छोडते हुये वी•बी•सिंह अपने साथी दारोगा के साथ वापस मुख्य सडक की तरफ लौटा. थाने से थोडी गाजियाबाद-दिल्ली मार्ग पर पी•ए•सी• की 41वीं बटालियन का मुख्यालय था. दोनो सीधे वहीं पहुँचे. बटालियन का मुख्य द्वार बंद था .काफी देर बहस करने के बावजूद भी संतरी ने उन्हें अंदर जाने की इजाजत नहीं दी. तब वी•बी•सिंह ने जिला मुख्यालय आकर मुझे बताने का फैसला किया.जितना कुछ आगे टुकडों टुकडों में बयान किये गये वृतांत से मैं समझ सका उससे स्पष्ट हो ही गया था कि जो घटा है वह बहुत ही भयानक है और दूसरे दिन गाजियाबाद जल सकता था. पिछले कई हफ्तों से बगल के जिले मेरठ में सांप्रादायिक दंगे चल रहे थे और उसकी लपटें गाजियाबाद पहुँच रहीं थीं.मैंने सबसे पहले जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी को फोन किया. वे सोने ही जा रहे थे. उन्हें जगने के लिये कह कर मैंने जिला मुख्यालय पर मौजूद अपने एडिशनल एस•पी•, कुछ डिप्टी व्स•पी• और मजिस्ट्रेटों को जगाया और तैयार होने के लिये कहा. अगले चाली-पैंतालीस मिनटों में सात-आठ वाहनों में लदे-फंदे हम मकनपुर गाँव की तरफ लपके. नहर की पुलिया से थोडा पहले हमारी गाडियाँ खडीं हो गयीं. नहर के दूसरी तरफ थोडी दूर पर ही मकनपुर गाँव की आबादी थी लेकिन तब तक कोई गाँव वाला वहाँ नहीं पहुँचा था. लगता था कि दहशत ने उन्हें घरों में दुबकने को मजबूर कर दिया था. थाना लिंक रोड के कुछ पुलिस कर्मी जरूर वहाँ पहुँच गये थे. उनकी टार्चों की रोशनी के कमजोर वृत्त नहर के किनारे उगी घनी झाडियों पर पड रहे थे पर उअनसे साफ देख पाना मुश्किल था. मैंने गाडियों के ड्राइवरों से नहर की तरफ रुख करके अपने हेडलाइट्स ऑन करने के लिये कहा. लगभग सौ गज चौडा इलाका प्रकाश से नहा उठा. उस रोशनी में मैंने जो कुछ देखा वह वही दु;स्वप्न था जिसका जिक्र मैंने शुरु में किया है.
गाडियों की हेडलाइट्स की रोशनियाँ झाडियों से टकरा कर टूट टूट जा रहीं थीं इसलिये टार्चोंं का भी इस्तेमाल करना पड रहा था. झाडियों और नहरों के किनारे खून के थक्के अभी पूरी तरह से जमे नहीं थे , उनमें से खून रिस रहा था. पटरी पर बेतरतीबी से शव पडे थे- कुछ पूरे झाडियों में फंसे तो कुछ आधे तिहाई पानी में डूबे. शवों की गिनती करने या निकालने से ज्यादा जरूरी मुझे इस बात की पडताल करना लगा कि उनमें से कोई जीवित तो नहीं है. सबने अलग-अलग दिशाओं में टार्चों की रोशनियाँ फेंक फेंक कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि कोई जीवित है या नहीं. बीच बीच में हम हांक भी लगाते रहे कि यदि कोई जीवित हो तो उत्तर दे. हम दुश्मन नहीं दोस्त हैं. उसे अस्पताल ले जायेंगे. पर कोई जवाब नहीं मिला. निराश होकर हममें से कुछ पुलिया पर बैठ गये.मैंने और जिलाधिकारी ने तय किया कि समय खोने से कोई लाभ नहीं है. हमें दूसरे दिन की रणनीति बनानी थी इसलिये जूनियर अधिकारियों को शवों को निकालने और जरूरी लिखा-पढी करने के लिये कह कर हम लिंक रोड थाने के लिये मुडे ही थे कि नहर की तरफ से खाँसने की आवाज सुनायी दी. सभी ठिठक कर रुक गये. मैं वापस नहर की तरफ लपका. फिर मौन छा गया. स्पष्ट था कि कोई जीवित था लेकिन उसे यकीन नहीं था कि जो लोग उसे तलाश रहें हैं वे मित्र हैं. हमने फिर आवाजें लगानी शुरू कीं, टार्च की रोशनी अलग-अलग शरीरों पर डालीं और अंत में हरकत करते हुये एक शरेर पर हमारी नजरें टिक गयीं. कोई दोनो हाथों से झाडियाँ पकडे आधा शरीर नहर में डुबोये इस तरह पडा था कि बिना ध्यान से देखे यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वह जीवित है या मृत ! दहशत से बुरी तरह वह काँप रहा और काफी देर तक आश्वस्त करने के बाद यह विश्वास करने वाला कि हम उसे मारने नहीं बचाने वालें हैं, जो व्यक्ति अगले कुछ घंटे हमे इस लोमहर्षक घटना की जानकारी देने वाला था, उसका नाम बाबूदीन था.गोली उसे छूते हुये निकल गयी थी.भय से वह नि;श्चेष्ट होकर वह झाडियों में गिरा तो भाग दौड में उसके हत्यारों को यह जाँचने का मौका नहीं मिला कि वह जीवित है या मर गया. दम साधे वह आधा झाडियों और आधा पानी में पडा रहा और इस तरह मौत के मुँह से वापस लौट आया. उसे कोई खास चोट नहीं आयी थी और नहर से चलकर वह गाडियों तक आया. बीच में पुलिया पर बैठकर थोडी देर सुस्ताया भी. लगभग 21 वर्षों बाद जब हाशिमपुर पर एक किताब लिखने के लिये सामग्री इकट्ठी करते समय मेरी उससे मुलाकात हुयी जहाँ पी•ए•सी• उसे उठा कर ले गयी थी तो उसे याद था कि पुलिया पर बैठे उसे किसी सिपाही से माँग कर बीडी दी थी. बाबूदीन ने जो बताया उसके अनुसार उस दिन अपरान्ह तलाशियों के दौरान पी•ए•सी• के एक ट्रक पर बैठाकर चालीस पचास लोगों को ले जाया गया तो उन्होंने समझा कि उन्हें गिरफ्तार कर किसी थाने या जेल ले जाया जा रहा है. मकनपुर पहुँचने के लगभग पौन घण्टा पहले एक नहर पर ट्रक को मुख्य सडक से उतारकर नहर की पटरी पर कुछ दूर ले जाकर रोक दिया गया. पी•ए•सी• के जवान कूद कर नीचे उतर गये और उन्होंने ट्रक पर सवार लोगों को नीचे उतरने का आदेश दिया. अभी आधे लोग ही उतरे थे कि पी•ए•सी• वालों ने उनपर फायर करना शुरु कर दिया. गोलियाँ चलते ही ऊपर वाले गाडी में ही दुबक गये. बाबू दीन भी उनमें से एक था.बाहर उतरे लोगों का क्या हुआ वह सिर्फ अनुमान ही लगा सकता था. शायद फायरिंग की आवाज आस पास के गाँवों में पहुँची जिसके कारण आस पास से शोर सुनायी देने लगा और पी•ए•सी• वाले वापस ट्रक में चढ गये. ट्रक तेजी से बैक हुआ और वापस गाजियाबाद की तरफ भागा. यहाँ वह मकनपुर वाली नहर पर आया और एक बार फिर सबसे उतरने के लिये कहा गया. इस बार डर कर ऊपर दुबके लोगों ने उतरने से इंकार कर दिया तो उन्हें खींच खींच कर नीचे घसीटा गया. जो नीचे आ गये उन्हें पहले की तरह गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया और जो डर कर ऊपर दुबके रहे उन्हें ऊपर ही गोली मारकर नीचे ढकेला गया. बाबूदीन जब यह विवरण बता रहा था तो हमने पहले घटनास्थल का अन्दाज लगाने की कोशिश की . किसी ने सुझाव दिया कि पहला घटनास्थल मेरठ से गाजियाबाद आते समय रास्ते में मुरादनगर थाने में पडने वाली नहर हो सकती है. मैंने लिंक रोड थाने के वायरलेस सेट से मुरादनगर थाने को कॉल किया तो स्पष्ट हुआ कि हमारा सोचना सही था. कुछ देर पहले ही मुरादनगर थाने को भी ऐसी ही स्थिति से गुजरना पडा था . वहाँ भी कई मृत शव नहर में पडे मिले थे और कुछ लोग जीवित थाने लाये गये थे.
इसके बाद की कथा एक लंबा और यातनादायक प्रतीक्षा का वृतांत है जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का गैर पेशेवराना रवैया और घिसट घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुडे हुयें हैं. मैंने 22 मई 1987 को जो मुकदमें गाजियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर पर दर्ज कराये थे वे पिछले 21 वर्षों से विभिन्न बाधाओं से टकराते हुये अभी भी अदालत में चल रहें हैं और अपनी तार्किक परिणति की प्रतीक्षा कर रहें हैं


लेखक श्री विभूति नारायण राय,1975 बैच के एक वरिष्ठ आई•पी•एस• अधिकारी है.

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

बहादुरी ( लघु कथा)

दस दिनों से शहर, कर्फ्यू से पस्त हिम्मत था. इतंने दिनों के बाद आज पहली बार कर्फ्यू में दो घंटे की ढील दी गयी है. कोतवाल साब की आंखें मूंदी जा रहीं थीं .दस दिनों से वे ठीक से सो नहीं पाये थे, आज थोडी देर के लिये जरा पीठ सीधी करने की इच्छा थी लेकिन अब शायद वह इच्छा पूरी न हो पाये .इसलिये वे बहुत क्रोधित हो गयें हैं . अभी-अभी हवलदार एक लडके को गर्दन से पकड कर थाने में ले आया है. उसके चेहरे से पता चल रहा था कि रास्ते में हवलदार साहब की लाठी से उसकी अच्छी खासी पीठ पूजा हो चुकी है . कोतवाल साब ने आव देखा न ताब , न कुछ पूछा न जाँचा बस बेंत उठायी और उस लडके की पीठ पर धर दिया.
"अरे माई....... रे..." लडके की चीख निकली.
"क्यों बे, तेरा नाम क्या है ?" दारोगा साब दहाडे .
लडका थर थर काँपने लगा. आवाज लडखडाने लगी . कन्धे नीचे की ओर झुकने लगे . और आंखें बेंत पर चिपक गयीं . दिसम्बर के महीने में वह पसीने से तरबतर हो चुका था. पुलिस के दारोगा से उसका पहली बार साबका पडा था.

