बुधवार, 27 जनवरी 2010

अंतिम इच्छा-

"बडी मुश्किल से बुआ जी की आँख लगी है , लगता है आज कुछ कुछ ज्यादा तकलीफ में हैं." रसोई के रोशनदान से छनकर आती हुयी आवाज बडकी दुलहिन की थी. वे सुन रहीं थीं. आधी नींद में और आधी जगी हुयी अपनी आँखें बन्द करके बुआ जी लेटीं थीं. किसी चलचित्र की तरह उनका पूरा जीवन उनके दिलो-दिमाग में घूम रहा था . वे अपने आप से ही बातें कर रहीं थीं-
तकलीफ तो हमें है पर यह तकलीफ तो एक दिन होनी ही थी. दुर्गा भवानी , भैया को खूब खुश रखें जिनके कारण यह तकलीफ आधी रह गयी है. खूब फलें फूलें वे , यही हमारी मनोकामना है. उन्होंने हमें कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वे हमारे बेटे नहीं हैं. किसे मालूम कि बेटा होने पर कोई सुख मिलता भी कि नहीं परंतु भैया ने अपने सगे बेटे से बढकर हमारी देखभाल की. आज सबेरे की ही तो बात है, वे देर तक हमारे पैताने बैठ कर हमारी हाल खबर पूछते रहे. बडी फिकर है उन्हें. हमारी बिमारी लम्बी खिंचती जा रही है इसीलिये भैया परेशान हैं. हमें मानते भी कितना हैं. कोई कुछ भी कहे परंतु इस एक मामले में तो हम हैं बडे भाग वाले. बिमारी अमारी तो आती रहती है. जी भी तो बहुत चुके !. अब ऊपर वाले का बुलावा लगता है आन पहुँचा है. हम तो उसी दिन समझ गये थे जिस दिन यूनिवर्सिटी से बडे डाक्टर आये थे. हमारी नाडी पकडते ही उनके माथे की शिकन गहराने लगीं थीं. आला लगाकर देखते समय उनका चेहरा कुछ ठीक नहीं लगा था.
हमसे पूछे भी,
"बुआ जी ठीक तो हैं न ?" न जाने क्यों उस समय हम कुछ बोल नहीं पाये थे, केवल मुस्कुराने की कोशिश करते रह गये थे.
डाक्टर साहब को बाहर तक छोडने बडके बचवा गये थे . लौटे तब उनका मुहँ लटका था. हम क्या समझते नहीं ? अब इतने नादान भी नहीं रहे . पहाड सी जिन्दगी यूँ ही नहीं बीत गयी. जाने कितनो ने इन्हीं आँखों के सामने जनम लिया और पता नहीं कितने परलोक सिधारे.
एक दिन मरना तो हमें है ही, कोई अमरित की घरिया पीकर तो आये नहीं थे कि अजर अमर हो जायेंगे. अब ये तो नहीं मालूम कि अमरित जैसी कोई चीज होती भी है या नहीं. गूलर के फूल की तरह इसे भी किसी ने नहीं देखा.
भगवान के घर से अगर हमार बुलावा आया है तब जाना तो पडेगा ही. उसकी इच्छा सर्वोपरि है यह तो सभी कहतें हैं, उस पर किस का वश है ! छठी के दिन विधाता अपनी कलम से सबका भाग लिखतें हैं. हमने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि हम फूटी किस्मत के साथ पैदा हुये. लेकिन हमारा भाग भी तो उसी ने लिखा होगा जो सबका भाग लिखता है और उस दिन जो लिख दिया होगा वही हम अब तक जीते आये. उसकी लीला वही जाने लेकिन अगर हमसे विधाता की कभी मुलाकात हुयी तब उससे एक बात हम जरूर पूछना चाहेंगे- कि आखिर उसने हमारा भाग ऐसा क्यों लिखा ? लोग कहतें हैं कि जैसी करनी वैसी भरनी. लेकिन तब तो हमारी उमर भी ऐसी नहीं थी कि हमने कोई पाप कर सकें. शायद अनजाने में कोई करम बिगड गयें हों ! या कि पूर्व जनम का फल मिला हो. अब ये सब कौन जाने ? कर्मों का हिसाब तो विधाता के पास ही होगा उसी से पूछेंगे. पीछे मुडकर देखतें हैं तब समझ में आता है कि कितना लम्बा जीवन पीछे छूट गया. लोग कहते थे कि अकेले कैसे बितायेगी इतना लम्बा-पहाड जैसा जीवन ? पर बीत ही गया.
