शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

'ब', 'क' और विनयना

हमेशा की तरह नाक की सीध में चलती जा रही थी कि रिसेप्शन पर नीरा दी दिखाई दीं . पंकज से बात कर रहीं थीं! उन्हें वहाँ देखकर स्कूल की पत्रिका की याद आई. एक दिन पहले ही मिली थी, उसमें वीरा दी का आर्टिकल पढने को मिला. कमाल का सेंस ऑफ ह्यूमर है इनका . आज उन्हें यहाँ देखकर उनकी कृति की याद ने हंसने के लिये मजबूर कर दिया . वास्तव में अनूठी रचना थी . मजा आ गया उसे पढकर. उन्हें बधाई देने का मन चाहा.
लेकिन इस समय नहीं , अगर बातों में उलझ गयी तो क्लास रूम तक पहुँचते पहुँचते ब्रेकफास्ट ओवर हो जायेगा- फिर कभी , मन में कहते हुये आगे बढ गयी.
यह केवल इस एक दिन की बात नहीं है, इधर कई दिनों से विनयना का व्यवहार ऐसा ही है! उसके सामने मैंने उसकी नोट बुक खोलकर रख दी और उसकी कलाई में रिस्ट बैंण्ड बाँधकर उसे एक मोटी पेंसिल पकडा दी, अब उसे लिखना चाहिये था.लेकिन वह अनमनी -सी होकर बैठी रही. पेंसिल उससे सँभल नहीं रही थी या कि वह उसे सँभालना ही नहीं चाहती थी. मैं नहीं जानती कि मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि वह जानबूझ कर ऐसा कर रही थी. उसे उन अक्षरों को उनके सामने बने चित्रों के साथ मैच करवाना था जो उन्हीं अक्षरों से प्रारम्भ होते थे. पेंसिल तो उसने संभाल ली थी लेकिन मैच करवाने के बजाय वह उस पन्ने पर आडी-तिरछी , टेढी-मेढी रेखाओं वाली अजीबोगरीब आकृतियों का निर्माण करने मे जुटी हुयी थी. उसको मनाने का मेरा हर संभव प्रयास बेकार जा रहा था! वह किसी भी तरह आज कुछ करने के लिये तैयार नहीं हो रही थी. थोडी देर में वह उससे भी ऊब गयी और अब उसने पेंसिल पकडने से भी इंकार कर दिया . हद तो यह हुई कि उसने अपने दोनो हाथ मेज पर रखकर अपना सिर पीछे कुर्सी पर टिका दिया और अपने सिर से पूरी ताकत लगाकर कुर्सी को पीछे की तरफ ढकेलने लगी . कई बार कुर्सी उलटते उलटते बची . इतने पर भी जब उसे संतोष नहीं हुआ तो वह अपने काँपते हाथों से सामने मेज पर रखी हुई तमाम वस्तुओं को जल्दी-जल्दी हटाने लगी . देखते ही देखते, कुछ ही देर में उस पर रखी सभी वस्तुयें एक-एक करके जमीन पर पहुँच गयीं. उन सबको उठाकर मैंने वापस मेज पर रख दिया. उसने दोबारा वही काम किया! मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी. मेरे पास चुपचाप बैठकर उसे निहारते रहने के अलावा कोई चारा भी नहीं था. मैंने असहाय होकर अंजना की तरफ देखा- अंजना ने कहा,
"इसकी तरफ ध्यान मत दीजिए, थोडी देर में अपने आप नॉर्मल हो जायेगी."