"जी, जी स्वर्ण सिंह ." नाम ध्यान से सुना दारोगा जी ने .कुछ सोचा और समझा, लडका हिन्दू है. भोले-भाले चेहरे पर डर का घना साया देखकर उन्हें उस पर दया आने लगी.
"तुम उसे पहले से जानते थे ?" कोतवाल साहब ने थोडा मुलायमियत से पूछा.
"जी...जी नहीं." लडके के कन्धे का झुकाव थोडा कम हुआ.
कोतवाल साब झुंझलाये. न जाने कहाँ-कहाँ से उठा लातें हैं ससुरे .हवलदार को जरूर गलतफहमी हुयी है .
"अरे भाई, ये किसे पकड लायें हैं आप ?" उनका इशारा हवलदार की तरफ था.
"जी सर , इसी लडके ने उसको छूरा भोंका था.. हमने मौके से ही इसे गिरफ्तार किया है साहब !" घिघिया रहे थे हवलदार साहब .
"हूं ........." उनकी 'हूं' साफ बता रही थी कि उन्हें हवलदार साहब की बात पर भरोसा नहीं हो रहा था.
" तुम्हारा नाम स्वर्ण सिंह है ? यही बताया था न तुमने अपना नाम ?"
"जी साब ."
"उस अभागे इंसान पर तुमने छूरा चलाया था ?"
"जी हां, जी नहीं, जी साब ." कहते-कहते लडका जो थोडा झुका था तनकर सीधा खडा हो गया. उसका सीना चौडा होने लगा.
"क्या जी-जी लगा रखी है ? क्या उसने तुम्हारे ऊपर हमला किया था - जिससे बचने के लिये तुमने छूरा उठाया ?" दारोगा जी कारण तलाशने में लगे थे.
"अरे नहीं साब ." लडका अब कभी-कभी मुस्कुराता भी था.
"तुमसे उसकी कोई दुश्मनी भी नहीं हो सकती क्योंकि अभी तुमने बताया कि तुम उसे पहले से नहीं जानते थे .." कोतवाल साब पूछ रहे थे लडके से, लेकिने उन्हें देखकर कोई भी यही समझता कि वे अपने आप से बातें कर रहें हैं.
'जी..जी.." लडके ने तेजी से अपना सिर दांयें बांयें हिलाया. दारोगा जी के मधुर व्यवहार पर उसे आश्चर्य हो रहा था. उसने तो उनके बारे में कुछ और ही सुना था.
दरोगा जी ने तह तक जाने का एक और प्रयास किया-
"उस समय वह आदमी क्या कर रहा था ? क्या वह कोई गलत हरकत कर रहा था ?"
"जी , वह सिर झुकाये हुये मेरी तरफ भागता हुआ आ रहा था और बदहवास था." लडका सच बोल रहा था.
" क्या वह तुम्हें मारने आ रहा था ?"
"अरे नहीं साब."
"हुं......, तुमने तब ऐसा क्या देखा उसके हाव भाव में कि उस पर हमला बोल दिया ?"
कोतवाल साहब थके हुये यो पहले से थे . अब उनकी आवाज भी थकी थकी लगने लगी. लडके ने भी इस बात को मह्सूस किया . वह अब मुस्कुराने लगा था. उसने आहिस्ता-आहिस्ता इस तरह बोलना आरम्भ किया जैसे किसी गहरे रहस्य पर से परदा उठाने जा रहा हो .
"जी ,साब ये ससुरे होतें ही इसी काबिल हैं . आप नहीं जानते इन्हें . इन साले मुसल्लों के दिल में हम हिन्दुओं की तरह मोह ,माया तो होती नहीं . ये अपने सगे बाप, भाई के तो होते नहीं . आपने देखा नहीं , ये लोग बकरे को भी किस तरह तडपा-तडपा कर मारतें हैं . ये बहुत खतरनाक कौम है साब . हम हिन्दुओं को तो आप जानतें हैं साब , चींटी को भी आटा खिलातें हैं . आखिर ऊपर जाकर भगवान को भी तो एक दिन जवाब देना है कि नहीं !"
"छूरा किसने चलाया था ?" दारोगा जी ने गदगद होकर फिर पूछा.
"जी साब, मैंने." गर्व से उसने वही पुराना जवाब एक बार फिर दोहराया. स्वर्ण सिंह नाम का यह लडका अपनी बहादुरी से अभिभूत था.
कोतवाल साहब भी उससे सहमत दिखे. उन्हें अपने सामने अपराधी नहीं बल्कि एक बेहद समझदार और बहादुर हिन्दु नौजवान खडा दिखाई देने लगा. वे अपनी कुर्सी पर उठंग कर आराम से बैठ गये और अपनी गर्दन ढीली छोड दी . उन्होने अपने सामने खडे होनहार लडके को ध्यान से देखते हुये अपने लोगों से कहा, "इस लडके को चाय-वाय पिलाकर छोड दीजियेगा आप लोग . कुछ तो अपने दिमाग का इस्तेमाल किया करिये. बिना सोचे समझे बेमतलब ऐक्टिव हो जातें हैं आप सब और किसी को भी धर लातें हैं . दो घंटे का समय बिना मतलब बरबाद हो गया.