ब्याह का मतलब तो हम जानते नहीं थे लेकिन जब ब्याह हमारा हुआ था उस दिन की कुछ बातें हमें अब भी याद है लेकिन न तो हमें अपनी माँग में सिंदूर पडने की याद है और न ही भांवरों के घूमने की. पंडित सात बचन पढकर सुनातें हैं और उसे अपने मन में गांठ बांधकर रखना होता है लेकिन उन्हें सुनने की जब हमारी बारे आयी तब हम वो भी नहीं सुन पाये थे. नऊनियां की गोदी में गुडमुडिया कर सोये पडे थे उस बखत हम. शादी का सब कारज खतम हुआ तो वही हमें उठायी थी. हमारे पैर में झुनझुनी चढ आयी थी. जो सिंधोरा हम अपने हाथ में पकड कर बैठे थे वो नींद में हमारे हाथ से छूट कर गोद में पहुँच गया था. कुम्भकरण जैसी नींद भी तो होती थी तब हमारी. जब उठ कर खडे हुये तो सिंधोरा गोद से उछल कर जमीन पर गिर गया था. सारी धरती सिंदूर से लाल हो गयी थी. तब सबसे डाँट पडेगी -सोचकर हम बहुत डर गये थे. आजी और अम्मा तो अपने देवता ,पितरों को मनाने में लगीं थीं. अपशकुन जो हुआ था. किसी भारी अनिष्ट की आशंका से बाबूजी का भी मुँह उतर गया था.
अपशकुन था कि नहीं, नही जानती लेकिन दूसरे दिन जब बारत वापस लौट रही थी तब जिसने एक दिन पहले उसी सिंधोरे के सिंदूर से हमारी मांग भर हमें अपनी ब्याहता बनाया था उसे ही लू लग गयी थी और उसके घर पहुँची थी उसकी मिट्टी . तब शादी ब्याह जेठ बैसाख के महीने में ही ज्यादा होते थे और उन दिनों सूरज तपता भी बहुत है. हमारा लगन भी जेठ के महीने में ही हुआ था. लू के थपेडे सूरज डूबने के बाद तक चलते रहते थे.
अब जब सोचतीं हूं तब समझ में नहीं आता कि उस समय की अपनी हरकतों पर हसें कि रोयें. हर साल तीज आती थी कई त्यौहार भी आते थे और तब आती थी चूडिहारिन. आलता और नहन्नी लेकर नऊनियाँ भी आती थी. भौजाई, चाची सभी रंग बिरंगी चूडीयाँ पहनते और फिर नऊनियां से अपने हाथ पैर के नाखून कटवाकर आलता से अपने पैर रंगवाते. पैरों पर नऊनियां रच रच कर चिरई बनाती. हम सबको यह सब करवाते हुये चुपचाप देखते और अपनी बारी का इंतजार करते लेकिन हमारी बारी जब अंत तक नहीं आती तब हम सारा घर सिर पर उठा लेते थे और अड जाते कि हमें भी भर हाथ चूडी पहननी है और पैरों में महावर लगवाना है.अम्मा हमें कुछ कहने के बजाय हमारे भाग को कोसतीं जातीं और अपने धोती के अचरा से अपने बह्ते आँसू पोंछती जातीं. लेकिन बडे होते जाने के साथ साथ हम सब कुछ अपने आप समझ गये थे. अपने मन को मारना हम सीख लिये थे. लेकिन हाँ भौजी की भरी कलाइयों की चूडियों के खनकने की आवाज सुनकर कलेजा टीसता जरूर था. मन मसोस कर हम अपनी कोठरी में घुस जाते थे. अपनी सूनी कलाइयों के देखते रहते और र्प्ते जाते. मन हल्का कर के , जब हम कोठरी से बाहर आते तब चेहरे पर ऐसा कुछ नहीं होता था जिससे किसी को हमारी हालत का भान भी हो पाये.हमारी डंडे जैसी कलाइयों को देखकर अम्मा जरूर अपने को रोक नहीं पातीं थीं-रोने लगतीं थीं. एक बार तो बाबूजी के सामने वो जिदिया गयीं. उसी समय बाबूजी ने हमारे लिये सोने की चार चूडियाँ बनवाईं थीं.. वही चूडियाँ हमारे हाथ अब भी हैं .