न चाहते हुये भी मेरा ध्यान बार-बार उसकी तरफ चला जा रहा था! न जाने क्यों उसका क्रोध बढ रहा था और कुर्सी पर उसके सिर के टकराने की रफ्तार भी बढती जा रही थी. अपनी पीठ से कुर्सी को वह बार-बार धक्का दे रही थी. पेंसिल, रबर, शार्पनर और चित्रों वाली कॉपी, सभी कुछ नीचे जमीन पर पहुँच चुका था. ऐसा केवल एक बार नहीं बल्कि कई बार हो चुका था. दो बार तो पृथ्वी ही उन चीजों को उठाकर मेज पर रख चुका था. इस समय भी सभी कुछ जमीन पर बिखरा हुआ है. मेज बिल्कुल साफ सुथरी और खाली उठाकर मेज पर उसके सामने रख दिया. तिरछी आँखों सॆ विनयना ने उन्हें देखा जरूर किंतु तब भी उसकी हरकतों में किसी प्रकार की रूकावट नहीं आयी.
कोई बात है तो जरूर, पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. वह ऐसी तो नहीं थी! सबसे कम उम्र की विनयना मल्टिपल प्रोब्लम्स की शिकार थी. ठीक से बोल नहीं सकती थी, चलने के लिये व्हील चेयर का सहारा लेना पडता था उसे और उसके हाथ भी उसके आदेशों को मानने से इंकार करते थे, इसके बावजूद पूरी तरह से अपने काम के प्रति समर्पित और एकाग्रचित्त होकर जी-जान से सबसे आगे रहने की विनयना की कोशिशें हमें अचम्भित करतीं थीं. सभी बच्चों में एक अकेली वही थी जिसका मन पढाई में हमेशा लगता था! पढते समय कभी भी वह दूसरी बातों की तरफ आकर्षित नहीं होती थी. ये बात दीगर है कि आरम्भ में तो सभी बच्चे ध्यानमग्न होकर समझदारी के साथ पढते हुये दिखायी देते हैं, और ऐसा लगता है कि आज वे अपना पूरा काम निर्धारित समय में पूरा कर के ही दम लेंगे, लेकिन जल्दी ही उन सबका धैर्य चुकता हो जाता था! तानिश को टॉयलेट जाना होता है या फिर भूख ही लग जाती है, साहिल को अपनी साल भर पहले की लगी हुयी चोट में दर्द होने लगता है और इशिता को जिस नये स्कूल में आगे पढने जाना उसकी याद सताने लगती है. बचती है तो सिर्फ विनयना जो अपने काम को पूरी निष्ठा के साथ पूरा करके ही मानती थी. उस समय उसे अपनी पढाई के अलावा और कुछ भी याद नहीं आता . आँखों की पुतलियों को पूरा फैलाकर दीदी की तरफ टुकटुकी लगाए एकाग्रचित होकर सब कुछ सुनने वाली विनयना की पढाई में इतनी दिलचस्पी देखकर अंजना का मन भी उसे ज्यादा से ज्यादा सिखाने के लिये बेताब रहता . विनयना चाहती भी यही कि वह जितनी जल्दी हो सके , सब कुछ सीख जाये! और दुनियाँ भर की तमाम जानकारियाँ उसे हासिल हो जायँ.
पढते समय उसका ध्यान कहीं और नहीं भटकता था. किंतु साहिल, इशिता, मीनू और तानिश- चारों का हाल बिल्कुल उल्टा था! पढाई के अलावा और दूसरी कोई भी चीज उन्हें बहुत जल्दी अपनी तरफ आकर्षित कर सकती थी . कितनी सारी बातें होतीं उनके नन्हें से दिमाग में और कितनी सारी नई चीजें हर नये दिन उनके दिमाग में जुडती जातीं हैं. उन सबके बारे में उनकी उत्सुकता इतनी होती है कि जितनी देर चाहो वे सब उन चीजों को लेकर बातें कर सकते थे. बातें करके वे कभी थकते भी नहीं. वे सोचतें-
"अगर पढना न होता तो कितना मजा आता!" लेकिन आज विनयना को क्या हो गया है ? पढने लिखने से इसका मन क्यों उचट गया है ? सोचते हुये मैंने एक कुर्सी खींची और ठीक उसके सामने बैठ गयी! उसके हाथों की ऊँगलियों के बीच पेंसिल पकडाने की कोशिश की . उसके ओंठ कुछ टेढे हुये और पेंसिल को उसने अपने दोने हाथों से पकडकर अपने बाएँ हाथ के अँगूठे और ऊँगलियों के बीच में संभाला तो मुझे उम्मीद हुयी कि अब विनयना अपना काम करेगी. लेकिन उसने अपने उसी अंदाज में ऊँगलियों को घुमाना शुरू किया. दोबारा मार्डन आर्ट बनाने में मशगूल हो गयी विनयना.