पद्मा राय

सोमवार, 18 अगस्त 2008

शहीद

वहाँ हॉल में जितने लोग बैठे थे - लगभग सभी का सिर नीचे झुका हुआ था. आँखें- हाथ में थामें तम्बोला के टिकट पर अटकीं थीं. एक हाथ में तम्बोला का टिकट और दूसरे में पेंसिल सम्भाले , उनका पूरा ध्यान बोले जाने वाले नम्बरों पर ही था. फिर से एक नम्बर पुकारा गया. तम्बोला खेलने वालों के कान खडे हो गये और उनकी निगाहें तम्बोला के टिकट पर उस नम्बर को तलाशने लगीं.
"लकी फॉर समवन- वन, थ्री, नम्बर थर्टीन." मिसेज राना की आवाज लाउंज में गूँज उठी . "यस....." "किसकी आवाज है ?" सबकी निगाहें आवाज की दिशा में घूम गयी .अभी तक मिसेस राना ने अगला नम्बर एनाउंस नहीं किया था. उन्होंने चश्मा अपनी आँख पर से उतारा और मेज पर रख दिया. सुनीता मित्रा अपनी जगह से उठकर , अपने टिकट को ध्यान से देखते हुये उनकी तरफ ही आ रहीं थीं. टिकट को मिसेस राना को देने के पहले वे उसे अच्छी तरह से चेक कर लेना चाहतीं थीं . नहीं तो टिकट बोगी होने का खतरा था. संतुष्ट होने पर उन्होंने अपना टिकट मिसेस राना को थमा दिया.
एक एक करके उस टिकट में मौजूद सभी नम्बर पढकर बोले हगये नम्बरों से मिलाया गया . आखिरी नम्बर भी सही था. फुल हाउस क्लेम किया था मिसेस मित्रा ने .इनाम की राशि जैसे ही सुनिता मित्रा के हाथों में आयी , कई आवाजें एक साथ वहाँ गूँज गयीं. "पार्टी...पार्टी...."
हँसी की एक झलक उनके चेहरे पर दिखायी दी. पर्स खोलकर रुपये अन्दर रखते हुये वे अपनी जगह पर वापस बैठ गयीं. बाकी सभी ने अपने-अपने टिकट को अंतिम बार देखा और फाड दिया. तम्बोला का यह आखिरी राउंड था. खाना मेज पर आ चुका था. हर पन्द्रह दिनों में एक बार लेडीज क्लब की मीटिंग होती है. इतने दिनों में एक दूसरे से शेयर करने के लिये काफी कुछ इकट्ठा हो चुका होता है. तम्बोला खेलते समय वहाँ का माहौल एकदम शांत था किंतु अब वहाँ तरह-तरह की आवाजें सुनाई देने लगीं थीं .
एक-एक करके लोग मेज की तरफ बढ रहे थे . खाना लेकर अपनी-अपनी प्लेटों के साथ कुछ महिलायें सोफों में धंस गईं तो कुछ इधर-उधर टहलते हुये एक दूसरे से बातें करने में मशगूल हो गयीं. खाना कम खाया जा रहा था ,बातें ज्यादा .महीने में सिर्फ दो बार ऐसा मौका मिलता है उसका भरपूर फायदा उठाना भी चाहिये. एक बार जब बात शुरू हुयी तो जाने कहाँ-कहाँ की बातें निकलने लगीं . बातों का सिरा कब शादी-ब्याह की तरफ मुड गया उन्हें पता ही नहीं चला.
“अरे भाई सुनीता, बेटे की शादी कब कर रही हो ?" मिसेस सिंह की आवाज थी.
सुनीता का मनपसन्द टॉपिक यही था. आजकल उनका मन सबसे ज्यादा बेटे की शादी के बारे में ही बात करने में लगता है- और उसी के बारे में उनसे पूछा गया था. सुनते ही चेहरा गुलाब हो गया. बडे जोरों से जुटी हैं इस अभियान में वे आजकल . हर दूसरे दिन लडकियों की कुछ और नयी तस्वीरें और बायोडेटा उनके पास पहले से ही मौजूद तस्वीरों और बायोडेटा के कलेक्शन में इजाफा कर जातीं हैं. अब तो डाकिया भी लिफाफा देखकर पहचानने लगा है कि भैया की शादी से सम्बन्धित ही कुछ है. डाकिये की याद आ गयी उन्हें .
"मैडम ढूढ रहें हैं . लडकी पसन्द आने की देर है . हमारा बच्चा भी जुलाई में लौटने वाला है , तब तक शायद बात बन जायेगी . उसी समय मंगनी और शादी दोनो कर देंगें. बाकी तैयारियाँ तो सब हो ही चुकीं हैं." "क्या आपका बेटा लडकी देख चुका है ? क्योंकि आजकल के लडके, बिना लडकी को खुद देखे तो शादी के लिये हाँ करते नहीं . क्या उसका ...."
उनकी बात पूरी नहीं होने दी सुनीता नें- बीच में ही बोल उठी- "नहीं मैडम, मेरा बच्चा तो एक ही बात कहता है . लडकी चाहे हम जो भी पसन्द करें उसके लिए वह सही होगी किंतु ऐन्गेजमेंट के बाद कम से कम उसे एक महीने का समय एक दूसरे को जानने समझने के लिये चाहिये ." सुनीता के चेहरे पर गर्व साफ दिखायी दे रहा था. आर्मी में है उनका बेटा. "आश्चर्य की बात है ." कहती हुयी मिसेस सिंह उठीं और टहलते हुये किसी दूसरे ग्रुप का हिस्सा बन गयीं .
उनको अपने बेटे की याद आयी जिसकी शादी सिर्फ इसलिये टलती जा रही थी क्योंकि उसे कोई लडकी ही पसन्द नहीं आ र्ही थी . "ऐसे भी बच्चे अभी हैं ! होंगे, हुँह ." खुद से ही सवाल जवाब करते हुये उन्होंने धीरे से अपना कन्धा उचकाया . लेकिन ऐसा कहते हुये उनके अलावा किसी ने उंनकी बात नहीं सुनी .
"उसकी पोस्टिंग कहाँ है आजकल ?" "सोपोर- काश्मीर, में."
"ओह ." अपना सिर हिलाते हुये श्रीमती उपाध्याय ने कहा. उनके माथे पर चिंता की लकीरें उभर आयीं . काश्मीर के हालात कुछ ठीक नहीं हैं आजकल .
"कल ही फोन पर उससे बात हुयी थी .उनके बेटे की पोस्टिंग बीकानेर हो गयी थी किंतु बीच में ही उसकी यूनिट को सोनमर्ग जाने का हुक्म हुआ है. अब वहाँ द्रास सैक्टर में उसकी यूनिट की तैनाती होगी ." आवाज कुछ धीमी पड गयी सुनीता की . बात पूरी करते-करते बेटे का हंसता हुआ चेहरा आँखों के सामने घूम गया. लगा जैसे कह रहा हो- "अच्छा माँ, तो आप भी डरतीं हैं ?" "नहीं तो ." मुँह से निकला उनके . फिर याद आया-उनका बेटा तो काश्मीर में है . वे अचानक चिंतित हो गयीं . बेटे का चेहरा अलग-अलग मुद्राओं में बार-बार उनके सामने आकर खडा हो जा रहा है.
"युद्ध जैसे हालात हैं वहाँ . कारगिल की लडाई जोरों पर है. कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जिस दिन पन्द्रह-बीस जवान, अफसर शहीद नहीं हो रहें हैं . घायलों की संख्या तो खीं ज्यादा होगी. हालात कब तज ऐसे ही रहेंगे ,कौन जाने ?"
सुनीता की सोच सही है . काश्मीर के हालात तो पहले से ही खराब थे अब कारगिल उसमें और जुड गया. पाकिस्तानियों ने चुपके से कब हमारी हिस्से के काश्मीर-कारगिल में जगह-जगह अपना कब्जा जमा लिया किसी को कानोकान खबर भी नहीं हुयी, और जब पता चला तब तक काफी देर हो चुकी थी . अब उन्हीं हिस्सों को खाली करवाने की कवायद चल रही है. एक जगह को उनके कब्जे से छुडाया जाता है तब तक और कई दूसरे ठिकानों के बारे में पता चलता है जहाँ दुश्मन की फौज़ अभी कब्जा जमाये बैठी है.
शुरु-शुरु में लगता था कि बस दो-चार दिनों में पूरा कारगिल पाकिस्तानियों के कब्जे से छुडा लिया जायेगा , किन्तु कहाँ ! अब तो ऐसा महसूस होने लगा है कि जैसे ये लडाई सदियों तक चलती रहने वाली है . कभी समाप्त नहीं होगी. शक की स्थिति है .
औरों का कह नही सकते- किन्तु मिस्टर मित्रा और सुनीता- दोनो कुछ इसी तरह के शक के सवालों से घिरे बैठें हैं .उनका बेटा पिछले ढाई सालों से काश्मीर में ही है .अब जब वह वापस लौटने वाला था कि कारगिल की प्राबल्म सामने आ गयी और उसकी पोस्टिंग वहाँ हो गयी . उन्हें अपने बच्चे की चिंता है . "कारगिल वार" - जिसके देखो वही आजकल इसी के बारे में बात करता है . इसका नाम सुनते ही दहशत होने लगती है , एक अनजाना सा भय दिमाग में उथल- पुथल मचाये रहता है. रात- आधी सोते और आधी जगते बीतती है . इतना ही नहीं- सुबह अखबार खोलते समय डर लगता है ¸ हाथ कांपने लगते हैं. आधे से ज्यादा अखबार कारगिल की खबरों से ही पटा रहता है. जैसे बाकी दुनियां में कहीं भी कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा जिसकी रिपोर्टिंग करने की जरूरत हो. कँपकँपाते हाथों से अखबार उलटते हैं . धुकधुकी बढती जाती है . पहले इधर-उधर की खबरें पढतें हैं फिर जल्दी-जल्दी शहीदों के नाम पढ जातें हैं . बेटे का नाम उसमें नहीं होने पर चैन की साँस लेकर एक-दूसरे की तरफ देखतें हैं और तब इत्मीनान से मिस्टर मित्रा बाकी का अखबार पढतें हैं और सुनीता चाय बनाने किचन में चलीं जातीं हैं
हमेशा ऐसा ही होता है . पहले अखबार मिस्टर मित्रा पढतें हैं और तब सुनीता की बारी आती है . कुछ दिन पहले तक अखबार पढने के नाम पर सुनीता सिर्फ हेडलाइंस पढती थी लेकिन आजकल केवल कारगिल से जुडी हुयी खबरें ही पढती है . एक-एक अक्षर कई-कई बार पढ जाती है, फिर भी संतोष नहीं होता . यहाँ अखबार पढ रही होती है और वहाँ उसका दिल और दिमाग दोनो मानो कारगिल में पहुँच चुका होता है .. उसका बेटा भी तो वहीं है . उन्हीं विषम परिस्थितियों में वह भी जुझ रहा होगा उसका बेटा भी. ऊपर पहाड की चोटी की आड में आधुनिक हथियारों से लैस दुश्मन और नीचे न जाने कितना बोझ अपने पीथ पर लादे. खुले में दुर्गमा पहाडियों पर कढती हुई सेना का एक छोटा सा हिस्सा बना हुआ उसका बेटा .दुश्मन के लिये कितना आसान टारगेट ! एक पत्थर भी ऊपर से दुश्मन लुढका दे तो ऊपर चढता हुआ सिपाही .........! इसके बाद सुनीता का दिमाग सोचना बन्द कर द्र्ता है. वह सोचना भी नहीं चाहती. और अखबार आगे पढने की कोशिश करने लगती.
अखबार पढते समया प्रतिदिन न जाने कितने सम्मानों की घोषणा नये-नये रूप में आंखों के सामने से गुजर जातें हैं. सम्मानों की बाढ सी आ गयी है . रक्तदान शिविर लग रहें हैं . लोग न जाने क्या-क्या दान कर रहें हैं . मुआवजे दिये जा रहें हैं , किसके एवज में ?
हर दिन एक नयी लिस्ट . उसकी समझ में नही आता कि जब बच्चा ही नही बचेगा तब आखिर इन सबका क्या होगा ? जाने क्यों हमेशा बुरे ख़्याल ही दिमाग में घुमडते रहतें हैं .लडाई पर जाने वाले सही सलामत वापस भी तो लौटतें हैं ! अजीब सी बेचैनी दिमाग पर तारी है. उल्टे सीधे विचारों के गिरफ्त में सुनीता हर समय जकडी रहती है . कभी-कभी तो उसका दिमाग एकद्म शून्य हो जाता है . तब कुछ समझ में नहीं आता कि वह क्या करे !