ससुराल क्या होता है ? वहाँ कैसे रहा जाता है, हमें इसका अनुभव नहीं. होता भी कैसे जब कभी ससुराल गये ही नहीं ! बाबूजी ने जाने ही कब दिया ! हम नैहर में ही अपनी सारी जिन्दगी बिता दिये पर रहे हम मलकिन बन कर ही. हमारी मर्जी हमेशा सबसे ऊपर रही. पहले भगवान को भोग लगता और तब हम खाने बैठते.
अपने ही घर का क्यों पूरे गांव में किसी के घर जच्चगी हो, मुंडन हो या कोई भी काज परोज हो बिना हमारी राय के पूरा नहीं होता. घर की तिजोरी की चाभी हमारे ही आंचल के खूंटे में हमेशा बन्धी होती. राज किया हमनें जीवन भर. सबने बडा मान दिया हमको. नैहर का सुख तो हम बहुत उठाये अब रही ससुराल की बात तो जो हमारे भाग में ही नहीं लिखा था वो भला हमें कैसे मिलता ? मजाल नहीं किसी की जो हमारी बात टाल जाय. कभी कभी हमें न जाने क्या हो जाता था ! हम पगलाने लगते थे. बिला वजह चिड-चिड करने लगते तब सारी दुनियां अपनी दुश्मन लगने लगती. जब तक हमारा दिमाग सही न हो जाता तब तक सब डरते रहते थे. न जाने कितनी बार सिर्फ हमारे कारण घर में बवाल हुआ. हम खूब जानतें हैं कि मन ही मन पुष्पा अरे वही शेखर की दुलहिन हमें जरूर कोसती होगी. हम भी तो अक्सर बिना कारण ही उस पर नाराज हो जाते थे. बडकी दुलहिन सावित्री के सामने हमें वो अच्छी ही नहीं लगती. कई बार तो उसकी सही बत भी हमें गलत लगती . इस मामले में गलती हमारी है यह हम अच्छी तरह जानतें हैं पर करें क्या ? अब तो चाहें भी तो उसे ठीक नहीं कर सकते.
बहुत नेम धरम से रहे हम. पुरोहित जो पूजा पाठ करने को कहते थे वो सब हमने की. कोई कह तो दे कि हमने कोई ऐसा काम किया हो जो हमारे जैसी भाग्यहीन औरतों के लिये वर्जित हो. अब मरती दांयीं भगवान झूठ न बुलवाये मन तो हमारा भी बहुत करता था सजने संवरने का , लेकिन हमने अपनी कोठरी में आयना तक कभी नहीं रखा. बनारस वाली चाची बहुत सुघड थीं. बडे घर की थीं. घर में सिंगारदान की कमी उन्हें खटकती. दिमाग भी खूब चलता था उनका. अपने कोठरी में उन्होंने एक बडा सा शीशा दीवार पर लटका दिया था.उसी से काम चला लेतीं थीं.
एक बार हमें मौका मिला जब हमने उनकी सुहाग पिटारी खुली देख ली थी. वे वहां नहीं थीं. हम बस चुपके से उसमें से एक टिकुली निकालकर अपने माथे के बीचोबीच चिपका लिये थे और फिर दिइवार पर टंगे शीशे में अपने आप को कुछ देर तक निहारते रहे थे. वो दिन हम आज तक नहीं भूल पाये.माथे की बिन्दी हटाने के बाद हम बहुत देर तक रोते रहे थे. अम्मा ने बहुत पूछा था लेकिन अपने मन की बात छिपाना हम तब तक सीख चुके थे.भगवान हमें नरक में भी जगह न दे जो हम झूठ बोल रहें हों. यह काम हमने बस वही एक बार किया था. लडकपन था शायद इसीलिये ऐसी गलती हमसे हो गयी थी अब उस गलती की चाहे जो सजा भगवान हमको दे.