मैं समझ गयी कि इस तरह तो कई दुर्लभ चित्र आज उसके हाथों बन कर तैयार हो जायेंगे. और उसकी प्रदर्शिनी लगाने के लिये हमारे स्कूल का हॉल भी छोटा पड जायेगा. मैंने कुछ न बोलने में ही खैरियत समझी. उसके मन में जो आ रहा था वह करती जा रही थी और मैं असहाय, उसके सामने चुपचाप बैठी हुयी उसकी इन हरकतों को देखती हुई बैठी थी! उसकी इन कारस्तानियों के बीच मैंने किसी तरह की दखलान्दाजी नहीं की. विनयना को मुझसे ऐसी उम्मीद शायद नहीं थी. ऐसा कभी हुआ था कि दीदी के दिये हुये कार्य को न करके कोई बच्चा आडी तिरछी रेखायें खींचता रहे और दीदी उस बच्चे को कुछ न कहे . वह बोर हो गयी शायद , इसलिये अचानक उसने अपनी पेंसिल छोड दी और मेरी तरफ चुपके से अपनी आँखे उठाकर देखा, शायद सोच रही होगी कि मैं उससे कुछ कहूँगी! मैंने कुछ नहीं कहा लेकिन वह क्या कर रही है, किसे देख रही है और बार बार उसकी निगाहें किधर देख रहीं हैं , इसकी तरफ मेरा पूरा ध्यान था. एक बात की तरफ मेरा ध्यान बार-बार जा रहा था कि बीच-बीच में विनयना की नजरें अपने आस-पास बैठे बच्चों की पेंसिलों और कॉपियों पर फिसल रहीं थी. एकाएक मुझे बात कुछ कुछ समझ में आने लगी, ऐसा मुझे लगा- हो न हो यही बात है. शायद मैं ठीक ही समझ रही थी. थोडा बहुत शक भी था! उस समय मुझे ऐसा महसूस हुआ कि दूसरे बच्चों की तरह विनयना भी लिखना चाहती थी. उसकी कॉपी में दीदी द्वारा लिखे गये अक्षरों को , उन्हीं अक्षरों से आरम्भ होने वाले चित्रों से मैच कर-कर के शायद वह बोर हो चुकी हो , क्या पता ? तभी तो आज कितने प्यारे-प्यारे चित्र बनाकर अंजना ने उसकी कॉपी में दिये थे किंतु उसने उधर जरा सा भी ध्यान नहीं दिया. जरा सी भी उत्सुकता उसने उन्हें देखने की नहीं दिखायी. उन चित्रों की तरफ तो उसने एक बार ठीक से देखा भी नहीं.