आजकल कोई सीरियल वह नहीं देखती . ऐसा नहीं है कि टी•वी• पर सीरियल आना बन्द हो गयें हैं . उसके पसन्द के सभी सीरियल - जिन्हें वह कभी मिस नहीं करती थी , को भी देखने का अब मन नहीं करता है . टी•वी• पर न्यूज़ किसी न किसी चैनल पर हमेशा जारी रहती है . बस उन्हें ही देखती रहती है . अभी सुबह ही स्टार न्यूज़ पर दिखाया जा रहा था- एक साथ बीस-बीस डेड बॉडीस- कफन बॉक्स के अन्दर तिरंगे में लिपटे. उन्हें सलामी देते हुये फौज़ी अफसर, जवान और तमाम दूसरे लोग. झट से उठकर स्विच ऑफ कर दिया था उसने .आगे देखा नहीं जा रहा था उससे . लेकिन कुछ देर बाद ही दुबारा टी•वी• ऑन करके वहीं बैठ गयी थी सुनीता . अज़ीब दिनचर्या हो गयी है उसकी !
जब से बेटा सोनमर्ग पहुँचा है, ये दोनो पति-पत्नी एक दूसरे के काफी करीब आ गयें हैं. जरा-जरा सी बात में ही लड पडने वाले हर आम जोडों की तरह अब हर समय एक दूसरे का ध्यान रखने लगें हैं . कहीं कोई ऐसी बात मुँह से न निकल जाय जो दूसरे को चोट पहुँचा जाय- इसकी कुछ ज्यादा ही चिंता रहने लगी है उन दोनो को. घंटों चुपचाप साथ-साथ बैठे रहतें हैं .
आज रविवार का दिन है. दोनो साथ ही बैठें हैं कोई हडबडी नहीं है. आफिस भी नहीं जाना है. अभी तक बिस्तर पर ही हैं .चाय पी रहें हैं दोनो. पूरे पलंग पर बेटे के रिश्ते के लिये आयीं तस्वीरें फैलीं हैं. मिस्टर मित्रा को एक तस्वीर पसन्द आयी है तो सुनीता को दूसरी कुछ ज्यादा भा रही है . अपने-अपने पसन्द की तस्वीर हाथ में उठाकर दोनो थोडी देर तक एक दूसरे को देखते रहे और न जाने कुआ हुआ कि जोर-जोर से हँसने लगे . ज्यादा वक्त नहीं लगा यह तय करने में बेटे की पसन्द ही आखिरी होगी . बेटे के निर्णय पर दोनो को भरोसा था . दोनो निश्चिंत थे हो गये और उनके दिल में यह आश्वस्ति भी कहीं न कहीं जरूर थी कि उनकी पसन्द ही बेटे की पसन्द होगी . लेकिन एक दूसरे पर अपने मन की बात को दोनो ने ही जाहिर नहीं किया . बस इंतजार था उसके लौट कर आने का.
अचानक टेलीफोन की घंटी बज उठी . सुनीता टेलीफोन की तरफ लपकी . "हैलो." "हैलो, हाँ. ... ...,मित्रा साहब के यहाँ से बोल रहें है ?"
"जी हाँ, आप कौन बोल रहें हैं ?" "मैं टेलीफोन एक्सचेंज से बोल रहा हूँ . कोई मेजर रणधीर मित्रा दूसरी तरफ लाइन पर हैं ." "उन्हें फोन दीजिये." दिल की धडकन तेज हो गयी सुनीता की . "हैलो," दूसरे तरफ से चिर-परिचित आवाज सुनाई दी. "हैलो बेटा राजू ,मैं बोल रहीं हूँ."
"हाँ जी ममा, प्रणाम ."
"जीता रह पुत्तर, कैसा है बेटा?"
"तूने चिट्ठी क्यों नहीं लिखी अभी तक ? वहाँ सब कुछ ठीक तो है न ? खाना वाना ठीक से खाता है कि नहीं.......?" आवाज भर्राने लगी उसकी . गला फंस रहा है . बहुत कुछ जानना चाहती है अपने बेटे के बारे में किंतु अभी तक तो उसने एक भी बात का जवाब नहीं दिया है . सुनीता ने उसे बोलने का मौका ही कहाँ दिया? लेकिन अभी तो और भी ढेर सारी बातें पूछनी बाकी हैं . लेकिन उससे बोला ही नहीं जा रहा है . बहुत कोशिश करने पर भी शब्द बाहर नहीं आ पा रहें हैं .
" हैलो....हैलो......हाँ.. ममा मैं ठीक हूँ . आप लोग मेरी फिकर न करें . आपका हट्टा कट्टा बेटा जल्दी ही लौट कर वापस आयेगा . डैडी कैसें हैं ? हैलो... हैलो... ममा आपकी आवाज बिल्कुल नहीं सुनायी दे रही है . आप सुन तो रहीं हैं न ? मैं समझ गया , आप रो रहीं हैं . अच्छा डैडी को रिसीवर दीजिये ."
सुनीता रिसीवर को कान से लगाये अपने बेटे की आवाज लगातार सुनती रहना चाहती थी लेकिन अब.....! उसने मि. मित्रा के ओर देखा . वहीं उससे सट कर वे खडे थे . अपनी आंखें पोंछते हुये रिसीवर उन्होंने उसके हाथ से ले लिया . "हैलो, बेटा मैं" "जी डैडी.. प्रणाम . कैसे हैं ?" "जीता रह बेटा, मैं बिल्कुल ठीक हूं और तू ?" "बडा मजा आ रहा है यहाँ . हर दिन एक नया अनुभव मिल रहा है . मिलने पर आपको ढेर सारी बातें बतानी है . डैडी ममा का ध्यान रखियेगा . फोन पर उनकी आवाज सुनकर लगा कि वे बहुत परेशान हैं उनसे कहिये, वे चिंता न करें . अभी तक कोई तस्वीर पसन्द आयी कि नहीं ? उनसे कहिये लडकी भी देख लें. मैं जल्दी ही लौटूंगा. हाँ एक बात और कल हमारी यूनिट द्रास के लिये मूव कर रही है . ममा का ध्यान रखियेगा और अपना भी . छोटा भी तो जुलाई में आ रहा है न ?"
सब लोग मजे में है. तू यहाँ की फिकर मत कर, बेटे . छोटा भी अच्छा है . पच्चीस छब्बीस जून तक उसका इम्तहान खत्म होगा . उसके बाद वह यहाँ आयेगा . तीस जून तक उसके यहाँ पहुँचने की उम्मीद है . फुरसत मिलते ही चिट्ठी लिखना . ऑल द बेस्ट . मुखे पूरी उम्मीद है कि मेरा बेटा जल्दी लौटेगा विजयी होकर."
"जी डैडी, प्रणाम." टेलीफोन की लाइन कट गयी . रिसीवर ठीक से रखकर मिस्टर मित्रा देर तक उसे सहलाते रहे . लगा जैसे बेटे को दुलरा रहें हों . उधर सुनीता अपने दुपट्टे के कोने से अपनी आंखों के कोरों को पोंछने में लगी थी. " तुम भी अज़ीब औरत हो .बजाय खुश होने के रो रही हो . इतने दिनों बाद तो आज जाकर बेटे से बात हुयी है तुम्हें तो खुश होना चाहिये . फिर क्या तुमा इतना भी नहीं जानती कि लडाई पर जाते हुये बेटे को खुशी खुशी विदा करना चाहिये . पर तुम हो कि.............! रोने से अशुभ होता है . क्या यह भी मैं ही तुम्हें बताऊँगा ?" "आज उसकी पलटन द्रास के लिये मूव करने वाली है . ईश्वर उनकी रक्षा करे ." मन ही मन मित्रा साहब ने बेटे के लिये दुआ की . सुनीता ने नहीं सुना.
"रो कहाँ रहीं हूँ? ये तो बस ऐसे ही , उसकी आवाज सुनकर पता नहीं कैसे आँख में पानी उतर आया."
कहते हुये सुनीता ने हँसने की कोशिश की जरूर लेकिन उसकी हिचकी बन्ध गयी. सामने खडा होना मित्रा साहब के लिये भी अब मुश्किल होने लगा. ये तय था कि अगर अब थोडी देर भी वे यहाँ रुके तो वे भी अपने आप को संभाल नहीं पायेंगे .
ज्यादा वक्त नहीं बीता है, बेटे से बात किये हुये . दोनो में से कोई कुछ कह सुन नहीं रहा . खामोशी है पूरे घर में . थोडी देर पहले बेटे से हुयी बातचीत और उसकी आवाज के नशे में दोनो खोयें हैं. "ठीक से बात हुयी भी कहाँ ? कितना कुछ कहने सुनने से रह गया . कितनी सारी बातें भी तो उसे बतानी थीं. कारगिल के बारे में तो कुछ पूछा भी नहीं . उस समय कुछ याद ही नहीं आ रहा था . फोन आने के पहले कितना कुछ दिमाग में रहता है और उसकी आवाज सुनते ही न जाने क्या हो जाता है ? इतनी जल्दी समय बीत जाता है ." लगभग इसी तरह की बातें दोनो के ही मन में हलचल मचायें थीं.
दो-तीन दिन और बीत गये. एक-एक दिन जैसे एक-एक युग. काल चक्र जैसे अपनी जगह पर ठहर गया है. दिन भर एक ही समाचार बार-बार दुहराया जाता है. बस थोडा बहुत शब्दों में हेर फेर कर दिया जाता है. लेकिन वह भी कभी-कभी ही . मसलन, हमारी बहादुर सेना लगातार आगे बढ रही है. या कि हमारे जांबांज फौजी अपने प्राणों की परवाह किये बिना दुश्मन से जूझ रहें हैं . या फिर हमारे द्स जवान शहीद हुये और उनके बीस मारे गये . पता नहीं कितना सच और कितना झूठ ?ब्रीफिंग के समय मिस्टर मित्रा संस रोककर चौकन्ने बैठे होतें हैं .ईश्वर में आस्था न रखने वाले मित्रा साहब उस समय न जाने कितनी मनौतियाँ मनाते रहतें हैं.
सुनीता तो दिन के चार पांच घंटे अपने मन्दिर में बिताती ही है. उसके कमरे में ही उसका मन्दिर भी है, घंटे-आधे घंटे बीतते बीतते जब उसकी घबडाहट बढने लगती है तब मानो वही उसका एक मात्र सहारा होता है. सीधे मन्दिर में पहुँचकर मत्था टेक देती है पूजा पाठ के सारे विधि विधान भूल चुकी है . न कोई मंत्र, न अगरबत्ती और न ही दीपक बाती से कोई मतलब रह गया है . हर समय -"मेरे राजू बेटे की रक्षा करना माँ ." यही एक बात मंत्र की तरह न जाने कितनी बार अब तक जप चुकी है . मन्दिर में हो न हो, हर वक्त इसी मंत्र का जाप करती रहती है सुनीता . थोडे-थोडे अंतराल पर बेटे का मासूम चेहरा आंखों के सामने आकर खडा हो जाता है . आजकल छोटे बेटे की याद उतनी नहीं आती . इस समय भी वह देवी माता के सामने बैठी है . आंखें बन्द हैं. आंसू लगातार बह रहें हैं. बुदबुदा रही है . "मान जल्दी लडाई खत्म कर. मेरा बेटा ठीक-ठाक घर लौटा दे, और मैं तुझसे कुछ नहीं मांगती . एक यही बात मेरी तू मान ले ."
इसी तरह एक-एक दिन गुजरते जा रहें हैं . दूसरों के सामने काफी संयमित रहने की कोशिश करती है और सफल भी रहती है. बात बेबात हंस भी लेती है किंतु अकेले पडते ही बेचैनी बढने लगती है. बेटे का फोन आये हुये भी चार पांच दिन गुजर गयें हैं . अब शायद फोन करना मुमकिन न हो लेकिन इधर कई दिनों से उसकी एक भी चिट्ठी नहीं आयी. दिन में दसियों बार नीचे जाकर लेटर बॉक्स का ताला खोलकर निराश ही वापस लौटी. फिर भी आस लगाये है-आज तो चिट्ठी आनी ही चाहिये .
सुनीता की दांयीं आंख सुबह से फडक रही है . उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है . बार-बार बालकनी में जाकर खडी हो जाती है .डाकिया भी इसी समय आता है . शायद आज बेटे की चिट्ठी आये .