अपनी जिम्मेवारी से हम कभी पीछे नहीं हटे. कब बडी-मुगौडी पडनी है, कितने आमों का अचार पडना है, किस पेड के आम का अचार पडना है, बगीचे से टपके हुये आमों का क्या करना है, कितना अमहर पडेगा और कितने का अमचूर बनवाना है, तालाब से सिघाडों को तुडवाया गया या नहीं, महुआ बिनने कोई गया या नहीं- सब फिकर हमें ही करनी होती. शादी व्याह के समय पितरों को निमंत्रित करना हो तब भी एक हम ही हैं जिसे पितरों के नाम याद हैं. हमारे बाद यह सब कौन करेगा ? इसकी चिंता लगी रह्ती है . यहां जो आता है वह अपनी मौत भी साथ में लिखवा कर लाता है . वापसी का दिन तय होता है. यही दस्तूर है., प्रकृति का यही नियम है और परम सत्य भी है, यह सब जानतें हैं . हम भी जानतें हैं. किसी के बहुत अपने के गुजर जाने पर यही कह कर उसे दिलासा भी देतें रहें हैं . इसके बावजूद न जाने क्यों हमारा मन यह मानने के लिये तैयार नहीं होता. अपनी गैरमौजूदगी में दुनियां के होने की कल्पना करना भी मुश्किल है. भला ऐसा भी कभी हुआ है ? किसी के न रहने से कहीं दुनियां रुकी है जो हमारे न होने पर रुक जायेगी ! अब तो देर सबेर जाना ही है. जाने की सोच कर कैसा कैसा तो हो रहा है .आँखों में जलन हो रही है.
"फुआ रो रहीं हैं !" कह्ती हुयी फुल्लन उनके आँखों के कोर पोंछ रही थी. फुल्लन पडोस में रहती है और अक्सर उंनका हाल समाचार लेने आ जाती है..
"नहीं तो ." धीमी आवाज में बुआ जी बोलीं. पता नहीं कब और कैसे उनकी आँखों के किनारे से पानी बह निकला था.
"बहुत तकलीफ हो रही है ?" बडकी दुलहिन पूछ रही थी.
"नहीं तकलीफ तो नहीं बस ऐसे ही. जरा बिटिया हमारा बक्सा यहाँ मंगवा दो."
'क्या करेंगी उसका ?'
"कुछ काम बाकी रह गया है, जरा उसे मंगवा दोगी."
"अभी मंगवाती हूं." थोडी देर में बक्सा उनके सामने था.
"मेरे सिरहाने से इसकी कुंजी रखी है जरा लेकर इसे खोलना तो फुल्लन."
फुल्लन ने बक्सा खोला . उस बक्से के खोले जाने की खबर सबको हो गयी थी . घर के सभी सदस्य वहां किसी न किसी बहाने पहुंच चुके थे.
"इसमें एक छोटी सी तिजोरी है .बिटिया जरा उसे खोलकर हमें थमा ." फुल्लन उनके कहे अनुसार काम करती जा रही थी.
बडकी दुलहिन कुछ समझीं, बोलीं,
"अभी इसकी क्या जरूरत है बुआ जी . इस तिजोरी को फुल्लन वापस बक्से में रख दो . यह सब कहीं भागा जा रहा है क्या ?"