अब उसका मन नहीं लग रहा इस बोरिंग काम में! अब उसे नहीं करना है ये सब, कब तक केवल मैचिंग ही करती रहे ? यह सब तो उसे बहुत पहले ही आ गया था. अब वह कुछ और नया सीखना चाहती है, उसे सबसे आगे जो रहना है! सबसे आगे रहने की उसकी आकांक्षा ही आज उससे यह सब करवा रही है शायद! मन कह रहा था कि मेरी सोच सही है . धीरे धीरे विश्वास हो चला कि इसके अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता! विनयना सारे अक्षरों को पहचानने लगी है. शब्दों को ही नहीं अब तो उसने पूरे-पूरे वाक्यों को भी पढना आरम्भ कर दिया है. लेकिन तब भी दीदी उसे मैचिंग करने के लिये दे देतीं हैं. क्यों देतीं हैं ? कितने दिन और यही करती रहेगी ? जबकि उसे यह सब अच्छी तरह से आता है. उसके बाकी साथी अभी तक अक्षरों को भी ठीक से नहीं पहचानते! उसी में उलझे रहतें हैं! कोई बच्चा उसकी तरह नहीं पढ सकता! तब भी मीनू के अलावा सभी इशिता, साहिल, तानिश लिखतें हैं , दीदी उनसे डाँट डाँट कर लिखने को कहतीं हैं , उससे क्यों नहीं ? वे ठीक से नहीं लिखते तो कई बार तो उनका हाथ पकड कर लिखवातीं हैं . उन सबको लिखते हुये देखकर उसका भी मन करता है , वह भी लिखना सीखे , लेकिन दीदी हैं कि समझती ही नहीं ! प्रतिदिन वे सब लिखतें हैं फिर विनयना क्यों नहीं ? वह भी लिखेगी! अंजना दीदी नहीं लिखवातीं, कोई बात नहीं, वह अपने आप लिखेगी. उसने तय किया है और अब यही करने की उसने ठानी है! वैसे तो मुझे अपने अनुमान पर भरोसा हो चला था किंतु एक बार उससे पूछने में क्या हर्ज है, सोचकर मैंने पूछा- "क्या बात है विनयना ? क्यों नहीं अपना काम जल्दी से पूरा कर लेती हो ? तुम्हें सब कुछ आता है न . देखो सबने अपना-अपना काम तुमसे पहले पूरा कर लिया है - ऐसा पहले कभी हुआ था ?" मेरी तरफ देखकर उसने जल्दी से कुछ कहा, जिसे पहले तो मैं समझ नहीं पायी! वह बोल सकती है , बोलती भी है, सब कुछ समझाने का प्रयास करती है किंतु उसकी जीभ के सही जगह नहीं पहुँच पाने के कारण उसकी आवाज साफ-साफ समझ में नहीं आती और शब्दों को पकडने में हमें कठिनाई होती है. हम अटकलें लगातें हैं और हमारी कोशिशें तब तक जारी रह्तीं हैं, हमारे गलत अनुमान लगाने पर वह अपने सिर को दांये-बाँयें हिलाकर हमें आगाह कराती है कि हम उसकी बात सही नहीं समझ पायें हैं, हम गलत सोच रहें हैं. सही सिरा हमारे हाथ में आते ही उसकी मुस्कुराहट देखने लायक होती है, उसका चेहरा चमकीला हो उठता है और तब उसके सभी हाव-भाव खुशनुमा हो उठतें हैं.
अपने कान उसके नजदीक ले जाकर मैंने ध्यान से उसकी बात सुनी और समझने की कोशिश की. शायद कुछ समझ में भी आया .
"तुम भी लिखोगी , जैसे तानिश लिख रहा है ?"
पहले विनयना मुस्कुरायी और उसके बाद जो उसने किया वह देखने लायक था. विनयना का सिर दाँयें-बाँयें, ऊपर-नीचे गरज ये कि जिधर की तरफ भी वह अपने सिर को हिला सकती थी, हिला रही थी. उसके हाथ जैसे हवा में उड रहे थे.
अंजना भी वहीं थी . हम दोनो अवाक वहाँ बैठे एक दूसरे को देख रहे थे. आगे क्या होने वाला है , हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते थे . अपनी बात हम तक पहुँचाकर अब वह आराम से अपने सिर को कुर्सी की पीठ से टिकाकर बैठी थी. मन्द-मन्द मुस्कुराती विनयना शांत होकर शायद आगे की सोच रही थी.