मित्रा साहब आफिस में हैं. अभी-अभी लंच खतम किया है . इस समय उनकी आंखें बन्द हैं और वे अपना सिर कुर्सी पर टिकाकर कुछ सोच रहें हैं. सुबह के अखबार में छपी उन पांच शहीदों की तस्वीर दिमाग में तहलका मचाये है . उनमें से एक का चेहरा काफी जाना पहचाना लग रहा था. कभी मिले जरूर होंगे . पर कब ? याद नहीं आ रहा था. ध्यान बार बार बेटे की तरफ जा रहा था . आंख बन्द करते ही बेटा सामने आकर खडा हो जाता है . इसीलिये शायद आंखें बन्द करके चुपचाप बैठें हैं . अचानक झटका सा लगा . टेलीफोन की ग्फ्हंटी बज रही थी . रिसीवर उठा लिया उन्होंने . "हैलो." "हैलो, मे आई टाक टू मिस्टर मित्रा ?"
"यस....स्पीकिंग.." "ब्रिगेडियर वर्मा हियर फ्रॉम जम्मू.."
मित्रा साहब के दिल के धडकने की रफ्तार एकाएक तेज हो गयी. माथे पर पसीना चुहचुहा आया. एक हाथ से अपने सीने को रगडते हुये दूसरे में रिसीवर थामे आगे सुनने की कोशिश कर रहे थे . "हाँ कहिये , मैं सुन रहा हूँ ." "सर, हियर इज ए मैसेज फॉर यू... योर सन हैज डन सुप्रीम सैक्रीफाइस फॉर हिज मदरलैंड.....वी आर प्राउड ऑफ हिम...... "
इसके आगे ब्रिगेडियर ने क्या कुछ कहा- मित्रा साहब ने कुछ नहीं सुना. इद्माग ने जैसे काम करना बन्द कर दिया था . बस हैलो.....हैलो करते रह गये थे . दूसरे तरफ से कोई आवाज उन तक नहीं पहुँच पा रही थी . कुछ देर तक सोचते रहे . फिर धीरे धीरे समझ में आने लगा- मैसेज में क्या था? ब्रिगेडियर ने उनसे क्या कहना चाहा था ? रिसीवर हाथ में लेकर सुन्न बैठे रहे . अर्थ समझने में समय लगा था . और जब समझ में आया तब .........!
सोचने समझने की ताकत जैसे चुक गयी . आंखें नम नहीं हुयीं उनकी ! हाँ सुनीता का ध्यान जरूर आया . उसे पता चलेगा तब .......?
"कौन बतायेगा उसे ? वे कैसे बता पायेंगे उसे यह बात .... ? उन्हें कितना बेरहम होना पडेगा !"
इधर उधर देखा उन्होंने. आसपास कोई भी नहीं था . घबराहट बढने लगी ,.सामने रखा हुआ पानी का गिलास उठाकर मुंह से लगा लिया . पेट में दर्द सा महसूस हुआ . सीधे बाथरूम की तरफ भागे .वापस लौटे तो सबसे पहले टेलीफोन पर ही गयी . दहशत सी होने लगी . देर तक उसे ही घूरते रहे. याद आया कि अभी कुछ दिन पहले ही तो बेटे से टेलीफोन पर बात हुयी थी . उसने तो कहा था कि वह जल्दी ही लौट कर आयेगा फिर .....हताशा ने घेर लिया उन्हें. , , , , , , .. झटके से उठकर खडे हो गये, , उनके वश में कुछ भी नहीं रह गया था. हाथ पैर जैसे काम नहीं कर रहे थे. अभी तक वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि अब आगे उन्हें क्या करना चाहिये.. सुनीता इस बात को कैसे झेलेगी? क्या करें वे ? सुनीता जब अपने बेटे की मौत की खबर सुनेगी तब उसकी प्रतिल्रिया कैसी होगी ? एक के बाद दूसरे कई प्रश्न उनके सामने मुंह बाये खडे होने लगे लेकिन उनके पास किसी एक का भी जवाब नहीं था. पैर कांपने लगे तो फिर बैठ गये. बैठा भी तो नहीं जा रहा है . बैठे बैठे करवट बदल रहें हैं. चपरासी खाली गिलास भर कर वापस जा चुका था.अभी कुछ देर पहले ही उन्होंने पानी पिया था लेकिन पता नहीं क्यों प्यास कुछ ज्यादा लग रही थी. गला बार-बार सूखता जा रहा है. गिलास एक बार फिर से उनके हाथ में था.
छत पर पंखा फुल स्पीड में चल रहा था . ए•सी• भी ठीक काम कर रहा है . फिर इतना पसीना क्यों ? एक बार फिर से सुनीता की याद आयी . उन सारी लडकियों की फोटो का क्या...? थोडी देर अगर और वे ऐसे ही बैठे रहे तो.....! उन्हें लगा कि उनके दिमाग की सारी नसें एक एक करके तडतडा कर फट जायेंगी. पूरी ताकत लगा कर वे उठे और मिस्टर सिंह के चैम्बर की तरफ चल दिये ..
मिस्टर सिंह लंच के बाद द्स-पन्द्रह मिनट के लिये अपने आफिस में ही सोफे पर लेट कर आराम कर लेतें हैं . यह उनकी पुरानी आदत है. मित्रा साहब को उन्हें जगाने में संकोच हुआ. एक बार उनके मन में आया कि लौट जाय . वापस लौटने के लिये मुडे भी किंतु इसी बीच शायद कुछ आहट हुयी और सिंह साहब की आंख खुल गयी. आंखे खुलते ही उन्हें मित्रा साहब दिखायी दिये तो वे चौंके.
" अरे, मित्रा साहब .आप ?"उठकर बैठ गये सिंह साहब . उनकी आंखें सुर्ख हो थीं. शायद नींद अभी कच्ची थी. "सॉरी सर. आपको डिस्टर्ब किया ..." कहते समय उनकी ज़ुबान लडखडाई. "आप भी मित्रा साहब, कैसी बात कर रहें हैं ? मैं तो उठने ही वाला था. बैठिये न खडे क्यों है6 ? मैं अभी मुंह धो कर आया."
उचटती सी निगाह अपनी घडी पर डालते हुये बाथरूम की तरफ चल दिये. मित्रा साहब बैठ तो गये लेकिन उनके नसीब में अब इत्मीनान कहाँ ! वापस आने में सिंह साहब को चार मिनट से ज्यादा तो शायद ही लगे होंगे किंतु इतना समय भी मित्रा साहब के लिये न जाने कितने युगों के बराबर का हो गया था.
कितनी बार उठकर खडे हुये मालूम नहीं , खडे होते और फिर बैठ जाते . न तो बैठ पा रहे थे और न ही खडे रहने की सामर्थ्य बची थी उनके पास . सारी ताकत जैसे बेटे के साथ ही समाप्त हो गयी थी. बेटे की मौत की खबर ने उन्हें बदहवास कर दिया था. मन मानने के लिये तैयार नहीं था किंतु सच यही था.
बाथरूम का दरवाजा खुला. मित्रा साहब उठ कर खडे हो गये . अपने कुर्सी पर बैठते हुये सिंह साहब ने कहा, "हाँ तो मित्रा साहब , सब कुछ ठीक तो है न ?"
मित्रा साहब कुछ कह नहीं पाये. ऐसा लगा जैसे उन्होंने कुछ नहीं सुना. . मित्रा साहब और सिंह साहब दोनो आमने सामने थे. मित्रा साहब की आंखें नीचे झुकीं हुयीं थीं. सामने बैठे सिंह साहब की तरफ उनसे देखा नहीं जा रहा था . बदहवासी उनके हर हाव भाव से झलक रही थी .
उनकी दशा सिंह साहब से छिपी नहीं थी किंतु इसके पीछे का कारण क्या है ? यह समझने में वे अपने आप को असमर्थ पा रहे थे. कुछ देर तक वे उन्हें देखते रहे और इंतजार करते रहे कि शायद मित्रा साहब खुद ही कुछ कहें. किंतु कहां......!
"क्या बात है मित्रा साहब ?" आज आपकी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही है ." "नहीं सर, मुझे क्या होगा ? मैं एकदम ठीक हूँ . लेकिन...."
आगे के शब्दों ने उनका साथ छोड दिया . उन्हें बीच में ही रुकना पडा.
"हाँ..हाँ बताइये क्या बात है ?" पूछ तो लिया सिंह साहब ने किंतु वे मित्रा साहब के व्यवहार से अचम्भित थे "आज के पहले मेरे सामने कभी ऐसा व्यवहार तो इन्होंने नहीं किया था.. हुआ क्या है इन्हें ?" मन ही मन वे सोच रहे थे . कुछ अजीब तरह से पेश आ रहें हैं . उनकी निगाहें मित्रा साहब पर चिपक गयीं. चिंता भी होने लगी. उनकी . "आखिर बात हो क्या सकती है ? "सर , उन्होंने कहा.......था कि माई सन हैज डन सुप्रीम सैक्रीफाइस फॉर हिज मदरलैंड......" जल्दी से उन्होंने अपना वाक्य पूरा किया किंतु इस एक वाक्य को कहने में मित्रा साहब को अपने अन्दर की तमाम उर्जा लगा देनी पडी थी और वाक्य पूरा होते होते वे अपनी कुर्सी पर लुढक से गये. ऐसा लग रहा था जैसे उनके कन्धों पर मनों बोझ लदा हो और वे उसके बोझ के चलते झुकते जा रहें हों. अभी कुछ देर पहले तक वे बदहवासी के गिरफ्त में होने के बावजूद अपने आप को संभाले हुये थे किंतु अब जब कि सिंह साहब सब कुछ जान गये थे तब उन्हें अपने आप को संभालना असंभव हो गया. अपना सिर मेज पर टिकाकर वे बेकाबू हो गये . उनके आंसू जिनकी अभी तक परछाईं भी नहीं दिखी थी , अब अचानक जैसे बान्ध तोडकर बहने लगे.
मिस्टर सिंह के सामने , अब तक के अपने तमाम अच्छे बुरे दिनों में, ऐसी स्थिति कभी नहीं आयी थी. कुछ भी कहने सुनने के हालात थे ही नहीं और न ही वे कुछ कह पाये , बस धीरे-धीरे वे अपनी कुर्सी पर से उठे और जाकर मित्रा साहब के पास खडे हो गये. उनके कन्धों पर अपना हाथ रखकर धीरे से दबाया और रोने दिया उन्हें .रोना इस समय उनके लिये बहुत जरूरी था . एक बार जी भर के रो लेने से कुछ तो मन हल्का होगा ही-- - सिंह साहब उनके पास खडे रहे . मित्रा साहब को संभलने में थोडा वक्त लगा .
सिंह साहब ने पानी का गिलास उनकी तरफ बढाया और स्वयं शब्दों की तलाश में जुट गये . "संभालिये आपने आपको , मित्रा साहब . ऐसे कैसे चलेगा ? अब सब कुछ आपको ही देखना है . हिम्मत रखनी होगी आपको . अपनी पत्नी के बारे में सोचिये जरा . उन्हें भी आप ही को संभालना है .ऐसा करिये ,अब आप घर जाइये ." शब्द कोश चुक गया सिंह साहब का . ठीक से अफसोस भी नहीं कर पाये .इतने में ही उनकी आवाज लटपटाने लगी थी.
बेजान से मित्रा साहब अपने झुके कन्धों के साथ उठे और भारी कदमों से चलते हुये दरवाजे से बाहर निकल गये. दरवाजा धीरे-धीरे अपने आप बन्द हो गया. अब उन्हें क्या करना चाहिये, इसके बारे में उन्होंने सोचा. आफिस में कितना काम बचा है , उन्हें याद नही .
गाडी सडक पर बेतहाशा भाग रही थी और मित्रा साहब उसमें बैठे हुये थे. दोनों तरफ लडाई चल रही थी लगातार, कारगिल में भी और उनके मन में भी . आज कारगिल में दुश्मनों के साथ जूझता हुआ उनका बेटा मारा गया था लेकिन यहाँ उन्हें अपने आप से ही जूझना है. जूझते जाना है अब बाकी पूरी जिन्दगी .तब भी शायद मौत उनके हिस्से में नही . इतने भाग्यशाली वे कहाँ ! एस•एस•बी• में सफल होने के बाद घर लौटे बेटे का उजला-उजला चेहरा बार-बार सामने आकर खडा हो जा रहा है . आज वो इस दुनियाँ में नहीं है -जानते हुये भी वे उस पर विश्वास नहीं करना चाहते .