"जरूरत है. यह काम तो करना ही है. फुल्लन तिजोरी खोल तो." सधी किंतु धीमी आवाज में उन्होंने कहा. बुआ जी अपने गहने एक एक करके अपने गहने जब सबको बाँट चुकीं तब अंत में अपने हाथ में पहनी चूडियों को देखते हुये बोलें,
"ये मेरे हाथ में चार चूडियाँ हैं , बाबू जी ने बनवाये थे तब से मेरे हाथ में ही पडें हैं . कभी निकाला नहीं . मरने के बाद दुलहिन इन्हें निकाल लेना और इन्हें बेचकर मेरे क्रिया कर्म में तुम लोग लगा देना."
इस बीच फुल्लन उठी और बक्से को जहाँ से उठाकर लायी थी वहीं ले जाकर रख आयी.
"आप भी बुआ जी , ये क्या कह रहीं है ! हम लोग अब इतने गये गुजरे भी नहीं !"
"अरे नहीं ऐसी कोई बात नहीं पर हम नहीं चाहते कि हम अपने सिर पर किसी का कर्जा चढाकर इस दुनियां से विदा लें." कहकर उन्होंने अपनी आँखें दुबारा बन्द कर लीं. फिर किसी ने कुछ नहीं कहा और बुआ जी की नींद में खलल न पडे इसलिये सब उस कमरे से बाहर निकल गये.
"लगता है अब बुआ जी की चला चली की बेला आ गयी." प्रभा बुदबुदाई ."
"भाई साहब कब तक आयेंगे दीदी ? जाने क्यों डर लग रहा है ."
"अब तक तो आ जाना चाहिये था ." कह्ते हुये सावित्री ने बाहरी दरवाजे की तरफ देखा.
तभी बाहरी दरवाजा खुलने की आवाज सुनायी दी. लगता है कमला प्रसाद आ गये थे. सत्तर पचहत्तर के तो होंगे ही परंतु बुआ जी उन्हें भइया कह कर ही बुलातीं हैं और उनकी धर्मपत्नी को दुलहिन. बुआ जी के बारे सुनकर वे सीधे उनके पास पहुंचे. वे आंख बन्द करके लेटीं थीं किंतु उनके पैरों की आहट सुनकर बोलीं,
"आ गये बचवा ?"
"कैसा लग रहा है आपको ?"
"ठीक ही है, बस जरा कमजोरी सी लग रही है, कल डाक्टर तो आये थे क्या कह गये थे?"
"कुछ खास नहीं. कह रहे थे ,थोडी कमजोरी है . खाने पीने में अब परहेज करने की कोई जरूरत नहीं . लम्बी बिमारी ने आपको कमजोर कर दियाहै . अब ठीक से खाना पीना करेंगी तब ठीक हो जायेंगी. "
कहकर वे कुछ अनमने हो उठे और बुआ जी से नजरें बचाकर खिडकी से बाहर की तरफ देखने लगे.
बुआ जी सब समझ रहीं थीं, उनका आखिरी वक्त करीब है.
"जाओ थोडा तुम भी आराम कर लो . थके हुये लग रहे हो." कहकर बुआ जी अपनी आंखें बन्द कर लीं. दो बातें कहने भर में ही वे काफी थक गयीं थीं. लम्बी बिमारी ने उन्हें कमजोर कर दिया है.
बडे कमरे में प्रभा- कमला प्रसाद के छोटे भाई की पत्नी- सावित्री के साथ धीरे धीरे बात कर रहीं थीं.
"जीजी लगता है बुआ जी अब नहीं बचेंगीं और यह बात वे भी समझ गयीं हैं . इसीलिये शायद अपने जेवर जेवरात उन्होंने हम सबमें बांट दिये."
"हाँ लगता तो कुछ ऐसा ही है."
"मर जायेंगी तब घर में कितनी शांति रहेगी . कोई सीख देने वाला नहीं रहेगा.जैसे हमें तो कुछ आता जाता ही नहीं." प्रभा मुंह बनाते हुये बोली.
"ऐसा नहीं कहते पुष्पा."
"क्यों? क्या उनके डर के कारण हमारी जान हर वख्त सूली पर अटकी सी नहीं लगती है ?"
"वे हमें अपना समझतीं हैं तभी तो कुछ कहतीं हैं !"