बिना कुछ सोचे समझे मेरे मुँह से अचानक निकला- "तो लिखो न ." तुमने पहले कभी कहा क्यों नहीं ?" मेज पर से उसकी कॉपी उठाकर मैंने उसके एक पन्ने पर, सबसे पहली पंक्ति में बडे-बडे दो अक्षर लिख दिये . जब मैं लिख रही थी उस समय उसका पूरा ध्यान मेरे लिखने पर ही था. अपनी बारी का इंतजार था उसे . सभी अक्षरों को वजह अच्छी तरह से जानती- पहचानती है. फिर भला उन्हें लिखने मे उसे कितनी देर लगेगी ? मैं कनखियों से उसे देख रही थी. मैंने कहा- "पढो इसे." मेरी तरफ देखकर वह हँसी, फिर बोली- "ब ....,.क...... ,खिल..खिल..खिल..खिल." ढेरों गुलाब खिल उठे एक साथ. उनकी खुशबू से पूरा कमरा महक उठा. मुझे महसूस हुआ जैसे गुलाबों की खुशबू में रात रानी की भीनी-भीनी सुगन्ध भी मिल गयी हो . "ठीक है .वेरी गुड .एक दम सही पढा है तुमने ."
फिर मैने अंजना की तरफ देखा और कहा -
"अंजना दी आज आप इसे एक स्टार दीजियेगा."
अंजना मेरी तरफ देख रही थी और शायद अगे क्या हो सकता है, सोचकर डरी हुयी भी थी. लेकिन न जाने क्यों मैं उनकी तरफ ध्यान दिये बिना आगे बढती जा रही थी. "हाँ तो विनयना, आज तुम्हें लिखना है . लो अब यह पेंसिल उठाओ और इन दोनो अक्षरों को अपनी कॉपी में लिख डालो." विनयना तो कब से यही चाहती थी . मेरे मुँह से निकलने की देर थी कि उसने फटाफट पेंसिल अपने अँगूठे और ऊँगलियों के बीच फँसाया और जुट गयी. वह लिख रही थी. तल्लीनता के साथ जुट गयी थी विनयना. उस समय आत्मविश्वास से उसका चेहरा दमक रहा था.
लेकिन जितना लग रहा था काम उतना आसान नहीं , खासा मुश्किला है. मनचाही दिशा में पेंसिल नहीं घूम रही है . विनयना उसे ले जाना चाहती दाँयें और पेंसिल बाँये घूम जाती है .सीधी रेखा खींचती है विनयना और रेखा जो खिंचती है- वह होती है अष्ट्कोणीय . मुसीबत है .दोबारा लिखने की कोशिश करती है किंतु एकाध सैकेंड हाथ कंट्रोल में रहता है और फिर हवा में ऐसे उडने लगता है कि थोडा बहुत जो आकार बना भी होता वह बिगड जाता. अक्षर बन ही नहीं पा रहें हैं .लेकिन उसने अपनी कोशिशें नहीं छोडीं . बडी देर तक वह पेंसिल को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करती रही. वह लिख कर रहेगी .सभी अक्षरों को पहचानने वाली विनयना- 'ब' और 'क' नहीं लिख सकती, ऐसा कैसे हो सकता है .
अब मुझे डर लगना शुरू हुआ. अंजना की निगाहों में छिपा हुआ डर अब मुझे समख में आने लगा था. बैठे-बैठे मैं अपने आप को कोसने लगी कि. आखिर मुझे ऐसी बात सूझी कैसे ? यह काम ठीक नहीं हुआ .अब क्या करूँ ? उससे झूठ भी तो नहीं बोल सकती थी, कि उसने अक्षरों को एकदम सही बनाया है. किसी दूसरे बच्चे को तो झूठ बोलकर फुसलाया जा सकता है किन्यु विनयना को नहीं . यह सम्भव ही नहीं है. झूठा दिलासा उसे कैसे दिया जा सकता है . गलत लिखे अक्षरों को वह सही मानेगी ही नहीं, यह मैं अच्छी तरह से जानतीं हूँ. अक्षरों के सही स्वरूप से विनयना अच्छी तरह से वाकिफ है. उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है.