गाडी की रफ्तार धीमी होने लगी और धीमे होते-होते गाडी खडी हो गयी. उन्हें झटका लगा. जैसे नींद से जागें हों . सामने देखा, घर दिखायी नहीं दिया. ड्राइवर ने नीचे उतर कर गेट खोल दिया . नीचे उतरने का उनका जी नहीं कर रहा था . अभी तक तो वे ये भी तय नहीं कर पाये थे कि सुनीता को कैसे और क्या बतायेंगे ? और उनकी गाडी घर के सामने पहुँच कर खडी भी हो गयी थी.
सुनीता को उन्हें कुछ भी नहीं बताना पडा. तेज आग की लपटों की तरह उनके जवान बेटे की मौत की खबर पूरे दफ्तर में फिर सबके घरों तक पहुँचते हुये अंत में उनले घर भी पहुँच चुकी थी. उनके घर पहुँचने के पहले ही सुनीता को खबर मिल चुकी थी. तमाम लोग उनके घर भी पहुँच चुके थे और न जाने कितने लोग आते ही जा रहे थे . बाहर सडक पर भीड लगी थी. वे गाडी से नीचे उतरे . उनसे किसी ने कुछ कहा नही, चारों तरफ भयानक खामोशी थी. चुपचाप लोगों ने एक तरफ हटकर उन्हे घर के अन्दर जाने दिया. संवेदना जताने आये हुये लोगों के बीच में जाकर एक तरफ वे भी बैठ गये. एक बार उनका मन किया जरूर कि वे सुनीता के पस जायं किंतु उसके चारों तरफ इतनी भीड थी कि वे अपनी इच्छा को मन में लिये वहीं बैठे रह गये .
जोग आते जा रहे थे . हर आने वाला दबे पैरों कमरे में प्रवेश करता, इधर-उधर देखता और फिर उनके पास आकर खडा होजाता . उनके कन्धे पर हाथ रखकर एक शब्द भी बोले बिना उन्हें ढाढस देने का असफल प्रयास करता और फिर जहां जगह मिलती वहां समा जाता. याद नहीं पडता लेकिन इन्हीं लोगों में से कुछ देर बाद किसी ने पूछा -
"मि. मित्रा टेल मी एक्जेक्टली-वाट-हैपेन्दड ?" उस समय उनके आस-पास बैठे सभी लोग चौंक गये थे . बडी मुश्किल से अपने पर काबू रखते हुये उन्होंने ब्रिगेडियर के कहे वाक्य को जस का तस दुहरा दिया था . उस एक वाक्य को दुहराने में उन्हें कितनी बार मरना पडा था इसका शायद पूछने वाले को आभास तक नहीं हुआ था.
सुनीता को बताया जा चुका था कि उसका बेटा अब इस दुनियां में नहीं है .लेकिन वह नहीं मानती लोगों की इस बात को . नाराज है सुनीता कि आखिर ऐसी अपशकुनी बात लोगों के मुहं से निकली कैसे? उसे भरोसा है अपने बेटे पर, वह लौट कर जरूर आयेगा . हो सकता है कि आज ही लौट आये .
उसका बेटा मटन का बहुत शौकीन है . इसलिये आज रात खाने में उसने मटन बनवाया है . उसे गोली लगी होगी यह तो वह मानती है और शायद इसीलिये वह आज वापस लौट रहा है . उसे किसी तरह की तकलीफ न हो इसका इंतजाम करने में वह व्यस्त है. उसका कमरा ठीक करवा रही है . घायल है इसलिये उसका बिस्तर आरामदेह होना चाहिये तथा जरूरत का हर सामान उसके कमरे में ही होना चाहिये , इसका भी खासा खयाल रखा है उसने . उसकी ऐसी हालत देखकर सब सकते में हैं .लोग उसके पास चुपचाप बैठें हैं . किसी के पास कुछ भी कहने सुनने को नही है. विक्षिप्त सी सुनीता बीच-बीच में भाग कर अपने देवी माँ के चरणों में मत्था टेक आती है और दूसरों से भी वैसा ही करने को कह रही है . उसके बेटे की रक्षा देवी माँ जरूर करेगी, ऐसा उसे विश्वास है. उनकी बडी महानता है. बडी आस है उनसे . वे चाहें तो क्या नहीं कर सकतीं !
मित्रा साहब सब सुन रहें हैं. हूक सी उठ रही है कलेजे में. बेचैनी बढती जा रही है . बैठा नहीं गया उअंसे , उठ कर खडे हो गये . चहलकदमी करते हुये खिडकी के पास जाकर खडे हो गये . बेमकसद देर तक खिडकी से बाहर देखते रहे .
तभी उन्हें उन दोनो तस्वीरों का खयाल आया जिनको लेकर उन दोनो के बीच मनमुटाव हो गया था, अपनी अपनी पसन्द की तस्वीर दोनो ने संभाल कर रखी थी- अब उन तस्वीरों का क्या करेंगे? किसे दिखायेंगे ? चक्कर आने लगा उन्हें . वहीं दीवान पर बैठ गये . आंखें बन्द थीं उनकी . सुनीता की आवाज बीच-बीच में सुनाई दे रही थी . उनके सीने पर पडा बोझ बढता जा रहा था. दिमाग गडबडा गया था उनका. आगे क्या करना है क्या नहीं , वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे .
अनजाने में उनके मुहं से निकला- "सब खत्म हो गया."
मन किया सुनीता के पास जाकर कुछ देर बैठें . शायद तब सीने पर का बोख कुछ कम हो . यही सोचते-सोचते वे कब खडे हुये और कब उस कमरे के दरवाजे के सामने पहुँचे जिसमें सुनीता थी उन्हें खबर ही नहीं. लगी .
कमरा ठसाठस भरा था. जिसे देखना चाहते थे वह तो दिखी ही नहीं. बाथरूम में थी .सुनीता , लालच वश वे कुछ देर तक वहीं खडे रहे लेकिन उसे बाहर आने में देर हो रही थी . वहाँ बहुत लोग मौजूद थे और उन सभी की निगाहें उन्हीं की ओर थीं . उनकी निगाहों का सामना करना आसान नहीं था उनके लिये . वहाँ ज्यादा देर ठहरना मुश्किला होने लगा . भारी कदमों से वे वापस लौट गये.
बैठक में घुसते समय उन्होंने सुना , "मेजर रणधीर मित्रा की डेड बॉडी कब पहुँच रही है ? उसे लेने भी तो जाना होगा."
पहले तो वे समझ ही नहीं पाये कि किसके विषय में बात हो रही है , किंतु थोडी देर में ही उन्हें याद आ गया कि उनके बेटे का ही नाम रणधीर था. अभी कुछ दिनों पहले तक वह कैप्टन था. कारगिल जाते समय ही उसे लोकल रैंक देकर बतौर मेजर पोस्ट किया गया था. इसका मतलब उन्हीं के बेटे के बारे में दरियाफ्त किया जा रहा था घबराहट बढने लगी उनकी और अब यहाँ भी खडा होना मुश्किल लगा ., वे उल्टे पैर वापस हो लिये. रास्ते में याद आया कि आज सुबह से ही वे दोनो अपने राजू बेटे की चिट्ठी का इंतजार कर रहे थी . उन्हें क्या मालूम था कि चिट्ठी नहीं वह स्वयं आने वाला है, वह भी इस रूप में ! चलते-चलते वे एक बार फिर से अपने पत्नी के कमरे के सामने पहुँच गये और वहीं ठहर गये . वे वहां से आगे एक कदम भी नहीं बढा पा रहे थे, उनके पैर जैसे वहीं चिपक गये थे .
सामने पलंग पर सुनीता थी . बेटे के आराम का पूरा इंतजाम करने के बाद थक चुकी सुनीता मिसेस नारंग के कन्धे का सहारा लेकेर बैठी थी. पूरी तरह से अस्त-व्यस्त, बेतरतीब , सूनी-सूनी आँखों से बाहरी दरवाजे पर अपनी आंखे टिकाये वह अपने राजू बेटे का बेसब्री से इंतजार कर रही थी .दोनो की निगाहें मिलीं . उसकी आंखों के सूनेपन से मित्रा साहब सहम गये. उन्हें महसूस हुआ , जैसे सुनीता उनसे बहुत कुछ कहना चाहती हो. वे भी तो यही चाहते थे. कितनी देर से वे हिम्मत जुटा रहे थे .आगे बढकर उसके पास पहुँचना चाहते थे लेकिन उनके बीच की दूरी जाने कितनी बढ गयी थी जो इतनी कोशिशों के बावजूद कम नहीं हो पा रही थी . उसके नजदीक पहुँचने में उन्हें इतना वक्त क्यों लग रहा था ? अपने पैरों को घसीटने की कोशिश की उन्होंने किंतु एक इंच भी आगे नहीं बढ पाये . क्या करें वे ? थोडी देर तक सुनीता उन्हें बडी उम्मीद के साथ देखती रही. शायद इंतजार कर रही थी उनके आगे बढ कर उसके नजदीक पहुँचने का ...किंतु वैसा नहीं हुआ और फिर..........उसके चेहरे का आकार जाने कैसा हो गया .और फिर एक चीत्कार के साथ वह फूट-फूट कर रोने लगी . रही सही हिम्मत भी मित्रा साहब गँवा बैठे . एक मिनट भी और वे वहाँ नहीं रुक पाये . इतने सारे लोगों के सामने उसके पास तक पहुँचने की ताकत नहीं थी उनके पास. दरवाजे से पीछे हट गये .
बडी शिद्दत से एक इच्छा उनके अन्दर सिर उठा रही थी . वे चाहते थे कि वहां जितने लोग मौजूद हैं वे सभी उन दोनो को अकेला छोडकर चलें जायं. उन्हें किसी की सांत्वना नहीं चाहिये . बहुत हो गया यह सब . वे कैसे धर्य रख सकतें हैं? कहना कितना आसान है ! किंतु...... सुनीता भी तो यही चाहती है .. उसकी सूनी सूनी आंखों ने उनसे यही तो कहना चाहा था. उन्हें उसकी बात समझ आ गयी थी तब वहां मौजूद बाकी लोगों को उसकी बात क्यों नहीं समझ आ रही है ? आखिर कब तक ये लोग ऐसे ही भीड लगाये रहेंगे ? बेटे के चले जाने का दुख अब वे सिर्फ अपनी पत्नी सुनीता के साथ मनाना चाहतें थे . सिर झुका कर मित्रा साहब एक तरफ बैठ गये और बडी आजिजी से सबके जाने का इंतजार करने लगे .
दो तीन दिन बीत गये. सुनीता का बेटा वापस आ गया और उसको इक्कीस तोपों की सलामी के साथ आखिरी विदा भी दे दी गयी . लेकिन सुनीता अभी तक उस चोट से उबर नहीं पा रही है. रह-रह कर उसकी आखें नम हो जातीं हैं . आंखों का सूनापन अब और बढ गया है . टी•वी• पर न्यूज आ रही है . अभी भी युद्ध जैसे हालात हैं. सुनीता टी•वी• के सामने बैठी है . तभी उसने देखा- दो तीन दिन पहले उसके बेटे को अंतिम सलामी देने वाला दृश्य दिखाया जा रहा था. किसी न्यूज रिपोर्टर की आवाज भी सुनायी दे रही थी . "शहीद रणधीर मित्रा की मां की आंखें नम जरूर हैं लेकिन वे कहतीं हैं कि उन्हें अपने बेटे की शहादत पर गर्व है जिसने देश की सीमाओं की रक्षा करते हुये अपने जान की भी परवाह नहीं की.............!" न्यूज रिपोर्टर ने और भी न जाने क्या क्या कहा होगा किंतु सुनीता को आगे कुछ भी सुनायी नहीं दिया. वह सोच रही थी कि उसने ये सारी बातें कब कहीं थीं ? उसे कुछ याद नहीं था. उस समय तो शहीद शब्द का ध्यान उसे एक बार भी नहीं आया था. फिर इस तरह की बातें किसने कहीं ? गर्व की अनुभूति का तो पता नहीं हां कलेजा जरूर उसका अभी भी लगता है जैसे फट पडेगा. जब- तब एक ही बात दिमाग में हलचल मचाये रह्ती है कि अब वह लाख कोशिशों के बावजूद भी अपने बेटे से कभी भी मिल नहीं पायेगी. शहीद बेटे की माँ कहलवाने की उसकी इच्छा कब थी ! उसकी बस एक ही चाहत थी कि उसका बेटा लडाई के मैदान से विजयी होकर वापस लौटे.