"आपकी सहनशक्ति बहुत ज्यादा है जीजी."कह कर प्रभा रसोंई की तरफ चली गयी. उसका छोटा बेटा टनटन उसे आवाज दे रहा था. थोडी देर बाद ही वह अपने हाथ में रसगुल्ले की कटोरी लिये बुआ जी के सामने पहुंच चुका था. वे सो रहीं हैं और बीमार हैं इसलिये उन्हें जगाना नहीं चाहिये , इतनी उसकी समझ कहाँ !
"उठो दादी उठो ." टनटन था.
बुआ जी की नींद से बोझल आँखें थोडी सी खुलीं.
"क्या बात है टुन्नु ?"
"दादी देखो मैं क्या खा रहा हूं ?"
"क्या है बेटा ?"
"रसगुल्ले, खायेंगी ? मम्मी ने क्षीर सागर से मंगायें हैं."
"तुम खाओ."
रसगुल्ले खाता हुआ टनटन वहां से चला गया. एक जगह उसके पैर टिकते भी तो नहीं..एक पल यहां तो दूसरे ही पल किसी और जगह.. बुआ जी ने दुबारा अपनी आँखें बन्द कर लीं किंतु अब नींद गायब हो चुकी थी. टनटन के हाथ की कटोरी और उसमें रस भरा सफेद रसगुल्ला बार बार उनकी नींद में खलल डाल रहा था. उन्होंने कभी रसगुल्ला नहीं खाया था. रसगुल्ला ही क्यों , कोई भी मिठाई जो चीनी डाल कर बनायी गयी हो नहीं खाया था. खाती कैसे ? कहतें हैं कि चीनी बनाते समय गन्ने के रस की सफाई हड्डियों के चूरे से होती है.
"कैसा स्वाद होता होगा इसका ? बहुत स्वादिष्ट होतें होंगे तभी तो टनटन को इतना पसन्द है. हर दिन खाता है." ओठों पर जबान फेरती हुयी वे उसका स्वाद महसूस करने की कोशिश कर रहीं थीं .
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. वे परेशान हो उठीं . कोई जान जान जायेगा तब क्या कहेगा ? अंत समय जब भगवान का नाम लेने का समय आया तब टनटन के हाथ की कटोरी याद आ रही है.
जबान ऐंठ रही है. लगता है जीवन भर की कठिन तपस्या बेकार होने को है . यह जनम तो बिगडा ही था अब शायद अगला जनम भी जायेगा. आँख के आगे से ये हट जाये इसके लिये भगवान से मनौती भी मान ली उन्होंने किंतु सब बेकार ! ग्रामोफोन के घिसे हुये रिकार्ड की तरह सुई एक ही जगह अटक गई थी तथा घडी के पेंडुलम की तरह रसगुल्ले आँख के आगे डोल रहे थे. पहाड सा लम्बा जीवन कठोर नियमों में बांधकर बिताया था उन्होंने . मांस, मछली तो दूर की चीज है उन्होंने तो लहसुन, प्याज, मसूर, गाजर, चीनी और भी न जाने क्या-क्या , कब का खाना छोड दिया था. लेकिन अब आज उन्हें न जाने क्या हो गया है ? नियम कायदा सब याद होने के बावजूद वे अपना ध्यान उधर से हटा नहीं पा रहीं हैं. सांसों की डोर जब टूटने को है तब टनटन के रसगुल्लों की याद सता रही है. हे भगवान ! अंत समय राम नाम नहीं रसगुल्ले याद आ रहें हैं . कभी कभी उनका आकार इतना बडा दिखने लग रहा है मानो पूरा ब्रह्माण्ड उसमें समा जाये. क्या करूं ?
"किससे और कैसे मांगूं ? हलक में आकर उसका नाम नहीं अटक जायेगा ? सब सुनकर मजाक नहीं उडायेंगे ? तब ?" बहुत देर तक वे इसी उधेड बुन में लगीं थीं कि अचानक उनके दिमाग में कुछ कौंधा और उनकी निस्तेज होतीं आँखों की चमक लौटने लगी-
" टनटन तो हर दिन रसगुल्ला खाता है और इस बीच वह एक बार यहां मेरे पास जरूर आता है. कल जब यहां आयेगा तब उससे जरूर मांगूंगी." वे अपने आपको सांत्वना देती हुयी सोने की असफल कोशिश करने लगीं. लेकिन नींद उनकी आँखों से कोसों दूर थी. रसगुल्ले तो जैसे उनकी जान पर बन आये थे.