उसका आत्मविश्वास डिगता जा रहा है. जो मैं कभी नहीं चाहती थी. लेकिन अब ......विनयना हताश हो चली है! वह थकने लगी है! माथे पर नन्हीं-नन्हीं पसीने की बूँदें दिखायी देने लगीं हैं! धीरे-धीरे उसकी एकाग्रता भंग होने लगी है . लिखने की कोशिशों के बीच उसने एक बार अपना मुँह ऊपर उठाया. मैंने उसकी आँखों की कातरता देखी . असफल हुयी है विनयना, इसका अहसास उसे हो रहा था .और उदासी ने उसे घेरना शुरू कर दिया.
पेंसिल उसकी गिरफ्त से छूटकर पहले मेज पर गिरी और फिर लुढकते हुये जमीन पर पहुँच गयी. अपना सिर उसने एक बार फिर कुर्सी पर टिका दिया. लेकिन अब उसका एक दूसरा रूप मेरे सामने था. भिंचा हुआ चेहरा और बार-बार अपने होंठों को काटने की कोशिश करती हुई विनयना, उसक यह रूप मेरे लिये बिल्कुल नया है . इतना असहाय उसे मैंने कभी नहीं देखा था. आहिस्ता-आहिस्ता पहले मैंने अपने आप को सँभाला और फिर उससे कहना आरम्भ किया -
"विनयना देखो तो जरा, तुमने जो अक्षर बनायें हैं , उनमें से ये वाला अक्षर तो कुछ ठीक बना है ! अगर थोडा और कोशिश करोगी तो एकदम सही बनने लगेगा! मैं ठीक कह रहीं हूँ न ! लेकिन आज नहीं . हम कल एक बार फिर इसी तरह लिखने का प्रयास करेंगे .क्यों......?" उसने मेरी बात कितनी सुनी मुझे ठीक से नहीं मालूम किंतु मैंने देखा - उसने अपने काँपते हाँथों से अपनी कॉपी अपने सामने खींच ली और उन पन्नों को खोलकर अपने सामने रख लिया जिस पर दीदी ने उसे अक्षरों और चित्रों को एक दूसरे से मैच करने का काम दिया था! निर्विकार भाव से एक बार उसने मेरी तरफ देखा फिर धीरे से पेंसिल उठा ली और अक्षरों को चित्रों से मिलाने का काम करने लगी .
मैंने मुक्ति की सांस ली. मुझे लगा कि अब विनयना लिखने की जिद नहीं करेगी , लेकिन उसने मुझे गलत साबित कर दिया! उसने हार नहीं मानी थी. दूसरे दिन विनयना का वही रूप फिर से मेरे सामने हाजिर था . किंतु हम दोनो में जल्दी ही समझौता हो गया. सबसे पहले विनयना अपना क्लासवर्क करेगी उसके बाद लिखने का अभ्यास होगा. वह आसानी से सहमत हो गयी! मैंने और अंजना ने एक दूसरे को देखा और फिर बिना कुछ कहे किसी दूसरे कार्य में व्यस्त हो गये . मैं. अंजना और विनयना, तीनों को पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही विनयना इस अभियान में कुछ हद तक सफलता जरूर पा जायेगी.

साभार
(वागार्थ)
पद्मा राय

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

स्वतंत्रता दिवस की बहुत बधाई एवं शुभकामनाऐं.

बेनामी ने कहा…

कहानी पढी . बहुत अच्छी है . दिल दिमाग दोनो पर असर डालती है. इस नई दुनियां से हमारा साक्षात्कार कराने के लिये धन्यवाद.

कविता