(साभार. हंस )

पद्मा राय

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

'ब', 'क' और विनयना

हमेशा की तरह नाक की सीध में चलती जा रही थी कि रिसेप्शन पर नीरा दी दिखाई दीं . पंकज से बात कर रहीं थीं! उन्हें वहाँ देखकर स्कूल की पत्रिका की याद आई. एक दिन पहले ही मिली थी, उसमें वीरा दी का आर्टिकल पढने को मिला. कमाल का सेंस ऑफ ह्यूमर है इनका . आज उन्हें यहाँ देखकर उनकी कृति की याद ने हंसने के लिये मजबूर कर दिया . वास्तव में अनूठी रचना थी . मजा आ गया उसे पढकर. उन्हें बधाई देने का मन चाहा.
लेकिन इस समय नहीं , अगर बातों में उलझ गयी तो क्लास रूम तक पहुँचते पहुँचते ब्रेकफास्ट ओवर हो जायेगा- फिर कभी , मन में कहते हुये आगे बढ गयी.
यह केवल इस एक दिन की बात नहीं है, इधर कई दिनों से विनयना का व्यवहार ऐसा ही है! उसके सामने मैंने उसकी नोट बुक खोलकर रख दी और उसकी कलाई में रिस्ट बैंण्ड बाँधकर उसे एक मोटी पेंसिल पकडा दी, अब उसे लिखना चाहिये था.लेकिन वह अनमनी -सी होकर बैठी रही. पेंसिल उससे सँभल नहीं रही थी या कि वह उसे सँभालना ही नहीं चाहती थी. मैं नहीं जानती कि मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि वह जानबूझ कर ऐसा कर रही थी. उसे उन अक्षरों को उनके सामने बने चित्रों के साथ मैच करवाना था जो उन्हीं अक्षरों से प्रारम्भ होते थे. पेंसिल तो उसने संभाल ली थी लेकिन मैच करवाने के बजाय वह उस पन्ने पर आडी-तिरछी , टेढी-मेढी रेखाओं वाली अजीबोगरीब आकृतियों का निर्माण करने मे जुटी हुयी थी. उसको मनाने का मेरा हर संभव प्रयास बेकार जा रहा था! वह किसी भी तरह आज कुछ करने के लिये तैयार नहीं हो रही थी. थोडी देर में वह उससे भी ऊब गयी और अब उसने पेंसिल पकडने से भी इंकार कर दिया . हद तो यह हुई कि उसने अपने दोनो हाथ मेज पर रखकर अपना सिर पीछे कुर्सी पर टिका दिया और अपने सिर से पूरी ताकत लगाकर कुर्सी को पीछे की तरफ ढकेलने लगी . कई बार कुर्सी उलटते उलटते बची . इतने पर भी जब उसे संतोष नहीं हुआ तो वह अपने काँपते हाथों से सामने मेज पर रखी हुई तमाम वस्तुओं को जल्दी-जल्दी हटाने लगी . देखते ही देखते, कुछ ही देर में उस पर रखी सभी वस्तुयें एक-एक करके जमीन पर पहुँच गयीं. उन सबको उठाकर मैंने वापस मेज पर रख दिया. उसने दोबारा वही काम किया! मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी. मेरे पास चुपचाप बैठकर उसे निहारते रहने के अलावा कोई चारा भी नहीं था. मैंने असहाय होकर अंजना की तरफ देखा- अंजना ने कहा,
"इसकी तरफ ध्यान मत दीजिए, थोडी देर में अपने आप नॉर्मल हो जायेगी."
न चाहते हुये भी मेरा ध्यान बार-बार उसकी तरफ चला जा रहा था! न जाने क्यों उसका क्रोध बढ रहा था और कुर्सी पर उसके सिर के टकराने की रफ्तार भी बढती जा रही थी. अपनी पीठ से कुर्सी को वह बार-बार धक्का दे रही थी. पेंसिल, रबर, शार्पनर और चित्रों वाली कॉपी, सभी कुछ नीचे जमीन पर पहुँच चुका था. ऐसा केवल एक बार नहीं बल्कि कई बार हो चुका था. दो बार तो पृथ्वी ही उन चीजों को उठाकर मेज पर रख चुका था. इस समय भी सभी कुछ जमीन पर बिखरा हुआ है. मेज बिल्कुल साफ सुथरी और खाली उठाकर मेज पर उसके सामने रख दिया. तिरछी आँखों सॆ विनयना ने उन्हें देखा जरूर किंतु तब भी उसकी हरकतों में किसी प्रकार की रूकावट नहीं आयी.
कोई बात है तो जरूर, पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. वह ऐसी तो नहीं थी! सबसे कम उम्र की विनयना मल्टिपल प्रोब्लम्स की शिकार थी. ठीक से बोल नहीं सकती थी, चलने के लिये व्हील चेयर का सहारा लेना पडता था उसे और उसके हाथ भी उसके आदेशों को मानने से इंकार करते थे, इसके बावजूद पूरी तरह से अपने काम के प्रति समर्पित और एकाग्रचित्त होकर जी-जान से सबसे आगे रहने की विनयना की कोशिशें हमें अचम्भित करतीं थीं. सभी बच्चों में एक अकेली वही थी जिसका मन पढाई में हमेशा लगता था! पढते समय कभी भी वह दूसरी बातों की तरफ आकर्षित नहीं होती थी. ये बात दीगर है कि आरम्भ में तो सभी बच्चे ध्यानमग्न होकर समझदारी के साथ पढते हुये दिखायी देते हैं, और ऐसा लगता है कि आज वे अपना पूरा काम निर्धारित समय में पूरा कर के ही दम लेंगे, लेकिन जल्दी ही उन सबका धैर्य चुकता हो जाता था! तानिश को टॉयलेट जाना होता है या फिर भूख ही लग जाती है, साहिल को अपनी साल भर पहले की लगी हुयी चोट में दर्द होने लगता है और इशिता को जिस नये स्कूल में आगे पढने जाना उसकी याद सताने लगती है. बचती है तो सिर्फ विनयना जो अपने काम को पूरी निष्ठा के साथ पूरा करके ही मानती थी. उस समय उसे अपनी पढाई के अलावा और कुछ भी याद नहीं आता . आँखों की पुतलियों को पूरा फैलाकर दीदी की तरफ टुकटुकी लगाए एकाग्रचित होकर सब कुछ सुनने वाली विनयना की पढाई में इतनी दिलचस्पी देखकर अंजना का मन भी उसे ज्यादा से ज्यादा सिखाने के लिये बेताब रहता . विनयना चाहती भी यही कि वह जितनी जल्दी हो सके , सब कुछ सीख जाये! और दुनियाँ भर की तमाम जानकारियाँ उसे हासिल हो जायँ.
पढते समय उसका ध्यान कहीं और नहीं भटकता था. किंतु साहिल, इशिता, मीनू और तानिश- चारों का हाल बिल्कुल उल्टा था! पढाई के अलावा और दूसरी कोई भी चीज उन्हें बहुत जल्दी अपनी तरफ आकर्षित कर सकती थी . कितनी सारी बातें होतीं उनके नन्हें से दिमाग में और कितनी सारी नई चीजें हर नये दिन उनके दिमाग में जुडती जातीं हैं. उन सबके बारे में उनकी उत्सुकता इतनी होती है कि जितनी देर चाहो वे सब उन चीजों को लेकर बातें कर सकते थे. बातें करके वे कभी थकते भी नहीं. वे सोचतें-
"अगर पढना न होता तो कितना मजा आता!" लेकिन आज विनयना को क्या हो गया है ? पढने लिखने से इसका मन क्यों उचट गया है ? सोचते हुये मैंने एक कुर्सी खींची और ठीक उसके सामने बैठ गयी! उसके हाथों की ऊँगलियों के बीच पेंसिल पकडाने की कोशिश की . उसके ओंठ कुछ टेढे हुये और पेंसिल को उसने अपने दोने हाथों से पकडकर अपने बाएँ हाथ के अँगूठे और ऊँगलियों के बीच में संभाला तो मुझे उम्मीद हुयी कि अब विनयना अपना काम करेगी. लेकिन उसने अपने उसी अंदाज में ऊँगलियों को घुमाना शुरू किया. दोबारा मार्डन आर्ट बनाने में मशगूल हो गयी विनयना.
मैं समझ गयी कि इस तरह तो कई दुर्लभ चित्र आज उसके हाथों बन कर तैयार हो जायेंगे. और उसकी प्रदर्शिनी लगाने के लिये हमारे स्कूल का हॉल भी छोटा पड जायेगा. मैंने कुछ न बोलने में ही खैरियत समझी. उसके मन में जो आ रहा था वह करती जा रही थी और मैं असहाय, उसके सामने चुपचाप बैठी हुयी उसकी इन हरकतों को देखती हुई बैठी थी! उसकी इन कारस्तानियों के बीच मैंने किसी तरह की दखलान्दाजी नहीं की. विनयना को मुझसे ऐसी उम्मीद शायद नहीं थी. ऐसा कभी हुआ था कि दीदी के दिये हुये कार्य को न करके कोई बच्चा आडी तिरछी रेखायें खींचता रहे और दीदी उस बच्चे को कुछ न कहे . वह बोर हो गयी शायद , इसलिये अचानक उसने अपनी पेंसिल छोड दी और मेरी तरफ चुपके से अपनी आँखे उठाकर देखा, शायद सोच रही होगी कि मैं उससे कुछ कहूँगी! मैंने कुछ नहीं कहा लेकिन वह क्या कर रही है, किसे देख रही है और बार बार उसकी निगाहें किधर देख रहीं हैं , इसकी तरफ मेरा पूरा ध्यान था. एक बात की तरफ मेरा ध्यान बार-बार जा रहा था कि बीच-बीच में विनयना की नजरें अपने आस-पास बैठे बच्चों की पेंसिलों और कॉपियों पर फिसल रहीं थी. एकाएक मुझे बात कुछ कुछ समझ में आने लगी, ऐसा मुझे लगा- हो न हो यही बात है. शायद मैं ठीक ही समझ रही थी. थोडा बहुत शक भी था! उस समय मुझे ऐसा महसूस हुआ कि दूसरे बच्चों की तरह विनयना भी लिखना चाहती थी. उसकी कॉपी में दीदी द्वारा लिखे गये अक्षरों को , उन्हीं अक्षरों से आरम्भ होने वाले चित्रों से मैच कर-कर के शायद वह बोर हो चुकी हो , क्या पता ? तभी तो आज कितने प्यारे-प्यारे चित्र बनाकर अंजना ने उसकी कॉपी में दिये थे किंतु उसने उधर जरा सा भी ध्यान नहीं दिया. जरा सी भी उत्सुकता उसने उन्हें देखने की नहीं दिखायी. उन चित्रों की तरफ तो उसने एक बार ठीक से देखा भी नहीं.
अब उसका मन नहीं लग रहा इस बोरिंग काम में! अब उसे नहीं करना है ये सब, कब तक केवल मैचिंग ही करती रहे ? यह सब तो उसे बहुत पहले ही आ गया था. अब वह कुछ और नया सीखना चाहती है, उसे सबसे आगे जो रहना है! सबसे आगे रहने की उसकी आकांक्षा ही आज उससे यह सब करवा रही है शायद! मन कह रहा था कि मेरी सोच सही है . धीरे धीरे विश्वास हो चला कि इसके अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता! विनयना सारे अक्षरों को पहचानने लगी है. शब्दों को ही नहीं अब तो उसने पूरे-पूरे वाक्यों को भी पढना आरम्भ कर दिया है. लेकिन तब भी दीदी उसे मैचिंग करने के लिये दे देतीं हैं. क्यों देतीं हैं ? कितने दिन और यही करती रहेगी ? जबकि उसे यह सब अच्छी तरह से आता है. उसके बाकी साथी अभी तक अक्षरों को भी ठीक से नहीं पहचानते! उसी में उलझे रहतें हैं! कोई बच्चा उसकी तरह नहीं पढ सकता! तब भी मीनू के अलावा सभी इशिता, साहिल, तानिश लिखतें हैं , दीदी उनसे डाँट डाँट कर लिखने को कहतीं हैं , उससे क्यों नहीं ? वे ठीक से नहीं लिखते तो कई बार तो उनका हाथ पकड कर लिखवातीं हैं . उन सबको लिखते हुये देखकर उसका भी मन करता है , वह भी लिखना सीखे , लेकिन दीदी हैं कि समझती ही नहीं ! प्रतिदिन वे सब लिखतें हैं फिर विनयना क्यों नहीं ? वह भी लिखेगी! अंजना दीदी नहीं लिखवातीं, कोई बात नहीं, वह अपने आप लिखेगी. उसने तय किया है और अब यही करने की उसने ठानी है! वैसे तो मुझे अपने अनुमान पर भरोसा हो चला था किंतु एक बार उससे पूछने में क्या हर्ज है, सोचकर मैंने पूछा- "क्या बात है विनयना ? क्यों नहीं अपना काम जल्दी से पूरा कर लेती हो ? तुम्हें सब कुछ आता है न . देखो सबने अपना-अपना काम तुमसे पहले पूरा कर लिया है - ऐसा पहले कभी हुआ था ?" मेरी तरफ देखकर उसने जल्दी से कुछ कहा, जिसे पहले तो मैं समझ नहीं पायी! वह बोल सकती है , बोलती भी है, सब कुछ समझाने का प्रयास करती है किंतु उसकी जीभ के सही जगह नहीं पहुँच पाने के कारण उसकी आवाज साफ-साफ समझ में नहीं आती और शब्दों को पकडने में हमें कठिनाई होती है. हम अटकलें लगातें हैं और हमारी कोशिशें तब तक जारी रह्तीं हैं, हमारे गलत अनुमान लगाने पर वह अपने सिर को दांये-बाँयें हिलाकर हमें आगाह कराती है कि हम उसकी बात सही नहीं समझ पायें हैं, हम गलत सोच रहें हैं. सही सिरा हमारे हाथ में आते ही उसकी मुस्कुराहट देखने लायक होती है, उसका चेहरा चमकीला हो उठता है और तब उसके सभी हाव-भाव खुशनुमा हो उठतें हैं.
अपने कान उसके नजदीक ले जाकर मैंने ध्यान से उसकी बात सुनी और समझने की कोशिश की. शायद कुछ समझ में भी आया .
"तुम भी लिखोगी , जैसे तानिश लिख रहा है ?"
पहले विनयना मुस्कुरायी और उसके बाद जो उसने किया वह देखने लायक था. विनयना का सिर दाँयें-बाँयें, ऊपर-नीचे गरज ये कि जिधर की तरफ भी वह अपने सिर को हिला सकती थी, हिला रही थी. उसके हाथ जैसे हवा में उड रहे थे.
अंजना भी वहीं थी . हम दोनो अवाक वहाँ बैठे एक दूसरे को देख रहे थे. आगे क्या होने वाला है , हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते थे . अपनी बात हम तक पहुँचाकर अब वह आराम से अपने सिर को कुर्सी की पीठ से टिकाकर बैठी थी. मन्द-मन्द मुस्कुराती विनयना शांत होकर शायद आगे की सोच रही थी.
बिना कुछ सोचे समझे मेरे मुँह से अचानक निकला- "तो लिखो न ." तुमने पहले कभी कहा क्यों नहीं ?" मेज पर से उसकी कॉपी उठाकर मैंने उसके एक पन्ने पर, सबसे पहली पंक्ति में बडे-बडे दो अक्षर लिख दिये . जब मैं लिख रही थी उस समय उसका पूरा ध्यान मेरे लिखने पर ही था. अपनी बारी का इंतजार था उसे . सभी अक्षरों को वजह अच्छी तरह से जानती- पहचानती है. फिर भला उन्हें लिखने मे उसे कितनी देर लगेगी ? मैं कनखियों से उसे देख रही थी. मैंने कहा- "पढो इसे." मेरी तरफ देखकर वह हँसी, फिर बोली- "ब ....,.क...... ,खिल..खिल..खिल..खिल." ढेरों गुलाब खिल उठे एक साथ. उनकी खुशबू से पूरा कमरा महक उठा. मुझे महसूस हुआ जैसे गुलाबों की खुशबू में रात रानी की भीनी-भीनी सुगन्ध भी मिल गयी हो . "ठीक है .वेरी गुड .एक दम सही पढा है तुमने ."
फिर मैने अंजना की तरफ देखा और कहा -
"अंजना दी आज आप इसे एक स्टार दीजियेगा."
अंजना मेरी तरफ देख रही थी और शायद अगे क्या हो सकता है, सोचकर डरी हुयी भी थी. लेकिन न जाने क्यों मैं उनकी तरफ ध्यान दिये बिना आगे बढती जा रही थी. "हाँ तो विनयना, आज तुम्हें लिखना है . लो अब यह पेंसिल उठाओ और इन दोनो अक्षरों को अपनी कॉपी में लिख डालो." विनयना तो कब से यही चाहती थी . मेरे मुँह से निकलने की देर थी कि उसने फटाफट पेंसिल अपने अँगूठे और ऊँगलियों के बीच फँसाया और जुट गयी. वह लिख रही थी. तल्लीनता के साथ जुट गयी थी विनयना. उस समय आत्मविश्वास से उसका चेहरा दमक रहा था.
लेकिन जितना लग रहा था काम उतना आसान नहीं , खासा मुश्किला है. मनचाही दिशा में पेंसिल नहीं घूम रही है . विनयना उसे ले जाना चाहती दाँयें और पेंसिल बाँये घूम जाती है .सीधी रेखा खींचती है विनयना और रेखा जो खिंचती है- वह होती है अष्ट्कोणीय . मुसीबत है .दोबारा लिखने की कोशिश करती है किंतु एकाध सैकेंड हाथ कंट्रोल में रहता है और फिर हवा में ऐसे उडने लगता है कि थोडा बहुत जो आकार बना भी होता वह बिगड जाता. अक्षर बन ही नहीं पा रहें हैं .लेकिन उसने अपनी कोशिशें नहीं छोडीं . बडी देर तक वह पेंसिल को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करती रही. वह लिख कर रहेगी .सभी अक्षरों को पहचानने वाली विनयना- 'ब' और 'क' नहीं लिख सकती, ऐसा कैसे हो सकता है .
अब मुझे डर लगना शुरू हुआ. अंजना की निगाहों में छिपा हुआ डर अब मुझे समख में आने लगा था. बैठे-बैठे मैं अपने आप को कोसने लगी कि. आखिर मुझे ऐसी बात सूझी कैसे ? यह काम ठीक नहीं हुआ .अब क्या करूँ ? उससे झूठ भी तो नहीं बोल सकती थी, कि उसने अक्षरों को एकदम सही बनाया है. किसी दूसरे बच्चे को तो झूठ बोलकर फुसलाया जा सकता है किन्यु विनयना को नहीं . यह सम्भव ही नहीं है. झूठा दिलासा उसे कैसे दिया जा सकता है . गलत लिखे अक्षरों को वह सही मानेगी ही नहीं, यह मैं अच्छी तरह से जानतीं हूँ. अक्षरों के सही स्वरूप से विनयना अच्छी तरह से वाकिफ है. उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है.
उसका आत्मविश्वास डिगता जा रहा है. जो मैं कभी नहीं चाहती थी. लेकिन अब ......विनयना हताश हो चली है! वह थकने लगी है! माथे पर नन्हीं-नन्हीं पसीने की बूँदें दिखायी देने लगीं हैं! धीरे-धीरे उसकी एकाग्रता भंग होने लगी है . लिखने की कोशिशों के बीच उसने एक बार अपना मुँह ऊपर उठाया. मैंने उसकी आँखों की कातरता देखी . असफल हुयी है विनयना, इसका अहसास उसे हो रहा था .और उदासी ने उसे घेरना शुरू कर दिया.
पेंसिल उसकी गिरफ्त से छूटकर पहले मेज पर गिरी और फिर लुढकते हुये जमीन पर पहुँच गयी. अपना सिर उसने एक बार फिर कुर्सी पर टिका दिया. लेकिन अब उसका एक दूसरा रूप मेरे सामने था. भिंचा हुआ चेहरा और बार-बार अपने होंठों को काटने की कोशिश करती हुई विनयना, उसक यह रूप मेरे लिये बिल्कुल नया है . इतना असहाय उसे मैंने कभी नहीं देखा था. आहिस्ता-आहिस्ता पहले मैंने अपने आप को सँभाला और फिर उससे कहना आरम्भ किया -
"विनयना देखो तो जरा, तुमने जो अक्षर बनायें हैं , उनमें से ये वाला अक्षर तो कुछ ठीक बना है ! अगर थोडा और कोशिश करोगी तो एकदम सही बनने लगेगा! मैं ठीक कह रहीं हूँ न ! लेकिन आज नहीं . हम कल एक बार फिर इसी तरह लिखने का प्रयास करेंगे .क्यों......?" उसने मेरी बात कितनी सुनी मुझे ठीक से नहीं मालूम किंतु मैंने देखा - उसने अपने काँपते हाँथों से अपनी कॉपी अपने सामने खींच ली और उन पन्नों को खोलकर अपने सामने रख लिया जिस पर दीदी ने उसे अक्षरों और चित्रों को एक दूसरे से मैच करने का काम दिया था! निर्विकार भाव से एक बार उसने मेरी तरफ देखा फिर धीरे से पेंसिल उठा ली और अक्षरों को चित्रों से मिलाने का काम करने लगी .
मैंने मुक्ति की सांस ली. मुझे लगा कि अब विनयना लिखने की जिद नहीं करेगी , लेकिन उसने मुझे गलत साबित कर दिया! उसने हार नहीं मानी थी. दूसरे दिन विनयना का वही रूप फिर से मेरे सामने हाजिर था . किंतु हम दोनो में जल्दी ही समझौता हो गया. सबसे पहले विनयना अपना क्लासवर्क करेगी उसके बाद लिखने का अभ्यास होगा. वह आसानी से सहमत हो गयी! मैंने और अंजना ने एक दूसरे को देखा और फिर बिना कुछ कहे किसी दूसरे कार्य में व्यस्त हो गये . मैं. अंजना और विनयना, तीनों को पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही विनयना इस अभियान में कुछ हद तक सफलता जरूर पा जायेगी.