बहुत देर से बुआ जी को देखा नहीं सोचकर शेखर उनके कमरे में गया लेकिन उन्हें सोता हुआ देखकर वापस लौट आया.
"बुआ जी ने कुछ खाया ?" वापस आकर शेखर ने प्रभा से पूछा.
"सुबह थोडा मुसम्मी का जूस लिया था उन्होंने ." प्रभा ने बताया.
"इस समय कुछ भी नहीं खाया ? चाय भी नहीं पी ?"
"नहीं, चाय मैं अभी बनाने ही जा रही थी."
"थोडा रुको . मैं उनसे पूछ कर आता हूं . शायद उनका कुछ खाने का मन हो ." कहते हुये शेखर एक बार फिर से उनके पास पहुंचा. बुआ जी के माथे पर धीरे से अपना हाथ रखकर पूछा ,
"बुआ जी क्या खायेंगी ? डाक्टर ने कहा है कि आपकी जो भी खाने की इच्छा हो खा सकतीं हैं."
शेखर के हाथों का स्पर्श अपने माथे पर महसूस करते हुये बुआ जी ने अपनी आँखें खोलने की कोशिश की. अभी अभी उन्होंने सुना कि शेखर ने उनसे खाने के लिये पूछा था. अचानक रसगुल्ले फिर से जीवित हो उठे. अपने सिर को झटका उन्होंने मानो रसगुल्लों को दिमाग से निकाल फेंकना चाहतीं हों .लेकिन हजार कोशिशों के बावजूद वे उन्हीं के बारे में सोच रहीं थीं,
"खाने के लिये रसगुल्ले मांगू क्या ? ठीक होगा ? शेखर क्या सोचेगा ? तब क्या करूं ? टनटन का इंतजार करूं ? लेकिन टनटन तो अब कल रसगुल्ले लेकर मेरे पास आयेगा . तब तक अगर मुझे कुछ हो गया तो ? मेरी जान तो जैसे उसी में अटकी है .उसे खाये बिना तो मरने के बाद भी मुक्ति नहीं मिल पायेगी. आत्मा मृत्युलोक में ही भटकती रहेगी. पूरा जीवन व्रत उपवास ही तो किया है , एक रसगुल्ला खा ही लूंगी तो क्या हो जायेगा ? सुधीजन कहतें हैं कि ईश्वर की मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं होता . तब क्या यह इच्छा भी ईश्वर ही नहीं हमारे मन में पैदा कियें हैं ? अब जो होना हो सो हो ." खुद को आश्वस्त किया बुआ जी ने और एक लम्बी सांस लेते हुये अपनी पूरी आँखें खोल दीं. सामने शेखर अभी भी खडा उनके कुछ कहने का इंतजार कर रहा था .
"कुछ खाने की इच्छा है बुआ जी ?"
"जो इच्छा हो वो खा सकतीं हूं क्या ?" थूक गटकते हुये उन्होंने पूछा. इस क्षण उन्हें लोक- परलोक, कुछ भी याद नहीं था.
"हां हां क्यों नहीं !सब कुछ खा सकतीं हैं .डाक्टर ने ही कहा है. आप कहिये न क्या खाना चाहतीं हैं ?" दरवाजे के पास खडी प्रभा की तरफ देखते हुये शेखर ने कहा.
"अभी थोडी देर पहले टनटन कुछ खा रहा था . कह रहा था कि उसकी मां ने क़्शीर सागर से मंगवाया है ." एक क्षण के लिये वे रुकीं लेकिन फिर लडखडाती जबान से उन्होंने कहा,
"बेटा, वही मंगवा दो, आज मेरा मन कर रहा है. उसे खाने का. पहले कभी नहीं खाया." दीवार की तरफ करवट करते हुये उन्होंने कहा और अपनी आंखें फिर से मूंद लीं . बडी मुश्किल हुयी थी बुआ जी को इतनी सी बात कहते में . खुलकर रसगुल्ले का नाम भी नहीं कह पायीं थीं . शेखर से ये बताने में कितनी तो लाज लग रही थी परंतु रसगुल्ला खाने की ललक का वे क्या करें ?