साभार
(वागार्थ)
पद्मा राय

रविवार, 10 अगस्त 2008

विनयना

स्कूल नजदीक आ चुका है. जाने कब के नौ बज चुकें हैं. कितनी भी जल्दी कर लो किंतु रोज सवा नौ-साढे नौ तो हो ही जातें हैं. भागते हुये गेट से अन्दर घुसी . मुझे जिस क्लास मे पहुँचना है, वह क्लास रूम अन्दर की तरफ- आंगन के दूसरे छोर में है. हमेशा की तरह रास्ते में कई बच्चे-कुछ अपने हाथ से व्हील चेयर को ढकेलते हुये तो कुछ के साथ कोई टीचर या वालंटियर है (उनकी मदद करने के लिये)-अपनी अपनी क्लास की तरफ जाते हुये दिखाई दिये. लगता है अभी ज्यादा देर नहीं हुई थी .
मेरा क्लास रूम सामने था. मैंने देखा , सभी बच्चे ब्रेकफास्ट कर रहे थे.
"गुड मार्निंग एवरी बाडी." कहकर मैं मुस्कुरायी.
तानिश को देखकर हँसी आनी ही थी. वह अपने टिफिन बॉक्स पर झुका हुआ बडे चाव से अपना खाना खा रहा था. आज ही नहीं वह हमेशा ऐसे ही मगन होकर खाता है. उसको इस तरह स्वाद लेकर खाते हुये देखकर सचमुच मेरा भी मन उसका खाना खाने का करने लगता है. उसकी ममा बडे चाव से उसका टिफिन पैक करती है. उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि उनका बेटा खाने का बहुत शौकीन है इसलिए हर दिन कुछ अलग बनाकर उसके लिये भेजती है. तानिश का पूरा ध्यान अपने लंच बॉक्स की तरफ ही है बावजूद इसके सबसे पहले उसने मुझे देखा. उसके हाथ में पैटीस का एक टुकडा था. मुँह में पैटीस लगभग ठूँसते हुये उसने कहा- " गुड मॉर्निंग दीदी."
उसकी आवाज सुनकर बाकी बच्चों को भी याद आया कि वे मुझे विश करना भूल गये थे. सबने मेरी तरफ देखकर शर्माते हुये कहा- "गुड मॉर्निंग पद्मा दीदी."
"हैलो .पद्मा."
मैंने पीछे मुडकर देखा . अमित थी , हमेशा की तरह लगभग भागते हुये क्लास में घुसी . वह फिजियोथेरेपिस्ट है और हमेशा जल्दी में रहती है.
"कैसीं हैं?"
"मैं ठीक हूँ."
"हैलो पद्मा दी," अंजना की आवाज आलमारी की तरफ से आयी-
"मैं सोच ही रही थी कि आज पता नहीं आप आयेंगी भी या नहीं !"
कहते हुये उसने आलमारी बन्द कर दी . उसके हाथ में कैंडल और माचिस थी. प्रेयर की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी.
"आप आ गयीं हैं देखकर अच्छा लग रहा है. पता नहीं क्यों हर दिन हम सबको आपका इंतजार रहता है." अपनी कुर्सी खीचते हुये उसने कहा.
उसकी इस बात का मैं क्या जवाब दूँ , समझ में नहीं आ रहा था . मेरे पास कुछ कहने को था भी नहीं. मैं केवल मुस्कुरा देतीं हूँ. अंजना इन बच्चों की क्लास टीचर है. उसका सारा काम व्यवस्थित और समय से होना ही है. जरा भी इधर उधर नहीं. बच्चे खा चुकें हैं. उनकी तरफ देखकर बोली-
"अच्छा बच्चों ! अब ब्रेकफास्ट ओवर, प्रेयर के लिये सब तैयार हो जाओ ."
अब मेरा काम भी आरम्भ हो गया था. मैंने बारी-बारी सबके खाली लंच बॉक्स बन्द करके उनके बैग के अन्दर रख दिये हैं. नैपकिन से अबके मुँह–हाथ पोंछ दिये हैं. सभी बच्चे प्रेयर के लिये तैयार हो चुकें हैं. मैंने भी एक कुर्सी आगे खींच ली और उस पर बैठ गयी. सामने की दीवार पर एक चार्ट जिसमें अँग्रेजी में एक से दस तक गिनती बडी ही खूबसूरती से लिखा हुआ है- टँगा है.
तैयारी पूरी हो चुकी है . मेज के बीचोबीच मोमबत्ती जल रही थी. बच्चे अपनी–अपनी कुर्सियो में बंधे मेज के चारों तरफ चुपचाप बैठें हैं .अंजना की तरफ सभी बडे ध्यान से देख रहें हैं .
अंजना दीदी बोलीं–
" अब सभी अपनी-अपनी आँखें बन्द करके हाथ जोड लें ."
बच्चों ने अपनी आँखें बन्द करने की हर संभव कोशिश आरम्भ कर दी . तानिश को जरूर कुछ मुश्किल हो रही थी .बार -बार आँखें भींचकर उन्हें बन्द करने की कोशिश करने के बावजूद उसकी आँखें खुल जा रहीं हैं. एक आँख दबाकर और दूसरी खोलकर वह कभी कभी चुपके से सबको देखता है और जब पाता है कि सबकी आँखें बन्द हैं तब झट से अपनी आँखें बन्द कर लेता है .बहुत मेहनत करनी पड रही है. बेहद कठिन कार्य है, लेकिन क्या करे, करना तो होगा ही . न चाहने के बावजूद बार-बार तानिश की आँखे खुलना गलत है - इसका अहसास तानिश को है इसलिये गलती होने के बाद वह अक्सर क्षमा याचना की मुद्रा में अंजना दीदी की तरफ देखता है लेकिन वह ऐसे बैठी रहतीं जैसे उन्होंने कुछ देखा ही नहीं .
मीनू ने अपनी आँखें तो बन्द कर लीं हैं अच्छी तरह से किंतु उसके हाथ उसकी बात मानने के लिये तैयार नहीं . एक साथ दोनो हाथ जुडने की मुद्रा में आ ही नहीं पा रहें हैं लाख प्रयास करने के बावजूद एक हाथ दूसरे से दूर भाग जाता है . मुश्किल में है मीनू किंतु कोशिश जारी है .
विनयना अद्भुत है, हर कार्य बडी ही तन्मयता से करने की कोशिश करते हुये, उसे हमेशा ही देखा है मैंने . आई क्यू लेवेल काफी हाई, पर अक्सर लाख कोशिशों के बावजूद असफल रह जाने पर मैने कई बार उसकी आँखों में आँसू लहराते हुये देखा है. उसका शरीर उसके अपने ही दिमाग का आदेश मानने से इंकार करता है .फिर भी वह बहादुरी के साथ अपनी लडाई लड रही है. मैं अपने दोनों हाथ जोड कर विनयना की कुर्सी के पीछे आँख बन्द किये खडी हूँ .
अंजना दी की प्रेयर शुरु हो चुकी है.
"ओम... ओम...ओम..लोका समस्ता, सुखिनो भवंतु .ओम ....शांति... शांति...शांति." प्रेयर समाप्त हो गयी है . "अब धीरे धीरे सभी बच्चे अपने दोनो हाथों को एक दूसरे से रगड कर आँखों के पास ले जायेंगे और फिर अपनी आँखों को धीरे धीरे खोलेंगे ." अंजना दी स्वयं भी ऐसा ही करते हुये बच्चों से कह रहीं थीं .
ज्यादातर बच्चे जो पहले ही अपनी आँखें खोल कर बैठे थे अंजना दी की बात सुनकर उन्होंने झट से अपनी आँखें बन्द कर लीं हैं और उनकी नकल करने में जुट गयें हैं . मुझे हँसी आ रही है. बमुस्किल अपनी हँसी रोककर उनकी कोशिशों को चुपचाप देख रहीं हूँ .
अंजना से कुच भी नहीं छिपा किंतु वे गम्भीर हैं बच्चों को नहीं पता कि अंजना दी ने उन्हें आँखें खोले देखा है . बच्चों के सामने अंजना अक्सर गम्भीर ही रहती है .
"हाँ तो बताओ त, तुममें से आज कैंडल कौन बुझायेगा ?".
"मैं दीदी..." मैं दीदी.." कई आवाजें एक साथ मुझे सुनाई दे रहीं हैं. बच्चों की निगाहें मेरी तरफ हैं . निर्णय मुझे लेना है .
" आज तो विनयना की बारी है ." मैंने अंजना की तरफ देखते हुये कहा
विनयना बहुत खुश है . अंजना ने धीरे से कैंडल को उठाया और उसके करीब पहुँचा दिया .
" मैं कल बुझाऊँगा, न...दीदी !" साहिल ने बडी उम्मीद से मुझे देखा.
"हाँ ..साहिल कल तुम्हारी ही बारी है ." मैने उसके बाल सहलाते हुये कहा .
अब पूरी क्लास का ध्यान विनयना की तरफ . मैं उसके बगल में रखी हुयी कुर्सी पर बैठ गयी .
"अफ्फू...अफ्फू...अफ्फू..." जी जान से जुटी है विनयना .उसका जॉ मूवमेंट प्रापेर नहीं है .
मुझे बेचैनी होने लगी .और तभी अचानक जैसे मुझे कुछ हुआ.
अभी विनयना की कोशिश जारी ही थी कि अनजाने में मैंने भी ठीक उसी समय फू किया जब विनयना ने अफ्फू किया था, कैंडल की लौ तेजी से लहराई और फिर ...एक पतली सी धुएँ की लकीर में परिवर्तित हो गयी.
अंजना मेरी तरफ देखकर हल्के से मुस्कुरायी . बच्चों ने कुछ नहीं देखा . वे जोर जोर से ताली बजा रहें हैं . सब खुश हैं . विनयना ने आज पहली बार कैंडल जो बुझायी है .
"वेरी गुड विनयना ," अंजना दी के कहते ही उसकी निर्दोष आँखों की चमक दुगनी हो गयी .
आज पूरे दिन मैं मगन हूँ .बार-बार उसकी आँखों की चमक मेरी नजरों के सामने कौंध जा रही है . मेरी खुशी छिपाये नहीं छिप रही .दिन भर में कई लोग मुझसे पूछ चुके कि आखिर मेरे इतना खुश होने के पीछे कौन सा राज छिपा है . पता नहीं क्यों, बडे से बडा काम करके भी शायद मुझे कभी इतना सौख नहीं मिल पाया है जितना आज अनजाने मेँ किया हुआ यह 'फू...' दे गया है .

साभार (वर्तमान साहित्य)
पद्मा राय.