दरवाजे के पास खडी प्रभा ने अपने दिमाग पर जोर डाला . उसे याद आया , अभी थोडी देर पहले तो उसने टनटन को रोज की तरह रसगुल्ले दिये थे खाने के लिये और वह खाता हुआ बुआ जी के कमरे की तरफ भी आया था. साडी के पल्लू से अपना मुंह दबाकर उसने किसी तरह अपनी हंसी रोकी .
"क्या खा रहा था टनटन ? मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि बुआ जी किस चीज के लिये कह रहीं हैं ?" शेखर ने धीरे से प्रभा के नजदीक आकर पूछा .
"रसगुल्ला ! प्रभा ने जवाब दिया और अपनी हंसी दबाते हुये सावित्री के कमरे की तरफ भागी . कितनी मजेदार बात है , जीजी को बताना जरूरी है .
"श..श.. तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या ?" शेखर फुसफुसाया .किंतु उसकी बात सुनने के लिये प्रभा वहां कहां रुकी !
"बुआ जी की यह अंतिम इच्छा है ." आश्चर्यचकित शेखर की आँखें फैल गयीं . बुआ जी की तरफ उसने अविश्वास भरी नजरों से देखा , उनका चेहरा दीवार की तरफ था इसलिये उनकी सूरत नहीं देख पाया.
"अभी मंगवाता हूं ." कहकर शेखर वहां से चला गया.
उनकी आंखें बन्द थीं किंतु दिल बहुत तेजी से धडकने लगा था . अब वे उस पल का इंतजार कर रहीं थीं जब उनके सामने रसगुल्ले की कटोरी होगी और वे जिन्दगी में पहली बार उसका स्वाद ले पायेंगी. शेखर को गये देर हो गयी , क्या पता न लाये . उन्हें बेचैनी हो रही थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ . कुछ देर बाद ही अपने हाथ में रसगुल्ले की कटोरी लिये हुये शेखर उनसे कह रहा था.
"बुआ जी, उठिये ."
"कौन ?" बुआ जी का मुंह अब भी दीवार की तरफ ही था .
"मैं शेखर, लीजिये रसगुल्ला लाया हूं ."
"ले आये बेटा ?" मन ही मन उन्होंने शेखर को जी भर कर आशीर्वाद देते हुये कहा .
"हां बुआ जी ." शेखर ने सहारा देकर उन्हें उठाते हुये कहा.
बुआ जी की नजरें रसगुल्ले की कटोरी पर जाकर चिपक गयीं . अपने पापा से सटकर खडा टनटन कब से उनकी तरफ बडी उम्मीद से देखता रहा था कि दादी उसकी तरफ एक बार देखें तो वह भी उन रसगुल्लों में अपना हिस्सा लगवाये . उसे रसगुल्ले बहुत प्रिय हैं , कुछ ही मिनटों में बुआ जी तकिये का सहारा लेकर अपने बिस्तर पर बैठी शेखर के हाथ से रसगुल्ला खा रहीं थीं . टनटन ने रसगुल्लों की उम्मीद छोड दी थी और हार कर, दादी से नाराज होकर बाहर चला गया था तथा उसी कमरे की खिडकी और दरवाजे के बाहर से उस घर के बाकी सभी प्राणी मुंह बाये उन्हें रसगुल्ला खाते हुये देख रहे थे.
बुआ जी के चेहरे पर तृप्ति का जैसा भाव था वैसा पिछले कई वर्षों से उनमें से शायद किसी ने नहीं देखा था

पद्मा राय

2 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत अच्छी प्रवाहमय कहानी एक ही साँस मे पढ गयी धन्यवाद

बेनामी ने कहा…

प्रशंसनीय